March 01, 2022

अतीत का विचार

विचार का अतीत

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अतीत विचार पर आधारित स्मृति है,

स्मृति पहचान है, और पहचान ही स्मृति।

यदि पहचान है तो ही स्मृति है, और यदि पहचान नहीं है, तो स्मृति भी नहीं हो सकती।

विचार पहचान और स्मृति के बीच की काल्पनिक दूरी है। इस दूरी में ही विचार जन्म लेता है, और उस विचार से पुनः कोई दूसरा विचार जन्म लेता है। स्मृति से विचार की पहचान होती है तथा पहचान से स्मृति की निरंतरता। इस प्रकार विचार यद्यपि क्षण क्षण उत्पन्न और विलीन होता रहता है, किन्तु विचारों की निरंतरता ही स्मृति / पहचान के रूप में ऐसी वस्तु की तरह प्रतीत होती है जो सतत परिवर्तित होते हुए भी किसी स्वतंत्र वस्तु की तरह प्रतीत होती है और उसे अपरिवर्तनशील सत्य मान लिया जाता है। उस अपरिवर्तनशील प्रतीत होनेवाली वस्तु की स्मृति-निर्मित धारणाओं (conceptual existence) के आधार पर और अनेक प्रकार की दूसरी भी ऐसी धारणाओं के समूह को सत्य की तरह ग्रहण कर लिए जाने के कारण, मूलतः एक काल्पनिक वस्तु होते हुए भी, स्मृति वास्तविक वस्तु जैसी जान पड़ती है। स्मृति को इसलिए मन का भी समानार्थी समझा जाता है। इस दृष्टि से स्मृति है, तो ही मन होता है और मन है तो अवश्य ही कोई न कोई स्मृति / पहचान विद्यमान होती है।

क्या यह कहना ठीक नहीं होगा कि स्मृति-रूपी मन से भी अन्य चेतना-रूपी कोई आधारभूत मन अवश्य है जो स्मृति से स्वतंत्र और वस्तुतः अपरिवर्तनशील है। यह चेतना-रूपी मन नितान्त शुद्ध, अविकारी है जिसमें यद्यपि विचार उठते और विलीन होते रहते हैं किन्तु यह स्वरूपतः उस मन से अछूता है, जिसमें अन्य सभी विचारों का जन्म, पहचान और स्मृति प्रकट और अप्रकट होते हैं, और एक विशिष्ट विचार अर्थात् अपने निरपेक्ष अस्तित्व के सहज भान के साथ इस अस्तित्व के साथ उसके भान की भी स्मृति, पहचान का विचार के रूप में उद्भव होता है। यह विचार मूलतः एक ओर अन्य विचारों की तरह ही आता-जाता है किन्तु दूसरी ओर अन्य सभी विचारों को एक सूत्र में पिरोता भी है।  अन्य विचार जहाँ सतत उठते और मिटते रहते हैं यह विशिष्ट विचार अपनी स्मृति के रूप में "मैं"- विचार की तरह मन पर आधिपत्य कर अपेक्षतया स्थायी रूप ग्रहण कर लेता है। 

इस सापेक्ष मन से, जिसमें इस सूत्र-रूपी "मैं"- विचार पर अन्य सभी विचार पिरोए होते हैं, एक ऐसा चेतना-रूपी और एक मन भी अवश्य है जिसमें "मैं"-विचार के उठने-मिटने या होने तक के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता। अतः इसकी स्मृति या पहचान तक नहीं हो सकती। तर्क, अनुमान, इन्द्रिय-अनुभव, बुद्धिगम्य रूप में भी यद्यपि इसके अस्तित्व, अस्तित्व के भान और भान के अस्तित्व से इनकार नहीं किया जा सकता किन्तु इसे प्रत्यक्ष (objective) की तरह जानना असंभव है। 

स्मृति, पहचान, विचार, मस्तिष्क में विचार के रूप में संग्रहित होकर संगठित हो जाते हैं, जिससे संसार की नित्यता अर्थात् ऐसे किसी संसार के काल्पनिक अस्तित्व के अनुमान का जन्म होता है, और चेतना-रूपी मन ही इस कल्पना का अचल-अटल अविनाशी आधारभूत सत्य भी है इसलिए यह मन ही मनुष्य की आत्मा है। 

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