कितना सत्य है ज्योतिषीय आकलन!
केवल उत्सुकतावश ज्योतिष-शास्त्र का अध्ययन करने के प्रति कभी मेरी रुचि जागृत हुई थी। यह वह समय था जब मैंने म. प्र. बोर्ड की ग्यारहवीं की परीक्षा दी थी और देवसर से भागकर देवास आ गया था। 1970 के अप्रैल माह का कोई दिन था वह।
नानाजी छोटी पाती के आनंदपुरा मोहल्ले में एक मन्दिर में रहते और वहीं पूजा पाठ और पुरोहिती से आजीविका चलाते थे। नानीजी बहुत पहले, शायद मेरे जन्म से भी पहले गुजर चुकी थीं। नानाजी के छोटे भाई और उनका परिवार भी वहीं रहता था। मंदिर तल-मंजिल पर स्थित था और सामने के बड़े फाटकनुमा द्वार से दाएँ बाएँ एक एक सीढ़ी ऊपरी मंजिल पर जाती थी। उन्हीं गर्मियों में वहाँ दोपहर भर "पृथ्वीधराचार्य" की ज्योतिष पर लिखी एक किताब पढ़ता रहता था। और तब से ही सैद्धान्तिक ज्योतिष के बारे में कुछ जानकारी मिली। वहीं हस्तरेखा पर लिखी एक किताब भी मिली और उसके भी पन्ने यूँ ही पलटता रहता था। कुछ बुनियादी सिद्धान्तों का पता वहीं से चलने लगा। उदाहरण के लिए, हमारी पृथ्वी भी वैसा ही एक ग्रह / आकाशीय पिण्ड है जैसे कि ज्योतिष शास्त्र में सूर्य, चन्द्र, बुध, शुक्र, मंगल, गुरु (या बृहस्पति), और शनि हैं।
केवल दृश्य ज्योतिष में सापेक्ष दृष्टि से, दृष्टा नित्य चेतन और सभी दृश्य पदार्थ या पिण्ड जड कहे जाते हैं। जिस चेतना में चेतन और जड साथ-साथ व्यक्त और अव्यक्त होते हैं वह आधारभूत चेतना उन दोनों से विलक्षण है, जिसे उसके अतिरिक्त कोई दूसरा नहीं जान सकता है। क्योंकि वही एकमेव अद्वितीय सत्य है।
दृश्य ज्योतिष में यही सूर्य है और सभी अन्य छोटे-बड़े पिण्ड इसके ही अंश हैं।
वाल्मीकि रामायण में रघुकल में उत्पन्न हुए राजा त्रिशंकु की कथा है जो सशरीर स्वर्ग अर्थात् देवताओं के लोक में जाना चाहते थे। उनके गुरु और पुरोहित ऋषि विश्वामित्र ने उनकी इस इच्छा को वैदिक ज्ञान और यज्ञ के माध्यम से पूर्ण करने की चेष्टा की। इस प्रकार जब वे सशरीर ही स्वर्गारोहण कर रहे थे तो इन्द्र कुपित हो उठे क्योंकि यह विधि के विधान का उल्लंघन था। किन्तु उन देवताओं का यह सामर्थ्य नहीं था कि ऋषि विश्वामित्र के तपोबल और ज्ञान का सामना कर सकें और राजा त्रिशंकु को सशरीर स्वर्ग में प्रवेश करने से रोक सकें। तब वे ऋषि नारद के पास इस समस्या के समाधान के लिए पहुँचे। नारद ऋषि ने उन्हें इसका एक उपाय बतलाते हुए कहा कि देवलोक जिस तल पर स्थित है उससे तिर्यक् और कोणीय अन्तर पर राजा त्रिशंकु को अन्तरिक्ष में अधर में स्थान प्रदान किया जा सकता है। और तब से राजा त्रिशंकु अन्तरिक्ष में उस स्थिति में दिखाई देते हैं।
ध्रुव और सप्तर्षि की कथा भी हम जानते ही है। हमारे सामूहिक पापों के फलस्वरूप इस नाम का एक और भी ध्रुव (राठी) आजकल वायरल है यह भी हमें अच्छी तरह से पता है। यहाँ उसकी चर्चा करना समय का अव्यय ही होगा इसलिए वह फिर कभी।
वाल्मीकि रामायण की इस कथा में यह तो स्पष्ट ही है कि पृथ्वी सहित सभी ग्रह एक ही तल (plane) में स्थित हैं - दूसरे शब्दों में -
पृथ्वी और पृथ्वी लोक एक समतल है। और यह भी, कि अन्तरिक्ष की बड़ी बड़ी दूरियों की तुलना में इस समतल की मोटाई नगण्यप्राय है। और दुनिया गोल नहीं बल्कि चपटी है।
यहाँ इस विवाद के बारे में कुछ नहीं कहा जा रहा, यह बस याद आ गया।
इन ग्रहों का अन्तरिक्ष में विचरण जैसा पृथ्वी पर स्थित किसी दर्शक को दिखाई देता है उसमें उसे यही लगता है कि सूर्य प्रतिदिन सुबह उदित होता है और रात्रि होते ही अस्त हो जाता है। इसे दूसरे ढंग से यूँ भी कह सकते हैं कि जिस समय सूर्य उदित होता है उसे सुबह कहते हैं ओर जिस समय सूर्य अस्त होता है, उसे संध्या या शाम कहा जाता है -
यस्मिन् शम्यते / शाम्यते सूर्यो स शामः इत्यभिधीयते।।
इस प्रकार "काल" या समय की उत्पत्ति या उत्पत्ति होने की प्रतीति कल्पना है न कि कोई वास्तविकता है।
यस्मात् भूयते कालो न कस्मात् अकस्मात् वा।
स अक्षरो अव्ययोऽपि नित्यो यत्र चानुभूयते।।
शिव अथर्वशीर्ष में इसे इन शब्दों में कहा जाता है -
अक्षरात्सञ्जायते कालो कालाद् व्यापकः उच्यते।
इसलिए आभासी रूप से काल और स्थान दोनों ही सूर्य पर आश्रित जगत् है।
एक ही समतल में स्थित जो सात ग्रह सूर्य के चतुर्दिक् उसकी परिक्रमा करते दिखाई देते हैं, उनमें चन्द्र भी एक है जो राशिचक्र (Zodiac) में एक से दूसरी अगली राशि में प्रविष्ट होकर पूरे राशिचक्र में एक वृत्त में भ्रमण करता है। इन राशियों को बारह रूपों में चित्रित किया जाता है, जिन्हें मेष, वृषभ आदि नाम दिए गए हैं। प्रत्येक राशि में सवा-दो नक्षत्र (constellations) होते हैं और प्रत्येक नक्षत्र के चार चरण होते हैं। इस प्रकार से कुल सत्ताईस नक्षत्रों के बारह राशियों में एक सौ आठ बिन्दु होते हैं। और सभी नौ ग्रह मूलतः तो इस प्रकार पूरे राशिचक्र में भ्रमण करते हुए एक सौ आठ पड़ावों पर अनवरत चलते रहते हैं। अब आप इस रहस्य से अवगत हो गए होंगे कि जप-माला में एक सौ आठ मनके क्यों होते हैं।
अब सवाल यह रह जाता है कि यदि सूर्य और चन्द्र को भी ग्रह मान लिया जाए तो ऐसे दृश्य ग्रह तो सात ही हैं। संपूर्ण राशिचक्र जिस गोलाकार (sphere) पर चित्रित है, आभासी पृष्ठभूमि के रूप में चित्रित उस गोलाकार (sphere) पर ही स्वयं पूरा देवलोक या नक्षत्रलोक ही किसी अक्ष पर घूम रहा है। यह भौतिक अक्ष है। इसकी तुलना में दो आकाशीय बिन्दु ऐसे भी हैं जो एक अक्ष पर अनंत दूरी पर स्थित हैं। ओर इन्हें क्रमशः राहु और केतु की नाम दिया गया है। एक सूर्य तो प्रकाशमंडित हमारा सूर्य या भानु है जबकि दूसरा एक और सूर्य है जिसे स्वरों से मंडित स्वरभानु कहा जाता है। स्वरभानु ही वह असुर है जो समुद्र मंथन के समय छिपकर देवताओं की पंक्ति में बैठ गया था और सूर्य और चन्द्र ने मोहिनी का ध्यान जिसकी ओर आकर्षित किया था।
इसलिए यद्यपि मोहिनीरूप में विद्यमान विष्णु ने सुदर्शन चक्र से उसका सिर काट दिया था, किन्तु इससे पहले ही वह अमृत चख कर अमर हो चुका था। और अब भी वह ज्योतिषीय गणना के अनुसार सुनिश्चित समय पर सूर्य और चन्द्र को अपना ग्रास बनाने की असफल चेष्टा किया करता है। यह सब वैज्ञानिक तथ्य हैं।
1970 से मेरे ज्योतिष-शास्त्र के अपने अध्ययन में इसी निष्कर्ष पर मैं पहुँचा कि यह सब पूर्णतः विश्वसनीय और व्यावहारिक, वैज्ञानिक सत्य भी है।
इसे ही मैंने इस रूप में पुनः संसार की विविध घटनाओं से समायोजित (relate) करने पर पाया कि इस ज्ञान के आधार पर पूरे संसार के भावी का आकलन भी किया जा सकता है। इसे मेदिनी ज्योतिष भी कहते हैं जिसके आधार पर आजकल तमाम विद्वान संभावित भविष्य का पूर्वानुमान लगाते हैं।
उदाहरण के लिए राहु लगभग अठारह सौर वर्षों में सूर्य (या राशिचक्र) की एक परिक्रमा करता है। राहु की ऐसी तीन परिक्रमाओं में चौवन वर्ष व्यतीत होते हैं।
वर्ष 1971 के चौवन वर्षों के बाद पुनः भारत पाक युद्ध हुआ और वही परिणाम होता हुआ दिखलाई दे रहा है जो कि उस समय हुआ था। अर्थात् पाकिस्तान के टुकड़े होना। इसी प्रकार शनि तथा गुरु के राशिचक्र में भ्रमण का समय क्रमशः तीस और बारह सौर वर्ष का होता है। ये सभी ग्रह पृथ्वी की कक्षा से बाहर भ्रमण करते हैं और इसी प्रकार मंगल भी है, जबकि बुध और शुक्र पृथ्वी की कक्षा से भीतर भ्रमण करते हैं। और इनके साथ चन्द्र को भी रखा जा सकता है। इस पूरे घटनाक्रम की इस आधार पर कोई सुनिश्चित विवेचना की जा सकती है और भारत के इतिहास नामक रामायण और महाभारत जैसे प्रमुख ग्रन्थों में वर्णित उल्लेखों के परिप्रेक्ष्य में हमारे व्यक्तिगत और सामूहिक जीवन का, राष्ट्रों और मानव सभ्यता के भविष्य का भी पूर्वानुमान किया जा सकता है।
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