कविता / 23-03-2022
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क्यों टकराते हो मुझसे,
क्या मैं तुमसे टकराता हूँ!
तुम क्यों डरते हो मुझसे,
क्या मैं तुमसे डरता हूँ!
युद्ध तो समाधान नहीं,
संवाद जरूर विकल्प है,
युद्ध का यह उन्माद तो,
विनाश का ही संकल्प है!
विनाश तो उपचार नहीं,
विनाश, हिंसा-प्रहार है,
जब नहीं है शत्रु कोई,
स्वयं का ही संहार है!
तुम क्यों सबसे डरते हो,
क्या कोई तुमसे डरता है?
तुम क्यों खुद से डरते हो,
क्या कोई खुद से डरता है?
यह बैसाखी उसूलों की,
जिसे तुम लाठी कहते हो,
सहारे को तो अच्छी है,
क्यों बन्दूक समझते हो?
उसूलों की हिफाजत तो,
उसूल ही अपनी कर लेंगे,
तुम अपनी ही कर लो तो,
सभी इंसान जी लेंगे।
क्यों अपने उसूलों को,
लोगों के सर मढ़ते हो!
क्यों तलवार लेकर तुम,
मासूमों पर चढ़ते हो?
बहादुरी है, कौन सी इसमें,
क्यों खुद को भरमाते हो?
लेकिन छोटे से खतरे से भी,
क्यों बुरी तरह डर जाते हो?
छोड़ो भी यह जिद बचकानी,
अब तो कुछ संजीदा हों,
कुछ ऐसा उसूल अपनाएँ,
जिससे हम ना शर्मिन्दा हों!
या फिर चलने दो दुनिया में,
शक-शुबहा, यह मार-काट,
जब तक खत्म ही ना हो जाए,
तब तक चलने दो उत्पात!
शायद वह भी समाधान हो,
सबसे उम्दा, सबसे बेहतर,
दुनिया ही जब ना होगी,
केवल शान्ति रहेगी भू पर!
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