चैत्य / Chateau
कविता / 18-03-2022
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इस रास्ते पर हर दिन ही
सुबह-दोपहर शाम-रात,
शीत-ग्रीष्म, पावस-बसंत,
धूप में, छाया में, पतझड़ में,
सतत, निरंतर और लगातार,
घूमता रहा हूँ मैं दो-तीन साल!
पार्क है इस बसाहट के बीच,
जिसमें हैं दो छोटे-छोटे चैत्य,
उपेक्षित, सुनसान, और वीरान,
जहाँ कभी बच्चे खेलते हैं,
कभी गाय-बकरी चरानेवाले,
दोपहर भोजन करते हुए,
अलसाते, ऊँघते, सुस्ताते,
कुछ समय बिताते हैं!
रास्ते के दो सिरों पर,
दो फाटक हैं किवाड़-रहित,
हद, पार नहीं करता मैं!
बार बार लौट आता हूँ,
अपनी हद, -मर्यादा में!
एक हद पर है, बुद्धि मेरी,
तो दूसरी पर है, -'मैं'-बुद्धि!
क्या पता कौन है स्वामी,
क्या पता कौन है सेवक!
द्वन्द्व के दो सिरों के बीच,
रास्ता मेरा गुजरता है!
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