January 03, 2023

और यह लो आ गया!

कविता / 03-01-2023

अन्धं तमः प्रविशन्ति येऽविद्यामुपासते।

ततो भूय इव ते तमो य उ विद्यायाम् रताः।।

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फिर से, यह नया एक और साल!

हर साल की तरह, इस बार भी!

यूँ तो लगता है कि क्या नया हुआ,

बीते हुए उस साल में, जो बीत गया, 

हाँ, बीत गया, यह भी क्या कम है!

फिर भी यह जरूर लगता है कि,

बदल रहा है सब कुछ धीरे धीरे!

आदर्श, मूल्य, आचार विचार, संस्कृति,

इतिहास-बोध और इतिहास-दृष्टि भी, 

पर नहीं बदला है अगर कुछ तो,  

मनुष्य के पाखंड का इतिहास! 

लोभ, लालच, कपट, छल, दंभ!

बदला है कुछ अगर, तो वह है,

मुखौटा राजनीति, दुराग्रह, हठ का,

जिसके नीचे छुपा है वही चेहरा, 

जो कि सदियों से असलियत है!

पर हाँ, सब धीरे धीरे बदल रहा है,

बहुत धीरे धीरे, इतना धीरे धीरे, 

कि उस पर ध्यान ही नहीं जाता!

कुछ अविद्या की उपासना में रत हैं, 

तो बाकी सभी विद्या की उपासना में!

कुछ असम्भूति की उपासना में रत हैं,

बाकी सभी सम्भूति की उपासना में!

तो एक प्रश्न यह भी उठ सकता है -

"कस्मै देवाय हविषा विधेम!?"

इसलिए सब कुछ निरंतर बदल रहा है, 

और फिर भी कहीं कुछ नहीं बदलता! 

हर कोई सब कुछ बदलना चाहता है, 

लेकिन कहीं कुछ भी बदलता नहीं!

वह देवता भी नहीं बदलता है! 

और यह लो, आ गया !

फिर से नया एक और साल!

दीजिए शुभकामनाएँ एक दूसरे को! 

कीजिए मुँह मीठा एक दूसरे का,

मनाइये उत्साह, उल्लास से नया वर्ष!

कीजिए बातें शान्ति और सौहार्द की, 

बनाए रखिए परंपरा युद्ध, और घृणा की! 

विषाद, उत्तेजना, अवसाद, और दंभ की!

स्वागत! नववर्ष!! 

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