कविता / 23-03-2022
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कितने क्षणिक संबंध हैं,
पर दीर्घ कितनी है स्मृति!
कितना क्षणिक विचार है,
पर दीर्घ कितनी है प्रवृत्ति!
कितनी क्षणिक है कल्पना,
पर, दीर्घ कितनी भावना है,
कितनी क्षणिक है तृप्ति,
पर, दीर्घ कितनी कामना है!
कितना क्षणिक है समय,
पर दीर्घ कितना काल है,
कितना क्षणिक, है क्षणभंगुर,
उपलब्ध, यह संसार है!
कितना क्षणिक मोह है,
कितना क्षणिक है राग भी,
कितना क्षणिक विराग है,
पर दीर्घ कितनी है आसक्ति!
कितना सुलभ विचार है,
पर विवेक कितना है दुर्लभ,
कितना प्रबल संस्कार है,
वैराग्य कितना है निर्बल!
जड़बुद्धि का है भार नौका,
संसार-सागर क्षुब्ध है,
क्षितिज पर है इन्द्रधनुष,
देखकर मन मुग्ध है!
उपलब्धि तो कुछ भी नहीं,
आयु घटती जा रही,
कौन सी आशा है जो,
अब, पूर्ण होने जा रही!
फिर भी यह नाटक नया,
जैसे निरंतर है सतत,
कथा जीवन की अनोखी,
प्रकट फिर भी है अकथ!
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