कविता / 08-03-2022
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देह से बाहर जाने के लिए,
प्राणों को राह नहीं मिलती,
श्वास-प्रश्वास पुनः पुनः फिर,
भरती है वायु, -फुफ्फुस में,
करती है प्रज्वलित अग्नि को,
अग्नि जो प्राणाग्नि है, -प्राण,
चक्र चलता है देह में सतत,
प्राण से चेतना, चेतना से प्राण,
प्राण से मैं, मैं से प्राण पुनः,
चक्र चलता है देह में सतत,
एक संसार, -वहाँ देह में,
एक देह, यहाँ संसार में,
होते हैं बिम्बित-प्रतिबिम्बित,
परस्पर एक-दूसरे में!
जीवन-चुम्बित प्राण,
प्राण-चुम्बित जीवन,
जीवन-चुम्बित चेतना,
चेतना-चुम्बित जीवन,
खेलते रहते हैं सभी,
परस्पर एक-दूसरे से,
परस्पर एक-दूसरे में!
चढ़ते-उतरते रहते हैं,
मन-यात्री असंख्य अनगिनत,
कोई नहीं जानता किसी को!
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