श्रेयस्, कर्मनिष्ठा और ज्ञाननिष्ठा
------------------©------------------
शास्त्रों और तथाकथित धर्मों, दर्शनों और परंपराओं के बीच में फँसे हुए मनुष्य के सामने प्रायः यह प्रश्न :
"तो मैं क्या करूँ?"
प्रायः आता ही रहता है।
और सामान्य मनुष्य का ध्यान इस तथ्य पर कभी जाता ही नहीं कि कर्म किसके द्वारा किए जाते हैं!
जैसा कि श्रीमद्भगवद्गीता में कहा गया है :
अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम्।।
विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम्।।१४।।
शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः।।
न्याय्यं वा विपरीतं वा पञ्चैते तस्य हेतवः।।१५।।
तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं केवलं तु यः।।
पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मतिः।।१६।।
(अध्याय १८)
और यह समझना वास्तव में बहुत कठिन भी है कि "मैं" किसी भी कर्म का कर्ता नहीं हो सकता। किन्तु फिर भी, अत्यन्त अल्प बुद्धि मनुष्य के लिए भी सरल तरीका यही है कि नित्य-अनित्य के भेद पर वह ध्यान दे, और इसे समझने का प्रयत्न करे। इस प्रकार उसे करने के लिए एक कार्य भी मिल जाता है। वेदान्त के शास्त्रों में सर्वप्रथम इसकी ही शिक्षा पर बल दिया जाता है :
आदौ नित्यानित्यवस्तुविवेकः परिगण्यते।
इहामुत्रफलभोगविरागस्तदनन्तरम्।
शमादिषट्कसम्पत्तिर्मुमुक्षत्वमिति स्फुटम्।।१९।।
(श्री शङ्कराचार्य कृत विवेकचूडामणि)
इस अभ्यास से :
"मैं क्या करूँ?"
यह प्रश्न स्वयं ही अनावश्यक और अप्रासंगिक हो जाता है। जैसे जैसे समस्त दृश्य देखे सुने गए विषयों की अनित्यता पर अपना ध्यान जाने लगता है वैसे वैसे मन / चित्त का उन विषयों के प्रति लगाव भी क्रमशः कम होने लगता है। विशेष बात यह है कि यह अभ्यास किसी भी परिस्थिति में किया जा सकता है। अभ्यास के दृढ हो जाने पर अपने विचार, स्मृतियाँ, भावनाएँ, चिन्ताएँ आदि भी क्रमशः अनित्य प्रतीत होने लगते हैं, जो कि सर्वाधिक वाँछित है।
अन्ततः मनुष्य का ध्यान इस पर जाता है कि चेतना ही एकमात्र नित्य वस्तु है और चेतना ही उसका स्वरूप अर्थात् निज आत्मा भी है।
किन्तु यह कोई वैचारिक प्रक्रिया या बौद्धिक निष्कर्ष न होकर उसका प्रत्यक्ष बोध होता है।
सत्य की उपलब्धि का यह सरल उपाय है।
***
No comments:
Post a Comment