चेतना, विचार और बुद्धि
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चेतना (ज्ञातृत्व) की दृष्टि से प्रत्येक ही प्राणवान और चेतन वस्तु / पुरुष में अपने होने का जो भान अनायास विद्यमान होता है, उसकी सत्यता का खंडन किसी भी तर्क, अनुभव या उदाहरण से नहीं किया जा सकता। यह भान स्वयं-भू, स्व-आश्रित होता है न कि कोई वैचारिक, अनुभवपरक या बौद्धिक निष्कर्ष जो कि सदा इस आधारभूत भान पर ही अवलंबित होते हैं और उनका उद्भव इसी भान से होता है। किन्तु यह भान कर्तृत्व, भोक्तृत्व, और स्वामित्व की भावना में रूपान्तरित हो जाता है, जो पुनः अज्ञान अर्थात् संकल्प और संशय का रूप ग्रहण कर लेते हैं। यह एक नितान्त ही स्वाभाविक क्रम है और यही व्यक्तिगत 'स्व' या अहंकार (ego or individual) है। विशुद्ध चेतना पर ही इस प्रकार से चार वर्ण आरोपित हो जाते हैं। ब्राह्मण अर्थात् वह जो - "मैं जानता हूँ" ऐसा अभिमान करता है। क्षत्रिय अर्थात् वह जो - "मैं कर्म करता हूँ" ऐसा अभिमान करता है। वैश्य अर्थात् वह जो - "मैं भोग करता हूँ" ऐसा अभिमान करता है और शूद्र अर्थात् वह जो - "मैं स्वामी हूँ" ऐसा अभिमान करता है। ये सभी वर्ण अपने अस्तित्व के विशुद्ध भान-मात्र पर आरोपित हो जाते हैं और यह कार्य प्रकृति के द्वारा होता है। इसे और अच्छी तरह समझने के लिए श्रीमद्भगवद्गीता के निम्न कुछ श्लोक सहायक हैं --
काङ्क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवता।।
क्षिप्रं हि मानषे लोक सिद्धिर्भवति कर्मज।।१२।।
चतुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।१३।।
न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा।।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते।।१४।।
एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः।।
कुरु कर्मैव तस्मात्त्वं पूर्वतः पूर्वतरं कृतम्।।१५।।
(अध्याय ४)
सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्।।
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः।।४८।।
(अध्याय १८)
किन्तु कर्म मोक्ष का गौण उपाय / साधन है, जबकि बुद्धि-योग मोक्ष का प्रधान उपाय / साधन है।
इसे ही इस प्रकार से स्पष्ट किया जाता है --
दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय।।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः।।४९।।
(अध्याय२)
क्योंकि,
न कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः।।५।।
(अध्याय ३)
ईशावास्योपनिषद् के प्रथम दोनों मंत्र भी क्रमशः बुद्धियोग और कर्म-योग के महत्व के सूचक हैं --
ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्।।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्य स्विद्धनम्।।१।।
कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छत्ँसमाः।।
एवं त्वयि नान्यथेतोस्ति न कर्म लिप्यते नरे।।२।।
तथा "विवेकचूडामणि" के अनुसार :
चित्तस्य शुद्धये कर्म न तु वस्तूपलब्धये।।
वस्तुसिद्धिर्विचारेण न किञ्चित्कर्मकोटिभिः।।११।।
कर्म की प्रेरणा ही संकल्प के रूप में व्यक्त होती है और उससे ही मनुष्य किसी फल-विशेष की आकाङ्क्षा करता हुआ संकल्प और संशय सहित कर्म-विशेष में संलग्न होता है। अपनी अपनी निष्ठा के अनुसार कोई भी मनुष्य बुध्दि-योग (साँख्यनिष्ठा) या / और निष्काम कर्म-योग का साधन लेते हुए श्रेयस् को प्राप्त कर लेता है।
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