क्या जिन्दगी कोई स्कूल है?
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न तो हम अनपढ़ ही रहे,
और न क़ाबिल ही हुए,
लगता है तेरे स्कूल में ऐ ज़िन्दगी!
हम तो ख़ामो-ख्वाह दाखिल हुए!
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व्हॉट्स ऐप पर कल यह संदेश पढ़ा तो थोड़ी सी हँसी भी आई, थोड़ा सा दुःख भी हुआ। संदेश को पढ़ने से पहले ही मैंने इस पोस्ट को लिखना शुरू कर दिया था, और सोच रहा था कि मेरे पास लिखने के लिए कुछ नहीं है। कुछ लिखने के लिए जब तक कोई खास वजह नहीं महसूस होती, तब तक मेरा लिखने का मन ही नहीं होता। ऐसे ही डूडल (do-dull) करता रहता हूँ और कभी कभी कोई सार्थक चीज़ उभर आती है, या मुझे ऐसा लगता है। तब तक यह आधा अधूरा कुछ लिखा था :
जैसी कि नज़र आया करती है यह ज़िन्दगी,
या कि नज़र आती है, कोई उसकी तसवीर,
बदलना चाहते रहते हैं उस तसवीर को हम,
मगर क्या है ये ज़िंदगी यही कहाँ है मालूम!
क्या वक्त बदलता है या तसवीर बदलती है,
हालात बदलते हैं या कि तक़दीर बदलती है,
वो कौन है, जिसको बदलाव पता चलता है,
वो भी, खुद भी क्या बदलाव में, बदलता है?
दुनिया भी बदल रही है, हम भी बदल रहे हैं,
हर रोज़ नाते रिश्ते, सब कुछ तो बदल रहे हैं,
ख्वाहिशें बदल रही हैं, ख़यालात बदल रहे हैं,
ज़रूरतें बदल रही हैं, अहसास बदल रहे हैं,
पसन्दगी बदल रही है, यक़ीन बदल रहे हैं,
वजहें बदल रही है, इरादे भी बदल रहे हैं,
और, इस बदलाव के पैमाने बदल रहे हैं!
और मानेंं कि अगर वो भी बदल जाता है,
तो बदलने का सवाल ही कहाँ रह जाता है!
तो ज़िन्दगी क्या है, क्यों न जान लें पहले,
क्यों जाने बिना ही, कुछ भी मान लें पहले!
दिल के धड़कने का हमें, ये जो अहसास है,
ये जो महसूस होता है, ये जो आसपास है,
ये जो आम है, मगर फिर भी जो कि खास है,
जिन्दगी यही तो है, जो कि ये अपनी साँस है!
ज़िन्दगी का नाम एक और भी है, -कुदरत!
जो कि जिन्दगी भी है और एक है -ज़रूरत!
है ये हैरत, कि उसकी नहीं है तसवीर कोई,
और वही है ज़िन्दगी की सीरत, और -सूरत!
फिर बनाई ज़िन्दगी ने खुद ही खुद की तसवीर ,
और हरेक चीज़ ही हमशक्ल, नुमायाँ अपनी!
एक जैसी ही जिन्दा भी, और मुख्तलिफ़ भी!
जिसे हर शै ही, हर कोई 'अपनी' कहता है,
और जो सबमें ही मौजूद हुआ करती है!
हरेक चीज़ पैदा होती है और भरती है,
ज़िन्दगी, न पैदा होती है, न ही मरती है!
इस जिन्दगी को क्या वाक़ई हम जानते हैं!
या वैसे ही ये 'अपनी' है इसे हम मानते हैं!
तो जिन्दगी खुद ही है अपने इल्म अपना अलम,
जिन्दगी खुद ही है अपना निजाम और अमल,
जिन्दगी खुद ही तो है अपना इल्म और उसूल,
इसका कहाँ है कोई दूसरा, मदरसा या स्कूल!
जहाँ से कोई नहीं हो सकता है बेदखल कभी,
जहाँ कि हर कोई हमेशा से ही तो है ही दाखिल!
जहाँ न कोई है अनपढ़ और नहीं है नाक़ाबिल!
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