January 10, 2023

विकल्प और निश्चय

निर्णय और अनिर्णय के बीच

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पिछले एक पोस्ट में संकल्प और संशय के बारे में विवेचना की गई थी। यह विचित्र किन्तु सत्य भी है, कि जब शब्दों और उनके प्रयोग की भूलभुलैया में अर्थ / तात्पर्य फँसकर रह जाता है, तो जहाँ बुद्धि / intellect - स्तब्ध / stuck, और stunned / कुंठित, और विचार / वृत्ति (thought) अवरुद्ध हो जाती है, वहीं ज्ञान (intelligence) भी विलुप्तप्राय हो जाता है। 

जैसे उस उल्लिखित पोस्ट में श्रीमद्भगवद्गीता के सन्दर्भों से इस समस्या को समझने का यत्न किया गया था, उसी प्रकार यहाँ भी किया जा सकता है। वैसे तो मेरा एक ब्लॉग विशेष-रूप से श्रीमद्भगवद्गीता को ही समर्पित है, किन्तु सभी ब्लॉग्स में इतना अधिक लिख चुका हूँ कि किसी के भी विषय का सन्दर्भ किसी भी दूसरे में देखा जा सकता है। स्वयं मेरे लिए यह वस्तु-स्थिति है, न कि कोई चिन्ता।

श्रीमद्भगवद्गीता में निम्न श्लोकों पर ध्यान देने से संकल्प और निश्चय का भाव और तात्पर्य स्पष्ट हो जाता है :

निश्चितम् -

2/7,

कार्पण्यदोषोऽपहतस्वभावः

पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः।।

यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे

शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्।।७।।

(अध्याय २)

18/6,

एतान्यपि तु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा फलानि च।।

कर्तव्यानीति मे पार्थ निश्चितमतमुत्तमम्।।६।।

(अध्याय १८)

निश्चित्य -

3/2,

व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे।।

तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्।।२।।

(अध्याय ३)


निष्ठा -

3/3,

लोक अस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।। 

ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्।।३।।

(अध्याय ३)

17/1,

ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः।।

तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तमः।।१।।

18/50,

सिद्धिं प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोध मे।।

समासेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा।।५०।।

(अध्याय १८) 

निश्चयेन -

6/23,

तं विद्याद्दुःखसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम्।।

स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा।।

(अध्याय ६)

विनिश्चितैः -

13/4,

ऋषिभिर्बहुधागीतं छन्दोभिर्विविधैः पृथक्।।

ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितैः।।४।।

(अध्याय १३)

निश्चित्य -

16/11,

चिन्तामपरिमेयां च प्रलयान्तामुपाश्रिताः।।

कामोपभोगपरमा एतावदिति निश्चित्य।।११।।

(अध्याय १६)

निश्चयम् -

18/4,

निश्चयं शृणु मे तत्र त्याग भरतसत्तम।।

त्यागो हि पुरुषव्याघ्र त्रिविधः सम्प्रकीर्तितः।।४।।

(अध्याय १८)

यह विवेचना इस आधार पर और इस दृष्टि से की गई है कि जहाँ एक ओर संकल्प तथा संशय को त्याग दिए जाने और उनका निषेध किए जाते हुए उनकी निन्दा की गई है, वहीं दूसरी ओर, निश्चय के महत्व पर ध्यान आकर्षित भी किया गया है।

संक्षेप में -- निश्चय का अर्थ होगा : चयन न करते हुए तथ्य का अवलोकन किये जाने पर जाग्रत हुआ बोध। 

अंग्रेजी में इसे 

Choicelessness, choiceless awareness

भी कहा जा सकता है।

'संकल्प' / will में कोई लक्ष्य पहले ही से तय कर लिया जाता है, जो तथ्य के अवलोकन में बाधक भी हो सकता है और तब दुविधा ही संकल्प और संशय की तरह कृत्य को तय करती है। ऐसा कृत्य और अधिक संशय का कारण होता है। 

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