November 30, 2021

मुद्रा-चिन्तन

अर्थ-चिन्तन

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अर्थ-शास्त्र मुझे कभी समझ में नहीं आया, क्योंकि उसे समझने की आवश्यकता कभी अनुभव ही नहीं हुई। जब जेब में पैसे हों तो पैसे के बारे में सोचना ही क्यों!  और, जब जेब खाली हो तो पैसे के बारे में सोचना ही क्यों! वैसे सच यह भी है कि लगभग हर किसी की जेब अकसर आधी भरी और आधी खाली भी होती है! इसे गिलास के आधे भरे होने जैसी सच्चाई जैसी दृष्टि से भी देखा जा सकता है! फिर संसार में ऐसे लोग बहुत कम होते होंगे जिन्हें संसार का सबसे बड़ा धनवान कहा जा सके। उनका भी स्थान हर रोज ऊपर नीचे होता रहता है। 

किन्तु जब से क्रिप्टोकरेंसी प्रचलन में आई है, मुझमें इस बारे में  थोड़ी उत्सुकता अवश्य उत्पन्न हुई है। पिछले किसी पोस्ट में मैंने क्रिप्टोकरेंसी की तुलना 'रिलीजन' से की थी। मुझे लगता है कि जैसे 'रिलीजन' के किसी न किसी प्रकार पर यद्यपि हर किसी की आस्था होती है, किन्तु इस बारे में कोई सर्वमान्य राय नहीं बन पाती, कि कौन सा 'रिलीजन' धर्म है या धर्म नहीं है, ठीक वैसे ही, कौन सी क्रिप्टोकरेंसी का आगमन कहाँ से हुआ, और कौन सी कितनी विश्वसनीय या अविश्वसनीय है, इस बारे में भी शायद ही कोई सर्वमान्य सहमति होगी। 

वर्तमान में जो मुद्रा अलग अलग देशों में वहाँ के संविधान के द्वारा तय और प्रचलित होती है वह भी अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों के अनुसार कम या अधिक शक्तिशाली होती रहती है और इसमें संदेह नहीं किया जा सकता कि दुनिया भर की आर्थिक शक्तियाँ उसे लगातार प्रभावित करने की कोशिश करती रहती हैं। 

(जैसा कि आजकल पाकिस्तान या तुर्की की राष्ट्रीय मुद्रा का अंतर्राष्ट्रीय मूल्य है।) 

विभिन्न देश अपनी राष्ट्रीय मुद्रा को यू. एस. डॉलर से संबद्ध करते हैं, और इस बारे में भी हर राष्ट्र को सचेत होना चाहिए, क्योंकि इसके गंभीर परिणाम हो सकते हैं।

क्रिप्टोकरेंसी के आगमन / आविष्कार के बाद स्थिति और भी अनिश्चित व भयावह हो गई है। 

फिर भी राष्ट्र अवश्य ही अपनी एक डिजिटल करेंसी परिभाषित और प्रचलित कर सकता है।  

कैसे?

देश का केन्द्रीय बैंक (Central Bank), उसके पास विद्यमान वास्तविक स्वर्ण की जितनी संरक्षित मात्रा (Gold-Reserve) है, उसके आधार पर रुपये या राष्ट्रीय मुद्रा में उसका मूल्य तय कर तदनुसार डिजिटल करेंसी जारी कर सकता है। 

डिजिटल करेंसी जारी करनेवाली विभिन्न एजेंसियों के लिए यह आवश्यक होना चाहिए कि वे केन्द्रीय बैंक की सुरक्षा (कस्टडी) में रखी हुई उनकी स्वर्ण-प्रतिभूति (Gold-Reserve) के मूल्य के पैमाने पर ही उनकी क्रिप्टोकरेंसी बाजार में प्रस्तुत कर सकते हैं। इस प्रकार इस क्रिप्टोकरेंसी को शेयर-मार्केट में अधिसूचित भी किया जा सकता है। उनमें परस्पर स्वस्थ प्रतिस्पर्धा होना भी संभव है।

इस प्रकार बहुत से प्लेयर्स अर्थ-व्यवस्था के अन्तर्गत अपनी एक क्रिप्टोकरेंसी चुनकर पारदर्शी तरीके से अपनी बाजार-पूँजी को विकसित कर सकते हैं।

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कल, आज और कल

अतीत, वर्तमान और भविष्य :

जीवन-धर्म

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पिछले पोस्ट के संदर्भ में देखें तो स्पष्ट है कि अतीत, वर्तमान या भविष्य के बारे में जब भी सोचा जाता है या हम सोचने के लिए बाध्य होते हैं तो किसी न किसी संदर्भ में ही ऐसा होता है। दिलचस्प तथ्य यह है कि इस स्थिति में सर्वाधिक महत्वपूर्ण और आवश्यक संदर्भ पर हमारा ध्यान ही नहीं जाता या अपने किसी भय या आग्रह के कारण जानते हुए भी हम उस संदर्भ पर ध्यान ही नहीं देते ।

मोबाइल या टीवी पर कोई भी न्यूज़ आइटम या कोई ऐड हमारी तात्कालिक आवश्यकता की ओर से सिर्फ हमारा ध्यान ही नहीं हटाते, बल्कि उसे किसी ऐसी दिशा में खींच लेते हैं, जो न सिर्फ तात्कालिक उत्तेजना अथवा आकर्षण होती है बल्कि हमें अपनी वास्तविक आवश्यकता के बारे में सोचने / सोच पाने से भी रोक देती है। हाँ यह प्रायः होता है, कि तब आप कल, आज या कल, अतीत, वर्तमान या भविष्य के बारे में भी सोच रहे होते हैं, वह भी किसी न किसी दृष्टिकोण से!

फिर भी अपने मूल चरित्र के अनुसार आप अपना मूल्यांकन भी अवश्य कर सकते हैं। 

प्रत्येक मनुष्य मूलतः जिन प्रेरणाओं से संचालित होता है, वैसे तो वे उसके परिवार, परिवेश तथा परिस्थितियों का मिला जुला प्रभाव होती हैं, किन्तु सफलता, आदर्श, कर्तव्य, व्यक्तिगत स्वार्थ आदि को सर्वोपरि स्थान देकर हर मनुष्य किन्हीं आवश्यकतओं को सबसे अधिक महत्व देने लगता है। 

'लोग क्या कहेंगे!' 

इस एक प्रश्न का सामना भी प्रत्येक मनुष्य अपनी मूल प्रेरणा के ही अनुसार करता है।

सफलता को अधिक महत्व देनेवाला कोई व्यक्ति अच्छा या बुरा, व्यावहारिक या अव्यावहारिक, सरल या उलझा हुआ, संतुष्ट या असंतुष्ट, साहसी या भीरु, स्पष्ट या भ्रमित हो सकता है। 

इसी प्रकार महत्वाकांक्षा से ग्रस्त कोई मनुष्य भी इसी प्रकार से हो सकता है। 

किसी वास्तविक, काल्पनिक ध्येय या आदर्श से प्रेरित व्यक्ति भी इसी तरह अच्छा या बुरा, व्यावहारिक या अव्यावहारिक, अपने कार्य को कैसे किया जाना है, इस बारे में ठीक से जानता या इस बारे में भ्रमित भी हो सकता है। 

"क्या नियति या भाग्य ही मनुष्य को जीवन में सफलता अथवा असफलता, सुख या दुःख आदि प्रदान करते हैं, या कि वह स्वयं ही अपने भाग्य का स्वामी / निर्माता है?"

यह प्रश्न भी मनुष्य अकसर तब पूछता है जब जीवन में उसका सामना सतत आशा-निराशा से होने लगता है। 

जब तक सब कुछ ठीक चल रहा होता है तब तक मनुष्य जीवन के छोटे-बड़े प्रश्नों से सरलता से निपट लेता है, लेकिन बहुत सी समस्याएँ सामने आने पर प्रायः हर कोई व्याकुल और भ्रमित हो जाया करता है, दुविधा और असमंजस में ऐसे निर्णय कर लेता है जिससे  समस्याएँ और भी उलझ जाती हैं।

क्या यह भी नियति अथवा भाग्य से होता है? 

इस तरह से सोचने से क्या हम किसी निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं, या कोई समस्या हल हो जाती है?

इसलिए यह तो इस पर ही निर्भर करता है कि हम प्रश्न पर किस संदर्भ में देखते हैं। और संदर्भ भी क्या सिर्फ़ एक ही होता है? संदर्भ बहुत से हो सकते हैं, किन्तु फिर किसी एक के आधार पर भी विकल्प भी अनेक हो सकते हैं। यह कठिनाई है या अवसर, यह भी अपने अपने दृष्टिकोण से तय हो सकता है!

दृष्टिकोण जितना अधिक उदार, व्यापक और सर्वाङ्गीण होगा, समस्याओं और प्रश्नों को चुनौतियों, अवसरों, और संभावनाओं की तरह ग्रहण किया जाएगा, हमारा जीवन भी उतने ही अधिक उत्साह और उल्लास से समृद्ध हो सकता है। 

यही संक्षेप में धर्म नामक प्रथम पुरुषार्थ है। 

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November 27, 2021

सवाल यह है!

सवाल यह नहीं है,

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कि हम किसी चीज़ के बारे में क्या सोचते हैं, महत्वपूर्ण सवाल यह है कि उस पर हम किस सन्दर्भ से सोचते हैं। यह संदर्भ कोई परंपरा, मान्यता, आग्रह, विश्वास या कोरी कल्पना भी हो सकता है।

किसी परंपरा, मान्यता, आग्रह, विश्वास या कोरी कल्पना से उस चीज़ के बारे में सोचते हुए हम प्रायः दुविधा या कट्टरता से ग्रस्त भी हो सकते हैं, और किसी प्रकार के भय, आकर्षण, सामाजिक दबाव आदि के प्रभाव में आकर अपनी स्वतंत्र विवेक-बुद्धि को दरकिनार भी कर सकते हैं। 

विकास के बारे में हमारा चिन्तन इसी आधार से प्रेरित होता है। विकास क्या है? सामान्यतः विकास से हमारा यही आशय होता है, कि राष्ट्र शक्तिशाली बने, दूसरे राष्ट्रों की तुलना में प्रभावशाली बने। शक्तिशाली होने का मतलब हुआ, -भौतिक रूप से समृद्ध और साधनसंपन्न हो। और यह भौतिक समृद्धि किस प्रकार और किस कीमत पर पाई जा रही है, इस ओर न तो किसी का ध्यान होता है, न कोई ध्यान देना चाहता है। कोई राजनीतिक विचार, कोई राजनीतिक रूप से प्रभावशाली व्यक्ति ही इस विकास का प्रतिनिधि-उदाहरण ideal icon बन जाता है। इसकी तुलना में तमाम नीति (ethics and morality) शील (humility) और आचार (behavior and code of conduct) गौण हो जाते हैं। किसी भी उचित अनुचित-रीति से सफल हो जाना ही ध्येय होकर रह जाता है। किन्तु इस सफलता के शिखर पर पहुँचकर भी क्या किसी के भी जीवन में कहीं कोई वास्तविक प्रफुल्लता दिखाई पड़ती है! यह न केवल किसी व्यक्ति-विशेष के बारे में सत्य है, बल्कि पूरे समाज के बारे में भी इससे भी अधिक सत्य है। क्या ऐसा कोई भी व्यक्ति अपने जीवन की आन्तरिक रिक्तता को दूसरों की नजरों से छिपा पाता है? क्या यह आत्म-गौरव उसे उसके मन की शान्ति और समाधान प्रदान कर पाता है! 

अपने भीतर क्या वह उतना ही, या उससे भी अधिक खाली नहीं होता, जितना कि कोई भी दूसरा सामान्य मनुष्य हुआ करता है?

इससे जुड़ा एक इतना ही महत्वपूर्ण प्रश्न यह भी है कि प्रत्येक  व्यक्ति मनोरंजन (entertainment / enjoyment) के पीछे क्यों भागता है! मनोरंजन (entertainment / enjoyment) में मनुष्य को ऐसा क्या प्राप्त हो जाता है जिससे कि उसका जीवन सार्थक और पूर्ण हो जाता हो! इसके बाद क्या  "what next?" पुनः आकर सामने नहीं खड़ा होता? क्या भविष्य की आशंकाएँ, अनिश्चितताएँ समाप्त हो जाती हैं?

स्पष्ट है कि मर्यादारहित सुख का भोग अन्ततः मनुष्य को उतना ही असंवेदनशील बना देता है, और ऐसे नीरस जीवन में सुख या उत्तेजना की तलाश में वह और भी नये-नये तरीकों की तलाश में संलग्न हो जाता है। वे सुख या उत्तेजनाएँ किसी नशे के माध्यम से या किसी आदर्श के प्रति गहरे समर्पण से भी सतत पैदा की जा सकती हैं, और उनमें सतत गौरव भी अनुभव किया जाता रह सकता है। लेकिन सवाल अब भी वही है कि क्या इस प्रकार जीवन में रिक्तता-बोध मिट पाता है?

फिर विकास क्या है? 

विज्ञान और संस्कृति, खेल, संगीत या कला, इन क्षेत्रों में विकास की सीमा / चरम क्या हो सकता है, जिससे जीवन की रिक्तता दूर हो सकती हो!

क्या अमर हो जाने पर भी रिक्तता से कभी किसी का छुटकारा हो पाना संभव है? और, क्या शायद इसीलिए तो कुछ लोग इस रिक्तता से उबकर आत्महत्या नहीं कर लेते?

क्या आत्महत्या कोई समाधान है, या वह केवल इस सवाल से पलायन करने का ही एक और यत्न है!

या, क्या यह सवाल ही कहीं औचित्यहीन तो नहीं है?

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कुछ समय से

नये नोट्स, नये पोस्ट्स

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इस ब्लॉग में, स्वाध्याय ब्लॉग में, और vinaykvaidya blog में कुछ समय से ऐसा कुछ लिख रहा हूँ जिस पर शायद मतभेद हो सकते हैं। 

जैसे क्रिप्टोकरेंसी पर, या अब्राहम एकॉर्ड्स पर। 

आश्चर्य की बात है कि यद्यपि इन दोनों पोस्ट्स को मैंने जल्दी से जल्दी डिस्कार्ड कर दिया था किन्तु इनका इम्पैक्ट इसके बाद भी दिखलाई पड़ा। 

किसी बड़े अर्थशास्त्री के अनुसार अधिकांश भारतीय क्रिप्टो-करेंसियाँ जल्दी ही समाप्त (perish) हो जाएँगी। 

मुझे न तो अर्थशास्त्र का ज्ञान है, और न ही क्रिप्टोकरेंसी के बारे में कुछ जानता हूँ, फिर भी जब मेरे इस अनुमान की पुष्टि किसी बड़े अर्थशास्त्री ने की है, तो मुझे अनुभव हुआ कि मैं इस विषय का सही आकलन कर सकता हूँ। दावा तो क़तई नहीं है।

दूसरा विषय था अब्राहम एकॉर्ड्स का, तो इस बारे में जो पोस्ट मैंने लिखा था, वह 'ईश्वर' के होने के, या न होने के, प्रमाण के बारे में नहीं, बल्कि इस संबंध में था, कि यद्यपि ईश्वर कभी भी ज्ञान का विषय नहीं हो सकता, किन्तु 'ईश्वर' के ऐसे कुछ लक्षण (चिन्ह, marks, और signs) अवश्य हैं, जिन्हें अपने भीतर ही खोजकर मनुष्य ऐसे किसी 'ईश्वर' के अस्तित्वमान होने के बारे में सच्चाई का पता जरूर लगा सकता है ।

किसी पाठक ने मेरे इस पोस्ट की प्रतिक्रिया में UGoD का एक वीडियो मेरे मेल आई-डी पर भेज दिया। मैंने पढ़े या देखे बिना ही इसे डिलीट कर दिया। क्योंकि मुझे इस विषय में किसी से कोई भी चर्चा या वाद-विवाद नहीं करना है।

ईश्वर संबंधी अपने पोस्ट में मैंने केवल यही कहा था कि सनातन धर्म के अथर्वशीर्ष नामक परंपरा के ग्रन्थों में, जिसे 'ईश्वर' कहा जाता है, उस परम दिव्य सत्ता को, उसके पाँच प्रमुख लक्षणों के माध्यम से अवश्य ही अपने ही भीतर नित्य विद्यमान सत्य के रूप में जाना जा सकता है।

यहाँ पुनः यही कहना चाहूँगा कि शिव-अथर्वशीर्ष में, और इसी प्रकार से देवी-अथर्वशीर्ष इन दोनों ही ग्रन्थों में, उस दिव्य सत्ता ने देवताओं द्वारा पूछे जाने पर स्वयं का परिचय देते हुए :

"मैं ब्रह्म हूँ और मैं ही अब्रह्म भी हूँ।"

यही कहा था।

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November 21, 2021

नियति और निजता

आत्मनिर्भरता 

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कहा जाता है :

"पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं... !"

सवाल यह है, कि स्वाधीन होना क्या है और आत्मनिर्भर होना क्या है? शरीर और मन परस्पर स्वतंत्र हैं, या परतंत्र हैं? लगता तो यही है कि दोनों ही एक-दूसरे को प्रभावित भी करते हैं और एक-दूसरे से प्रभावित भी होते हैं। फिर वह, जो शरीर और मन को 'मेरा' कहता है, इनमें से क्या है? वह, जो शरीर और मन को 'मेरा' कहता है, क्या शरीर और मन दोनों को, या उनमें से किसी एक को भी प्रभावित करता है, -या उन दोनों, या उनमें से किसी भी एक से भी प्रभावित होता है?

स्पष्ट है कि जिसे 'मैं' कहा जाता है वह न तो शरीर या मन को प्रभावित करता है, और न ही उनसे प्रभावित होता है। यह 'मैं' अवश्य ही उनसे स्वतंत्र कोई वस्तु है। 

क्या यह 'मैंं' उनमें से किसी एक का, या फिर दोनों का ही एक सम्मिलित परिणाम है? क्या, वे दोनों 'मैं' के ही एक अथवा दो भिन्न भिन्न परिणाम हैं? सत्य अर्थात् वास्तविकता, कुछ भी क्यों न हो, इन तीनों में से वह कौन / क्या है, जो कि आत्मनिर्भर हो सकता या होता है?

क्या इन तीनों की समग्र गतिविधि ही नियति है?

फिर 'निजता' क्या है?

क्या यह 'निजता', -नित्य, सनातन, स्व-अनुभूत, स्वतःप्रमाणित एक वास्तविकता नहीं है?

जैसे 'निजता' जीवन से अभिन्न है, वैसे ही क्या वह मृत्यु से भी अभिन्न है? क्या 'निजता' की मृत्यु हो सकती है? स्पष्ट है कि मृत्यु या मृत्यु की कल्पना भी जीते-जी ही हो सकती है। फिर वह अपनी हो या कि किसी और की। दूसरे की मृत्यु तो सभी के लिए एक प्रत्यक्ष तथ्य है, किन्तु अपनी मृत्यु को क्या कभी इस तरह से प्रत्यक्षतः घटित होते हुए जान या देख पाना व्यावहारिक और तर्कसंगत दृष्टि से भी संभव, ग्राह्य है? 

और अनुभव की दृष्टि से भी ऐसा होने का प्रश्न, क्या एक अबूझ पहेली ही नहीं है?

दूसरे की मृत्यु यद्यपि इन्द्रियगम्य, मनोगम्य, कल्पनागम्य और बुद्धिगम्य हो सकती हैऔर इस दृष्टि से शायद अनुभवगम्य भी, किन्तु अपनी मृत्यु तो कभी अनुभवगम्य भी नहीं हो सकती। 

फिर आत्मनिर्भरता क्या है?

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November 20, 2021

यह सब क्या है?

पुनश्च 

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कविता / 20-11-2021

य एषः सुप्तेषु जागर्ति 

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यह सब क्या है, 

जो मन में उमड़ता-घुमड़ता है! 

यह मन क्या है,

जो चेतना में उमड़ता-घुमड़ता है! 

यह चेतना क्या है, 

जो मुझमें उमड़ती-घुमड़ती है! 

यह मैं क्या है,

जो चेतना में उमड़ता-घुमड़ता है! 

यह सब क्या है!

जो जागृति में उमड़ता-घुमड़ता है, 

यह जागृति क्या है, 

जो स्वप्न में उमड़ती-घुमड़ती है! 

यह स्वप्न क्या है, 

जो सुषुप्ति में उमड़ता-घुमड़ता है!

यह सुषुप्ति क्या है,

जो प्रमाद में उमड़ती-घुमड़ती है!

यह प्रमाद क्या है,

जो काल में उमड़ता-घुमड़ता है!

यह काल क्या है,

जो अज्ञान में उमड़ता-घुमड़ता है!

यह अज्ञान क्या है, 

जो निजता में उमड़ता-घुमड़ता है!

यह निजता क्या है!

यह सब क्या है!

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सुबह जब मैंने पोस्ट लिखा था, भूल से, 'निजता' के स्थान पर 'नियति' शब्द छप गया था। यह कविता किसी को सुनाई, तो इस भूल पर ध्यान गया। और, अर्थ का अनर्थ हो गया! प्रमाद मृत्यु ही तो है!

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November 18, 2021

सुबह से शाम तक

सुबह नींद खुली तो 5:10 बजे थे। 

गूगल में वेदर देखा तो पता चला यहाँ बादल रहेंगे, तापमान अनुकूल रहेगा। हवा में नमी भी कम रहेगी। शाम 5:00 बजे बारिश होगी। 

दोपहर 2:30 से 4:10 तक बहुत अच्छी नींद आई। उठा तो शरीर में ताज़गी और हल्कापन था। शाम के लिए खाना बना कर रख दिया। अब फ्री हूँ। बाहर बादल हैं रास्ते साफ-सुथरे। बच्चे खेल रहे हैं। कुछ वाहन कभी कभी आ जा रहे हैं। कुल मिलाकर बस शान्ति है। वाह!  सूखा मौसम मुझे बहुत अच्छा लगता है।

पानी बहुत बरसे, ठंड या गर्मी बहुत हो तो भी कोई बात नहीं। आज ऐसा ही एक दिन था। शाम को ठीक 4ः00 बजे बारिश होने लगी। बारिश की आवाज से ही तो नींद खुली थी।

मोबाइल पर कुछ समाचार देखता रहा। लैपटॉप कई दिनों से निष्क्रिय है। न कुछ करने की जरूरत है, न मन, न बाध्यता ।

शरीर और शरीर का स्वामी अपने अपने क्षेत्र में जीते हैं। इसे ही शायद गीता के अध्याय १३ में क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ कहा गया है। 

शरीर को जाननेवाले को मन कहा जाता है। लेकिन मन शरीर को कितना और कहाँ (तक) जानता है। शरीर मन को जानता है या नहीं, इस बारे में भी निश्चयपूर्वक क्या कहा जा सकता है! 

मन को कौन जानता है? कितना और कहाँ (तक)! 

क्या मन को जाननेवाला वाकई कोई दूसरा मन होता है?

यदि मन को क्षेत्र समझा / माना जाए, तो मन को इस प्रकार से जानने वाले को इस क्षेत्र का क्षेत्रज्ञ कहा जाए! 

क्या यह सारी उधेड़बुन मन ही नहीं है?

फिर वह क्या / कौन है जो कभी तो मन को 'अपना' कहता है, और कभी अपने को मन!

क्या इसे चेतना कह सकते हैं?

गीता अध्याय १० में संकेत है :

"... ... भूतानामस्मि चेतना  ।।२२।।"

क्या मन ही यह चेतना है! 

क्या यह चेतना ही मन है?

क्या मन चेतना का ही एक अंश है?

मन चेतना को जानता है या चेतना ही मन को जानती है! 

स्पष्ट है कि यहाँ हमें "जानने" का क्या तात्पर्य है इस पर ध्यान देना होगा । अब यहाँ एक और नया तत्व ध्यान भी आ गया है!

यह 'ध्यान' क्या है? 

यह मन की गतिविधि है या चेतना की अभिव्यक्ति और लक्षण है? क्या मन स्वयं ही चेतना की गतिविधि और लक्षण भी नहीं है?

जैसे मन को 'अपना' या 'मेरा' कहा जाता है, क्या उसी तरह से ध्यान को भी 'मेरा' नहीं कहा / माना जाता? 

फिर वह क्या / कौन है जो ध्यान को 'मेरा' कहता है! 

और इससे भी अधिक महत्वपूर्ण प्रश्न यह भी है कि क्या ध्यान को 'किया जाता है'!  या ध्यान 'दिया जाता है'!

फिर यह प्रश्न भी उठता है कि ध्यान कौन करता / देता है! 

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November 15, 2021

सप्त लोक

वैदिक ज्ञान के अनुसार जीवन के सात रूप क्रमशः सात लोकों की तरह कहे जा सकते हैं। ये ही भू, भुवः, स्वः, जनः, महः, तपः और सत्य हैं। 

भू अर्थात् जड पदार्थ जिसमें अभी जीवन प्रकट (manifest) नहीं हुआ है। भुवः का अर्थ है इसी भू तत्व में कोई जैव इकाई का उद्भव होना, अर्थात् वनस्पति और जीवों का लोक । इसी क्रम में ऐसी जीव इकाई में चेतना (sentience) का प्रकट हो जाना, जो अपने 'स्व' की पहचान और उसे एक स्वतंत्र सत्ता की तरह स्वीकार करती है। इसलिए भूः, भुवः तथा स्वः ये तीनों दशाएँ क्रमशः जड जगत,  वनस्पति जगत तथा मनुष्य और दूसरे प्राणियों आदि का जगत है जिनमें अपनी अपनी विशिष्ट पहचान स्व या मैं की तरह होती है।

इसका ही अधिक विकसित रूप है जब कुछ ऐसी जैव इकाइयांँ अस्तित्व ग्रहण करती हैं जिनके पास कुछ विशिष्ट क्षमताएँ होती हैं -- जैसे यक्ष, गन्धर्व, किन्नर, राक्षस, विद्याधर, नाग, देवता, दैत्य, वानर, सिद्ध, पिशाच आदि। रामायण के अन्तर्गत इन्हें ही 'जनस्थान' में आते जाते रहने वाली सजीव सत्ताएँ कहा गया है। राक्षस और वानर क्रमशः निशाचर / रात्रिचर और इच्छाधारी भी कहे गए हैं ।

इस प्रकार जनस्थान वह रहस्यमय संसार है जहाँ विभिन्न प्रकार की आत्माएँ आती जाती हैं और हमें देख सकती हैं, जबकि हम उन्हें नहीं देख सकते। 

इस 'जनस्थान' से ऊपर देवताओं का लोक है। देवताओं के पास अपने विमान होते हैं। देवताओं में से ही एक हैं विश्वकर्मा / त्वष्टा जो देवताओं के यंत्रों / भवनों, महलोक के निर्माता कहे जाते हैं। विश्वकर्मा ने ऐसा ही पुष्पक नामक एक विमान कुबेर के पिता के लिए बनाया था । कुबेर यक्ष था और रावण का भाई भी था, किन्तु दोनों की माताएँ अलग अलग थी। यहाँ आलस्यवश मैं यह जानकारी खोजने में असमर्थ हूँ। तात्पर्य यह कि रावण स्वयं इतना सक्षम नहीं था कि विमान निर्मित कर सके, इसलिए उसने कुबेर से वह विमान बलपूर्वक छीन लिया। 

देवताओं के लोक से ऊपर है महः लोक जिसमें महर्षि और बड़े सिद्ध, तपस्वी आदि रहते हैं भगवान् शिव इसी लोक में रहते हैं इसलिए उन्हें महेश कहा जाता है महत् तत्व बुद्धि को भी कहा जाता है। इसी प्रकार पार्वती, देवी, लक्ष्मी, सरस्वती आदि देवता भी इसी लोक में वास करते हैं। यहाँ तक कि ब्रह्मा और विष्णु, यम और वरुण आदि भी।

इससे भी ऊपर तपःलोक है और वहाँ सभी तपस्वी नित्यप्रति ही तपस्या करते हैं,  जैसे सूर्य, पृथ्वी आदि। 

रामायण की कथा में सभी लोकों और वहाँ के रखनेवालों के पारस्परिक व्यवहार का उल्लेख है।

तपःलोक से ऊपर सत्यलोक है जिसके लिए गीता में कहा गया है : "ऊर्ध्वमूलः अधोशाखः अश्वत्थः प्राहुरव्ययम्..."

शिव अथर्वशीर्ष में  भगवान् रुद्र कहते हैं :

"धर्मेण धर्मं सत्येन सत्यं तर्पयामि स्वतेजसा ।"

समस्त लोक यद्यपि धर्म में ही स्थित हैं, किन्तु धर्म सत्य में ही प्रतिष्ठित है।

इसलिए जब रामायण की कथा को भौतिक विज्ञान की कसौटी पर कसा जाता है तो उसकी प्रामाणिकता पर संशय होने लगता है। किन्तु यदि इस पूरी कथा और इसमें वर्णित घटनाओं के बारे में ठीक से समझा जाए, तो इसमें कुछ भी अप्रामाणिक नहीं है। 

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जुग सहस्र योजन पर भानू

लील्यो ताहि मधुर फल जानू। 

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श्री हनुमान चालीसा में उपरोक्त वर्णन पाया जाता है ।

श्री हनुमान का जन्म रामायण में वर्णित किष्किंधा में हुआ, ऐसा मानकर चलें तो उदित होता हुआ सूर्य वहाँ से इस प्रकार दो सहस्र योजन की दूरी पर रहा होगा। यह दूरी भूमध्यरेखीय और मकररेखीय दूरियों के बीच की औसत दूरी कही जा सकती है।

रामायण के ही एक अन्य प्रसंग में यह वर्णन है कि जब भगवान राम ने राक्षस मारीची पर बाण चलाया तो उस बाण ने उसे वहाँ से एक सहस्र योजन की दूरी तक भारत के दक्षिण पूर्व की दिशा की ओर समुद्र पार तक फेंक दिया। संभवतः वही स्थान आज के समय का मॉरिशस हो सकता है। भारत से मॉरिशस के बीच की हवाई दूरी को यदि एक सहस्र योजन माना जाए, तो भारत से पूर्व में सूर्योदय की दिशा में अर्थात् भूमध्य रेखा तथा मकर रेखा के बीच कहीं वह स्थान भारत (किष्किन्धा) से दो सहस्र योजन हो सकता है।

इस प्रकार संभवतः हनुमान जी ने जब सूर्य की ओर उड़ान भरी होगी तो वे धरती की सतह के समानान्तर तल पर उड़ते हुए गतिशील रहे होंगे।

मकर रेखा पर यह दूरी सूर्य के उदय होने के और अस्त होने के बीच की दूरी है। और भारत से मॉरिशस के बीच की दूरी से यह दूरी दो गुना है। 

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November 13, 2021

A & X, Y, Z.

अ और क्ष, त्र, ज्ञ

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कभी कभी उसे लगता था कि क्या अ को क्ष, त्र, ज्ञ से घृणा है?

या, क्या क्ष, त्र, ज्ञ को अ से? 

क्या घृणा संबंध का ही एक रूप नहीं होता? 

यदि अ, किसी क्ष, त्र और ज्ञ से नितान्त अनभिज्ञ, अपरिचित हो तो क्या उसे उनसे घृणा या वैर हो सकता है? 

अब, यदि क्ष, त्र तथा ज्ञ तीनों ही, एक ही उद्गम से उत्पन्न तीन प्रकार की स्थितियाँ हों, और इसलिए उन तीनों स्थितियों  के बीच कुछ आभासी भिन्नताएँ तो दिखलाई देती हों, किन्तु कोई स्वरूपगत भिन्नता न हो, और इसलिए क्ष, त्र और ज्ञ के बीच टकराहटें हों, परस्पर वैमनस्य हों, तथा वे स्थितियाँ तो परस्पर एक से दूसरी में परिवर्तनीय हो, और अ उनमें से किसी में भी न परिवर्तनीय, स्वतंत्र और पूर्ण, सर्वथा अपरिवर्तनीय स्थिति हो,  तो क्या अ की तुलना क्ष, त्र तथा ज्ञ से किया जाना न्यायोचित होगा?

क्या अ को धर्म तथा क्ष, त्र और ज्ञ को परंपरा नहीं कहा जा सकता? क्या धर्म और परंपरा परस्पर परिवर्तनीय हैं?  

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November 12, 2021

क्या कभी कुछ,

कविता / 12-11-2021

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ख़त्म तो क्या कभी कुछ होना है, 

यही तो ज़िन्दगी का रोना है! 

सुबह उठना है, उम्मीदें लेकर, 

रात नाउम्मीद, रोज सोना है!

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The Penultimate.

अनन्तिम / कविता 12-11-2021

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हर बार यही लगता है अन्त,

फिर, वह भी तो है बीत जाता,

यदि वह अन्त ही होता तो,

बना रहता ही! न बीतता!

समय का ही यदि अन्त न हो,

तो सब कुछ ही तो बीतता है,

लेकिन यह बीतना भी क्या,  

सचमुच ही कभी बीतता है! 

क्या वह स्वयं समय है, या,

समय है स्वयं, बीतना ही,

फिर कैसे अन्त होगा उसका,

जो न कभी भी रीतता है! 

क्या प्रारंभ भी है उसका, 

यदि है तो, किसने देखा?

जिसने भी वह देखा होगा,

क्या उसने खुद को देखा?

देखा होगा तो जाना होगा, 

ऐसा कोई भी समय नहीं,

जो होता हो प्रारंभ कभी, 

होता हो जिसका अन्त कभी! 

इसका कोई नहीं जवाब,

यह सवाल ही है बेहूदा, 

इसका जवाब ढूँढना भी,

है काम उतना ही, बेहूदा!

फिर क्या करे, कोई इसका, 

समय, जो आता जाता है,

जो चलता ही रहता है,

कभी कहाँ वह रुकता है!

समय का यह ख़याल भी क्या, 

स्वयं समय की उपज नहीं!

क्या ख़याल ही नहीं, समय,

स्वयं समय की उपज नहीं!

फिर क्या कोई और भी है, 

जो बँधा हुआ समय से है,

जिससे समय बँधा नहीं,

जो फँसा हुआ समय में है!

क्या वह सचमुच है कोई, 

या वह भी है सिर्फ ख़याल, 

तो फिर वह क्या है जिसमें, 

उठते हैं सारे सवाल! 

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संदर्भ :

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अक्षरात्संजायते कालो कालाद् व्यापकः उच्यते। 

व्यापको हि भगवान् रुद्रो भोगायमानो।

यदा शेते रुद्रो संहरति प्रजाः।।

यो वै रुद्रः स भगवान् ।

यश्च कालः तस्मै रुद्राय वै नमः।। 

(शिव-अथर्वशीर्ष)







November 08, 2021

Man findet immer einen weg.

रास्ता निकलता ही है! 

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वर्ष 1985-86 में मैंने जर्मन भाषा का एक कोर्स जॉइन किया था, जिसमें एक लेसन का टाइटल यही था, जो कि इस पोस्ट का है। 

अभी आधे घंटे पहले एक आश्चर्यजनक समाचार ज्ञात हुआ। श्रीलंका की सेन्ट्रल बैंक ने श्रीलंका के तमाम एक्सपोर्ट-इम्पोर्ट को भारतीय मुद्रा रुपये में करने का आदेश जारी किया है। 

तत्काल ही मेरे मन में विचार आया, मुझे लगा कि इससे तो वहाँ के बड़े बड़े एक्सपोर्ट-इम्पोर्ट का बिज़नेस करनेवालों में हडकम्प मच गया होगा, संवाददाता ने भी इसकी पुष्टि करते हुए कहा :

"This decision / order has shocked all the big businessmen."

निश्चित ही इसके दूरगामी परिणाम होंगे, और संभव है कि आगे चलकर, बाद में उचित समय आने पर श्रीलंका में भारतीय मुद्रा  रुपया ही वहाँ उसी तरह से प्रचलित हो जाए, जैसा कि बहुत से छोटे छोटे देश किसी विदेशी मुद्रा जैसे कि डॉलर या पड़ोसी देश की करेंसी का प्रयोग अपने देश में करते हैं, और जिसके अनेक अनुषंगी लाभ भी अवश्य होते हैं।

किन्तु निश्चित ही, यह भी सच है कि इस सबके पीछे किसका शातिर(!) दिमाग़ काम कर रहा होगा, इस बारे में अनुमान लगा पाना कोई इतना मुश्किल सवाल भी नहीं है!

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स्वामी सदानन्द

 वेदान्त सार 

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एक प्राचीन संस्कृत ग्रन्थ है। 

यहाँ बस उसका स्मरण हुआ अतः कृतज्ञता-ज्ञापन करने की दृष्टि से इसका उल्लेख करना उचित लगा।

उपरोक्त ग्रन्थ अवश्य ही पठनीय है और वेदान्त-निर्देशित सत्य की ओर हमारा(!) ध्यान आकर्षित भी करता है। 

किन्तु वेदान्त-निर्देशित उस सत्य का साक्षात्कार करने का एक और भी विकल्प हो सकता है। 

वेदान्त-शास्त्र में जिसे 'अहं-पदार्थ' कहा जाता है, वह 'अहंकार' चार स्तम्भों पर खड़ा एक ऐसा भवन है जिसके आधार रूपी ये चारों स्तंभ कल्पना की ही उत्पत्ति होते हैं । संक्षेप में :

कर्तृत्व-बुद्धि, भोक्तृत्व-बुद्धि, स्वामित्व-बुद्धि और ज्ञातृत्व-बुद्धि ।

चूँकि जिसे 'मन' कहा जाता है वह अहं-पदार्थ के ही उन चार रूपों की समष्टि भी है जिसे अन्तःकरण भी कहा जाता है, अतः यह या कोई भी दूसरी कल्पना इस समष्टि मन में ही उत्पन्न होती है न कि मेरे, आपके अथवा किसी और के मन में, जैसा कि इन चार प्रकार की बुद्धियों से प्रेरित और भ्रमित हुआ अज्ञानी मान बैठता है। 

कर्तृत्व-बुद्धि के होने का तात्पर्य गीता के अध्याय १८ के निम्नलिखित श्लोकों के माध्यम से भी समझा जा सकता है :

अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम् ।

विविधाश्च पृथक्चेष्टा देवं चैवात्र पञ्चमम् ।।१४।।

तात्पर्य यह कि किसी भी कर्म के संदर्भ में कर्ता की मान्यता और स्वयं को उस मान्यता में बाँध कर स्वतंत्र रूप से एकमात्र कर्ता मानने की बुद्धि ही वह कर्तृत्व-बुद्धि है जो अहंकार का प्रथम (काल्पनिक) स्तंभ है। 

भोक्तृत्व-बुद्धि होने का तात्पर्य / परिणाम है इस कल्पना से मोहित-बुद्धि हो जाना, कि उपरोक्त वर्णित स्वतंत्र-कर्ता अर्थात् 'मैं', सुखी-दुःखी, भयभीत, चिंतित, भ्रमित, व्याकुल, श्रेष्ठ, या निकृष्ट, सफल या असफल आदि है । अर्थात् 'मैं' को कर्म और उसके फल का भोक्ता मान लेना ।

स्वामित्व-बुद्धि होने का तात्पर्य / परिणाम है इस कल्पना से बुद्धि का मोहित हो जाना, कि उपरोक्त वर्णित स्वतंत्र-कर्ता जो कि भोक्ता है, किसी भौतिक या काल्पनिक वस्तु का स्वामी है ।

और इन तीनों बुद्धियों में व्याप्त और प्रच्छन्न चौथी बुद्धि यह है कि यह कर्ता-भोक्ता-स्वामी, 'मैं' कुछ न कुछ जानता है । जबकि सत्य वस्तुतः इन चारों से विलक्षण है।

'अहं-पदार्थ' जो अहं-पद आत्मा की ही क्षणिक अभिव्यक्ति है, ही कर्ता, भोक्ता, स्वामी तथा ज्ञाता के रूप में बुद्धि का आश्रय लेकर अपनी कल्पित सत्यता बनाए रखता है। 

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November 06, 2021

भाव्यता और मर्यादा

Sensibility and Modesty.

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Literature, as such is not only an intellectual pursuit, but has also a deep influence upon the people who go through this purposefully or just for entertainment only.

Since long, Sense (meaning) and sensibility has been a point of discussion between the writers, poets and the others, who are fond of literature.

Could we say that the literature has onus to adhere to a criteria which restricts it within the limits of sensibility and modesty?

We can see that the sensibility varies from person to person, and people to people, and a discussion in good taste may soon turn into bad taste, hence it is very important that whosoever write / create literature should take due care while doing this, so that no harm is done to the common reader.

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साहित्य की रचना करनेवालों, तथा साहित्य का पठन-पाठन करनेवालों के लिए दीर्घकाल से यह विचारणीय विषय होना चाहिए कि साहित्य के संदर्भ में भाव्यता और मर्यादा कितने महत्वपूर्ण हैं।

क्या साहित्यकार का यह नैतिक दायित्व नहीं है कि वह अपनी रचनाशीलता को भावग्राह्यता अर्थात् भाव्यता (sensibility) और मर्यादा (modesty) की परिसीमाओं के भीतर रहने दे!

जैसा कि देखा जा सकता है, कि भावग्राह्यता व्यक्ति-व्यक्ति में भिन्न-भिन्न होती है, और कोई भी गंभीर और उत्कृष्ट स्तर की चर्चा पलक झपकते ही सतही और फूहड़ हो जाया करती है, इसलिए साहित्यकार से यह अपेक्षा करना अनुचित नहीं होगा कि अपने साहित्य की रचना करते समय इस ओर गंभीरता से पाठकों की संवेदनशीलता का पर्याप्त ध्यान रखे और अपेक्षित मर्यादाओं के भीतर अपनी रचना रहे ताकि पाठक को इससे किसी प्रकार की हानि या क्षति न हो। 

बहुत से पाठक तो इससे भी अनभिज्ञ होते हैं कि कौन सा साहित्य मनोरंजन और ज्ञान के नाम पर व्यर्थ की उत्सुकता, उत्तेजना और कौतूहल, अनावश्यक भय, आशा, संदेह, यहाँ तक कि विकृति और कुत्सा (perversion), आदि भी उत्पन्न कर, उन्हें मोहित और भ्रमित भी कर सकता है, और इस प्रकार अनजाने ही वे प्रवंचना का शिकार हो जाया करते हैं।

इसलिए भी साहित्यकार का यह दायित्व है कि वह लोगों और आम पाठक की संवेदनशीलता तथा मानसिक परिपक्वता का ध्यान रखते हुए स्वयं ही अपनी मर्यादा को सुनिश्चित करे, और  स्मरण रखे।

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November 05, 2021

उत्सव धर्म

नित नूतन, चिर सनातन 

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भारतीय, वैदिक परंपरा में (मनुष्य के) जीवन के चार पुरुषार्थों को सबसे अधिक महत्व दिया गया है :

धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष ।

पुरुषार्थ का तात्पर्य है  : Endeavor, Enterprise.

ये दोनों शब्द भी पुनः उत्साह (enthusiasm) और उत्सव (festival) के समानार्थी हैं। 

इन चार पुरुषार्थों में से धर्म को वरीयता दी गई है क्योंकि शेष तीनों उसकी ही लीक पर चलते हैं।

क्या धर्म को परिभाषित किया जा सकता है! 

सामाजिक और व्यावहारिक दृष्टि से कोई परिभाषा की जा सकती है, किन्तु परिभाषा भी पुनः धर्म की हमारी दृष्टि से ही पैदा होगी। परंपरा भी एक दृष्टि से धर्म ही है, किन्तु वह धर्म के वास्तविक,मूल स्वरूप, उद्देश्य और कारण को इंगित करे, यह आवश्यक नहीं।

पुनः, धर्म के एक सरल तात्पर्य को स्पष्ट करने के लिए किसी ऐसे आधार / मापदंड / criteria को तय करना होगा और चिर सनातन काल से इस आधार / मापदंड / criteria को श्रेय (common good) के आधार / मापदंड / criteria के अनुसार तय किया जाता रहा है। इस प्रकार धर्म केवल अपने और अपने समस्त परिवार ही नहीं, बल्कि मनुष्यमात्र, समाज, तथा संपूर्ण चर-अचर जीवन की विविध अभिव्यक्तियों के लिए जो कुछ भी आवश्यक, हितप्रद और श्रेयस्कर है उसे जानने, खोजने और उस पर आचरण करने का साधन है।

इस दृष्टि से धर्म जीवन के प्रति हमारी भावना की ही परिचायक गतिविधि है । समस्त अस्तित्व के और सबके लिए जो सदा शुभ है, वैसी भावना ही धर्म का मूलतः वास्तविक तत्व spirit और प्रेरणा है । क्या सभी के हृदय में मूलतः यही भावना अनायास ही विद्यमान नहीं होती? व्यक्ति, परिवार, समाज या मनुष्यता को उसकी समग्रता में देखा जाए, तो भावना ही व्यापक और  उदात्त अर्थ में धर्म का प्राण है।

भावना के जागृत होने के बाद ही बुद्धि और अपने अस्तित्व पर ध्यान जाता है, बुद्धि के अनुसार भावना ही भाव अथवा प्रवृत्ति का रूप लेकर संपूर्ण और समस्त जीवन को निर्देशित करती है। बुद्धि अपने-पराये का कृत्रिम, बहु-आयामी और बहुस्तरीय भेद / विभाजन करती है । अतएव भावना मूलतः और व्यावहारिक रूप से भी, संपूर्ण अस्तित्व का संचालन करनेवाली वह शक्ति है, जिसे बुद्धि की सहायता से यद्यपि समझा और जाना तो जा सकता है, किन्तु भावना के मूल तत्व और चरित्र का आकलन नहीं किया जा सकता, क्योंकि आकलन करना भी बुद्धि का ही विषय / कार्य है।

अब, यदि बुद्धि के स्वरूप और चरित्र को ही समझ पाना मनुष्य के लिए बहुत दुष्कर और कठिन है, तो भावना का स्वरूप और चरित्र क्या और कैसा है, इसका ठीक ठीक अनुमान लगाना तो इससे भी एक अधिक दुरूह कार्य है।

फिर भी इससे इनकार नहीं किया जा सकता, कि भावना जिसे कि अंग्रेजी में sentiment / spirit कह सकते हैं, अस्तित्व की मूल संचालनकर्त्री शक्ति है। 

इसे ही 'ईशिता' (governance) कहा जाता है, जो संपूर्ण जड-चेतन, चराचर भूत-प्राणियों को किसी न किसी कार्य में प्रेरित, संलग्न तथा प्रवृत्त करती है। 

'ईशिता', 'ईश्वर' की भाववाचक संज्ञा (abstract noun) है, और इस तरह से देखें तो 'ईश्वर' कोई व्यक्ति विशेष हो या न भी हो, तो भी 'ईशिता' अस्तित्व का शासन करनेवाली प्रत्यक्ष शक्ति है।

'ईशिता' के रूप में 'ईश्वर तत्व' का वर्णन ईशावास्योपनिषद् की भूमिका में इस प्रकार से किया गया है :

ईशिता सर्वभूतानां सर्वभूतमयश्च यः ।

ईशावास्येन संबोध्यमीश्वरं तं नमाम्यहम् ।।

वही सर्वत्र (omnipresent), सर्वज्ञ (omniscient) और सर्वशक्तिशाली (omnipotent) और प्रत्यक्ष वास्तविकता (Reality) भी है।

उसे एक अथवा अनेक की तरह सीमित नहीं किया जा सकता। इस प्रकार जब भावना (spirit) की एकता (uniqueness), व्यापकता, असीम सामर्थ्य और विविधता पर ध्यान जाता है, तो हमें अनायास ही उसकी उस महिमा का भान होता है, जिसका हम यद्यपि वर्णन तो नहीं कर सकते, किन्तु उससे प्रभावित व अभिभूत (overwhelmed)  हुए बिना भी नहीं रह सकते। 

किन्तु परंपरा और समुदाय (religion and tradition) उसे यत्किञ्चित जानकर ही किसी न किसी प्रकार से अनुमान की प्रणाली में संकुचित तथा संकीर्ण कर देते हैं और उनके बीच की एक दूसरे के प्रति नासमझी से अनावश्यक संघर्ष और वैर उत्पन्न हो जाता है। 

दीपावलि की यह  ज्योति मनुष्यमात्र के हृदय में उस उत्सव धर्म की भावना का उन्मेष, संचार और विस्तार करे, इस कामना के साथ दीपावलि पर्व की असंख्य हार्दिक शुभकामनाएँ!

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November 03, 2021

गुरु कौन?

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णू गुरुर्देवो महेश्वरः ।

गुरुर्साक्षात्परब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः ।।

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जैसे हर शब्द के प्रचलित होने पर उसके क्रमशः अनेक शब्दार्थ, भावार्थ, वाच्यार्थ, इंगितार्थ और लक्ष्यार्थ हो जाते हैं और शायद ही कोई अर्थों की इस भूल-भुलैया में भ्रमित होने से बच जाता है, वैसे ही "गुरु" शब्द भी एक अनेकार्थी शब्द हो गया है, और अपने मूल अर्थ का द्योतक न होकर किसी और ही तात्पर्य का सूचक हो गया है। 

शिक्षा-गुरु, धर्म-गुरु, राजनीतिक-गुरु, क्रिकेट-गुरु, जैसे अनेक शब्दों में "गुरु" का मूल अर्थ विलुप्तप्राय हो गया है। 

किन्तु इसके मूल अभिप्राय को समझने के लिए हम कह सकते हैं कि इसे :

त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव। 

त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव, त्वमेव सर्वं मम देवदेव ।।

के सन्दर्भ में देखना उचित हो सकता है ।

इस प्रकार "गुरु" माता के रूप में प्रथम गुरु है ही जो न सिर्फ जन्मदात्री है, बल्कि प्रकृति भी है। प्रकृति को जड समझा जाता है, जबकि प्रकृति को 'जड' कहने / मानने / समझने वाला स्वयं को 'चेतन' कहता / मानता / समझता है, यद्यपि उसे यह तक स्पष्ट नहीं होता कि वह स्वयं प्रकृति से किस प्रकार से भिन्न है! किन्तु उसका ध्यान इस ओर अवश्य आकर्षित किया जा सकता है कि प्रकृति जिन तत्वों की समष्टि है, उसका शरीर भी उन्हीं तत्वों से निर्मित होता है, और शरीर के होने से ही वह चेतन है, न कि शरीर के अभाव में! 

इस प्रकार जैसे काष्ठ में अग्नि अप्रकट होती है, और परिस्थिति के अनुकूल होने पर प्रकट और व्यक्त हो जाती है, उसी प्रकार शरीर भी प्रकृति का उपकरण मात्र है, जिसमें चेतना क्रमशः कभी प्रकट तो कभी अप्रकट होकर भी जीवन का रूप लेकर व्यक्ति के शरीर में मन, बुद्धि, भावना, स्मृति, अहंकार, जागृति, स्वप्न और सुषुप्ति की अवस्थाओं का एकमात्र कारण होती है ।

इस दृष्टि से मूलतः तो प्रकृति ही प्रथम गुरु है, किन्तु पर्याय से माता को प्रथम गुरु कहा जाना भी सर्वथा उचित ही है। 

श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय १४ के निम्न श्लोक यहाँ उद्धृत किए जा सकते हैं :

मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन्गर्भं दधाम्यहम् ।

सम्भवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत ।।३।।

सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः ।

तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता ।।४।।

इस प्रकार परमात्मा की प्रेरणा से ही प्रकृति असंख्य प्राणियों को जन्म देती है । परमात्मा ही सबका परमपिता और प्रकृति का भी गुरु है ।

हम सब चेतन सत्ताएँ (sentient beings) इस प्रकार ईश्वर तथा प्रकृति की ही संतानें हैं।

इस प्रकार हम सब परस्पर बन्धुत्व की डोर में बँधे हुए हैं। एक दूसरे के बन्धु हैं, और एक दूसरे के लिए एक दूसरे की सहायता से जीवन के सर्वोत्तम ध्येय को प्राप्त कर सकते हैं। अतः बन्धु भी इस दृष्टि से गुरु है। 

अब बारी है सखा की, अर्थात् मित्र या संगति की । संगति शुभ होने पर हमारा कल्याण होगा और कुसंगति होने की स्थिति में हमारा अशुभ ही होना तय है ।

इस प्रकार मित्र भी गुरु हो सकता है ।

विद्या भी इस दृष्टि से गुरु है कि वह हमें जीवन को जीने और धर्म तथा अधर्म को जानकर तदनुसार आजीविका प्रदान करने में सक्षम बनाती है तथा इसी तरह से उत्तम आचरण करने के तरीके का मार्गदर्शन भी देती है ।

द्रविण अर्थात् द्रव्य का महत्व तो व्यवस्था और जीवन में वैसा ही है, जैसा शरीर में रक्त तथा रक्त-संचार का । और इसलिए अपनी आर्थिक क्षमता के अनुसार ही मनुष्य को कोई भी कार्य करने की प्रेरणा होती है ।

इस प्रकार गुरु तत्व अनेक स्तरों पर हमें निरंतर सहायता और मार्गदर्शन देता रहता है। 

अब इस गुरु तत्व की स्वतंत्रतः क्या भूमिका है, इस बारे में : शिक्षक, मार्गदर्शक, मित्र, शुभचिन्तक आदि के रूप में गुरु को भिन्न भिन्न रूपों में देखा जा सकता है। 

लौकिक स्तर पर शिक्षक किसी विशेष प्रकार की शिक्षा देता है,  आचार्य आचरण करने की शिक्षा देता है । धर्मगुरु नैतिक और लोक-परलोक के लिए हितकर कार्य की शिक्षा देता है, जबकि आध्यात्मिक गुरु सत्य, आत्म-ज्ञान की शिक्षा देता है। 

किन्तु इनसे भी भिन्न एक कोटि है 'पुरोहित' की, जो कि न केवल एक माध्यम और शिक्षक भी होता है, धर्म अध्यात्म के विषय में सहायक भी सकता है ।

शास्त्र भी इस दृष्टि से गुरु हैं ही, किन्तु शास्त्रों का तात्पर्य ग्रहण करने के लिए पात्रता का महत्व भी उतना ही आवश्यक है ।

इसलिए यह हम पर ही निर्भर करता है कि हमारे लिए गुरु शब्द का क्या आशय हम ग्रहण करते हैं ।

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November 02, 2021

अपनी अपनी दुनिया!

कविता : 02-11-2021

चुपके-चुपके

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हर रोज धीरे धीरे,

मौसम बदल रहा है,

हर रोज धीरे धीरे,

सब कुछ बदल रहा है! 

लगने लगी है धूप, 

सुबह की सुहानी!

सैर हुई लम्बी,

यह शाम की कहानी!

बदलें न हम तो क्या है, 

तुम तो बदल रहे हो, 

या यूँ कहो कि जैसे,

समय ही बदल रहा है! 

कितना सुकून है जब,

पंछी भी चुप हैं जैसे,

तार पर क़तार में,

बैठे हैं शान्त ऐसे!

है ये तिलिस्म ऐसा,

राज़ इस संगत का,

टूटे न कहीं जादू, 

शाम की रंगत का! 

शाम की इस वेला में, 

बच्चे भी खेलते हैं,

रंगों से रच रंगोली,

ज्योति बिखेरते हैं!

कितनी लगन है देखो, 

कितनी उमंग भी है,

वो भूल ही गए हैं, 

वहाँ पतंग भी है! 

अब हो गई रंगोली,

तो पतंग नजर आई,

उड़ रही है, अब वो भी,

लेकर उठी अँगड़ाई!

क्या चीज़ है ये बचपन,

उन आँखों में पल रहा है,

क्या चीज़ है वक्त यह,

हर पल बदल रहा है!

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गोल कविता

02-11-2021

हवा / वायु

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वाह, री हवा! 

यूँ, कि यूँ,

हवा, री वाह!

वाह री हवा! 

वायु, री युवा! 

यूँ कि यूँ,

युवा, री वायु!

वायु, री युवा!

युवा, री वायु!

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अ - अनार, आ - आम,

अन्तःसलिला सरस्वती

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बचपन से याद है कि स्कूल में प्रवेश प्राप्त करने से पहले मुझे मेरे पूज्य बड़े भाई ने किस प्रकार अक्षर-विद्या की दीक्षा दी थी। 

मेरे सामने स्लेट थी, और मेरी उंगलियों में पेम (स्लेट-चाक) ।

दादा (मेरे बड़े भाई) ने स्लेट पर लिखा "अ" ।

फिर मेरी उंगली पकड़कर पेम को उस वर्ण-अक्षर पर अनेक बार घुमाया / फेरा, और फिर मुझसे कहा :

अब तुम अलग से यहाँ स्लेट पर "अ" लिखो।

मैंने अनायास "अ" लिखा।

फिर दादा के कहने पर मैंने पुनः पुनः "अ" लिखने का अभ्यास किया। फिर क्रमशः "आ", "इ" और शेष वर्णाक्षर लिखना भी इसी प्रकार से मैंने सीखा।

इस प्रकार न तो मैंने "अ" से "अनार", और न ही, "आ" से "आम" आदि कभी सीखा ।

आज इस पोस्ट को लिखते हुए एकाएक इस पर ध्यान आया कि कैसे मुझे अनायास "अ" से "अदिति" और "अदिति" से "अ" का ज्ञान प्राप्त हुआ। 

इसी प्रकार से मुझे फिर "आ" से "आदित्य", और "आदित्य" से "आ" का ज्ञान प्राप्त हुआ ।

बहुत बाद में मेरा ध्यान इस पर गया कि भाषा-ज्ञान प्राप्त करने के लिए यद्यपि "अ" अनार का, और "आ" आम का सीखना सुविधा-जनक और उपयोगी भी है, किन्तु वास्तविक अक्षर-ज्ञान को उस प्रकार से प्राप्त करना कठिन ही नहीं, भ्रामक विकल्प भी है। 

फिर भी भारतीय भाषाओं को सीखने के लिए वह स्वीकार्य और किसी हद तक आश्यक भी हो सकता है, किन्तु 

"a for apple, b for bat , c for cat, d for dog,..."

तो वास्तविक अक्षर-ज्ञान के लिए बाधक ही नहीं उससे विपरीत और उस दृष्टि से विनाशकारी भी है।

यह मैं अपने अंग्रेजी या अन्य भाषाओं से द्वेष के कारण नहीं, बल्कि अपने अनुभव से कह रहा हूँ। यद्यपि आवश्यकताओं और बाध्यताओं से विवश होकर मैंने अंग्रेजी भी सीखा, और यह भी सच है कि अंग्रेजी के प्रति मेरा आकर्षण और मोह भी इसका प्रमुख कारण थे।

जैसे मैंने अनायास हिन्दी भाषा को सीखा, और मातृभाषा होने के कारण मराठी भाषा को, वैसे ही मैंने अंग्रेजी या तमिऴ आदि भाषाओं को "पाठ" से, अर्थात् पठन्त-विद्या से सीखा, - न कि  रटन्त-विद्या से।

और तमिऴ भाषा को सीखने का प्रयोजन अन्तःसलिला देवी भगवती की ही प्रेरणा था, और इस प्रकार से मैंने ईश्वर अर्थात् परब्रह्म भगवान् शिव (अ-कार), भगवान् श्रीगणेश (विनायक) की प्रेरणा से ही अपने समस्त ज्ञान को न केवल प्राप्त किया, बल्कि अपने पूर्वपुरुष भगवान् भरद्वाज ऋषि के आशीर्वाद से अपने हृदय में उसका यत्किञ्चित आविष्कार भी किया। 

पठन्त-विद्या और रटन्त-विद्या का भेद इसीलिए इस प्रकार से मुझे स्पष्ट हुआ।

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November 01, 2021

वाटिका

कविता : 01-11-2021

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नितव्यर्थ / net-worth.

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इस वन में उपवन नहीं,

और न कोई वाटिका, 

और न है वटवृक्ष ही,

न ताड़, न कोई ताटका!

एक नहीं, वटवृक्ष तो, 

पंचवटी कैसे होगी,

कैसे आएँगे राम यहाँ,

कैसे रामायण होगी!

कैसे होगा सीता-हरण, 

कैसे आएगी शूर्पनखा,

नाक-कान कैसे कटें,

दशमुख कैसे हारेगा! 

इस वन में गुंजित यह नाद, 

क्या कभी बनेगा श्रुतिसंवाद,

या फिर बस रव-कोलाहल,

सिर्फ उन्माद, कोरा अवसाद!

क्या यह होगा व्रजभूमि,

गूँजे जिस पर वंशी का नाद,

या असुरों की युद्धभूमि,

जिस पर इंद्र का वज्रपात!

इस वन में कोई उपवन नहीं,

और न कोई वाटिका!

कैसे होगी रामायण,

या फिर कोई नाटिका!

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