विचार का भविष्य
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भविष्य के दो ध्रुव / पक्ष हो सकते हैं :
विषयपरक (objective) और स्वपरक (subjective).
किन्तु ये दोनों ही पक्ष एक ही चेतना की दो प्रतीत होनेवाली अभिव्यक्तियाँ होती हैं। इसी प्रकार इनकी जो पृष्ठभूमि है उसके भी पुनः दो और पक्ष हैं : काल (Time), और स्थान / आकाश (Space) . यद्यपि चेतना में ही काल और स्थान की कल्पना और कल्पना से उद्भूत विचार सक्रिय होते हैं, और काल और स्थान की एक आधारभूत वैचारिक पृष्ठभूमि के रूप में चेतना ही काल और स्थान के विचार की भूमिका होती है, इसलिए काल और स्थान के वैचारिक स्मृति में परिणत हो जाने के कारण ही उनके किसी वास्तविक (Real) अस्तित्वमान तत्व जैसे होने का अनुमान होता है। यह अनुमान भी आभास और कल्पना ही है, न कि कोई वस्तुनिष्ठ सत्यता (Objective Reality) । इस प्रकार इस आभासी काल के ही अन्तर्गत किसी भविष्य का आभास अतीत के सत्य होने के वैचारिक भ्रम का परिणाम है। अतः वस्तुतः तो भविष्य नामक किसी वस्तु का अस्तित्व हो ही नहीं सकता। यदि है भी, तो वह केवल उस तथाकथित भविष्य के बारे में उठनेवाले विचार का।
इसे ही विषय-परक सत्यता (Objective Reality) और स्व-परक (Subjective Reality) की दृष्टि से देखें, तो भविष्य (या भविष्य का विचार) भी या तो संसार (mental-world) / जगत् ( material-world) के बारे में होता है, या स्वयं ही के बारे में। संसार / जगत् की सत्यता के बारे में किसी को कोई संशय नहीं होता और उसे प्रत्येक ही मनुष्य एक अकाट्य और अनुभव-गम्य, इन्द्रियगम्य, विचारगम्य, असंदिग्ध तथ्य मानकर चलता है, किन्तु अपने-आपमें ऐसे किसी सर्व-सामान्य, समान (common) संसार का अस्तित्व, जिसे कि भौतिक विज्ञान के द्वारा सत्यापित किया जा सके, या ग्राह्य वस्तु की तरह स्वीकार कर सकें, संदिग्ध ही है।
फिर विचार का भविष्य क्या है? क्या यह भविष्य का एक और विचार भर ही नहीं है?
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