March 29, 2022

छन्द और छद्म

छायावाद और जनवाद 

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(वैसे इस पोस्ट का शीर्षक "मोहिनी-अट्टम्" भी हो सकता था, किन्तु वह भ्रमोत्पादक होता।)

संयोगवश पुराना अखबार -

(नई दुनिया- इन्दौर, रविवार  दिनांक 02-02-2020, पृष्ठ 2), 

हाथ लगा, तो जहाँ 'किताबघर' में एक जनकवि की किताब के बारे में जानकारी प्राप्त हुई, वहीं उससे ऊपर ही, जनवादी कहे जानेवाले कवि 'अश्वघोष' से स्मिता की बातचीत के अंश पढ़े।

अश्वघोष से याद आया बुद्धचरितं, जिसका अनुवाद हिन्दी भाषा में स्वर्गीय महादेवी वर्मा ने किया था। बुद्धचरितं की जो पुरानी संस्कृत प्रति पाई जाती है, उसे संस्कृत भाषा के किसी विदेशी विद्वान् ने सुधार और संशोधित कर, अनुमान से कुछ (विलुप्त प्रतीत होनेवाले) शब्दों के स्थान पर अन्य, उसे जो उचित प्रतीत हुए,ऐसे शब्दों को रखकर संपादित किया था।

स्वर्गीय महादेवी जी की प्रतिभा और तपस्या को नमन!

इसी पृष्ठ पर जरा ऊपर,

"लेखनकक्ष से"

के अन्तर्गत --

"कविताओं में न हो भाषा का घटाटोप"

शीर्षक से जनवादी कवि अश्वघोष से स्मिता की बातचीत पर आधारित एक आलेख है, जिसका उल्लेख ऊपर मैंने किया।

प्रश्न : पहले और आज की कविताओं में कितना अंतर आ चुका है? 

उत्तर : पहले कविताएँ छायावाद का प्रतिरूप थीं। जिस समय छायावाद खत्म हो रहा था, उस समय कविता वैयक्तिक थी। कविताओं में आदर्श और व्यक्ति ज्यादा थे, इसलिए उनमें प्रेम और देशभक्ति की भावना की बहुलता थी। जैसे ही आजादी मिली, तो रचनाकारों का मोहभंग हो गया। देश की तरह साहित्य में भी क्रान्ति आई और साहित्य में भी धीरे धीरे प्रगति होने लगी। पचास के बाद की कविता में यथार्थ का बाहुल्य आया। वरिष्ठों ने यथार्थ को प्रश्रय दिया। हमारे जमाने में आदर्श नहीं थे। वर्तमान पीढ़ी अति यथार्थवाद पर आधारित है। पहले ज्यादातर कविताएँ प्रकृति पर होती थीं या प्यार पर। वे समाज पर नहीं होती थीं। 

पढ़ते हुए मन में प्रश्न उठा:

क्या छायावाद खत्म हो चुका है?

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इतिहास की प्रामाणिकता / छाया और छायावाद,

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कल्पेऽएकस्मिन् इति बभूव। 

रुद्रो हि एको बहवो बभूव।। 

अहं रुद्रेभिर्वसुभिश्चरामि ।

साब्रवीत सर्वेभ्यश्च देवी ।।

ऐसा प्रतीत होता है कि इतिहास शब्द का तात्पर्य इसके मूलतः संस्कृत परिभाषा "इति ह आस" से ग्रहण किया जा सकता है। 

उपरोक्त संस्कृत में स्व-रचित चार पंक्तियों में मैंने जिस देवी को स्मरण किया है, सूर्य की उन्हीं संज्ञा और छाया नामक दो स्त्रियों का उल्लेख स्कंद पुराण में पाया जाता है। 

विश्वकर्मा की पुत्री संज्ञा जिसका विवाह सूर्य से हुआ था, सूर्य के उत्ताप को सकने में असमर्थ हो, एक दिन सूर्य के घर को छोड़ पिता के घर लौट आई। सूर्य की संज्ञा से तीन संतानें यम, यमुना और मनु थीं। सूर्य के घर से जाने से पूर्व संज्ञा ने अपनी, ठीक अपने ही जैसी एक छाया-प्रतिमा रची, और उससे कहा:

"बहन, तुम यहाँ मेरे स्थान पर रहो, सूर्य और मेरे पुत्रों की सेवा और देखभाल करो, किन्तु उन पर यह रहस्य प्रकट न होने देना कि तुम संज्ञा नहीं हो।"

"हाँ, किन्तु तभी तक जब तक मेरे प्राणों पर ही न आ बने!"

"ठीक है।"

संज्ञा ने कहा। 

संज्ञा जब पिता के घर पहुँची, तो पिता ने एकाएक बिना सूर्यदेव के साथ और बिना पूर्वसूचित किए उसके आने का कारण पूछा। तब उसने बताया कि वह सूर्य का ताप सहन न कर पाने से यहाँ आई है। 

पिता ने कहा :

"बेटी! स्त्री का घर तो वही है, जहाँ उसका पति होता है, जिससे उसका विवाह हुआ होता है, तुम सूर्यदेव के पास लौट जाओ।"

तब संज्ञा पिता के पास से तो लौट आई किन्तु सूर्यदेव के पास न जाकर घोर वन में चली गई। घोड़ी का रूप धारण कर वह तप करती हुई, वहाँ चरती रही। 

बहुत समय(!) बाद, जब छाया से सूर्यदेव की तीन और संतानों  शनि, तापी नदी तथा सावर्णि मनु (Emanuel! अव मनु अल्) ने जन्म लिया, सूर्य के संज्ञा से उत्पन्न पुत्र यम ने देखा कि छाया उसकी, यमुना और मनु इन तीनों की तो उपेक्षा करती है, किन्तु शेष तीनों का बहुत लाड-प्यार करती है। तब यमदेवता ने क्रोध में आकर छाया पर अपने पैर से आघात किया। तब छाया ने यम को शाप दे दिया। यम तब पिता के पास पहुँचे, और उनसे बोले :

"लगता है, यह हमारी माता नहीं है, क्योंकि माता कभी अपनी संतान को शाप (curse) नहीं देती।"

तब सूर्यदेव को छाया की वास्तविकता पर सन्देह हुआ, उन्होंने  उससे पूछा :

"सच-सच बता तू कौन है?"

तब छाया ने उनसे सब कुछ सत्य सत्य कह दिया। 

तब सूर्यदेव संज्ञा को खोजते हुए विश्वकर्मा के घर गए और संज्ञा के पिता ने उन्हें बताया कि संज्ञा जब उनसे मिली थी, तब उसे उन्होंने लौटकर सूर्य के पास जाने के लिए कहा था, और वहाँ से उस समय वह चली गई थी।"

तब सूर्यदेव संज्ञा को खोजते हुए उस घोर वन में जा पहुँचे, जहाँ वह अश्विनी (घोड़ी) के रूप में चर रही थी ।

उसे देखकर सूर्य ने अश्व का रूप धारण कर लिया और सूर्य भी उसके साथ घोर वन में चरते, तप करते रहे। 

सूर्य और संज्ञा की यमक संतानों का नाम "अश्विनौ" हुआ, और उल्लेखनीय है कि ग्रीक शब्द equinox का उद्भव और संबंध अश्विनौ से ही हो सकता है। 

यह पूरी कथा आध्यात्मिक, ज्योतिषीय और भौतिक आयामों को समेटती है। इसलिए मुझे अत्यन्त प्रिय है।

इसकी प्रामाणिकता की परीक्षा इन तीनों कसौटियों पर परखी जा सकती है। 

यह हुआ एक और इतिहास!

***









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