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संशय और संकल्प दोनों ही अज्ञान के दो भिन्न प्रतीत होनेवाले प्रकार हैं। निश्चय, अज्ञान और ज्ञान के बीच की वह एक स्थिति है, जब अज्ञान का अंधकार अभी दूर नहीं हुआ होता और ज्ञान का आभास भी दूर दूर तक कहीं नहीं होता।
श्रीमद्भगवद्गीता का अर्जुन विषाद योग नामक प्रथम अध्याय ही अर्जुन की विषादपूर्ण मनःस्थिति के उल्लेख के माध्यम से योग की भूमिका प्रस्तुत करता है।
दूसरे अध्याय में साङ्ख्ययोग अर्थात् ज्ञानयोग के वर्णन से ग्रन्थ का अभीष्ट स्पष्ट हो जाता है जहाँ यह कहा गया है कि कर्म और ज्ञान के बीच कारण-कार्य जैसा कोई संबंध है ही नहीं :
दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय।।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः।।४९।।
जिसे मैंने :
"कुरुक्षेत्र उद्घोषणा" Kurukshetra Declaration"
कहा है।
चूँकि दूसरे अध्याय के अन्त तक भी अर्जुन के द्वन्द्व का निवारण नहीं हो पाता है, और वे ज्ञान की तुलना में कर्म को त्याज्य मान बैठते हैं, इसलिए कर्म-योग नामक तीसरा अध्याय प्रारंभ होता है जहाँ दो प्रकार की निष्ठाओं का भेद स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि संसार में दो भिन्न प्रकार की निष्ठाएँ मनुष्य में पाई जाती हैं। एक है ज्ञाननिष्ठा और दूसरी है कर्मनिष्ठा। इन्हीं दोनों के बारे में ईशावास्योपनिषद् के प्रथम और द्वितीय मंत्रों में इस प्रकार से कहा गया है :
ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्।।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्य स्विद्धनम्।।१।।
कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छत्ँसमाः।।
एवं त्वयि नान्यथेतोस्ति न कर्म लिप्यते नरे।।२।।
इस प्रकार कर्म और ज्ञान दोनों की भूमिका एक दूसरे से भिन्न भिन्न है। कर्म की अपरिहार्यता इसी अध्याय ३ में इस प्रकार से कही गई है :
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः।।५।।
पुनः चूँकि कर्म और कर्मफल का निरर्थक दुष्चक्र अर्थहीन ही नहीं है, बल्कि मुक्ति की प्राप्ति में बाधा भी है, अतएव अध्याय ४ "ज्ञान-कर्म-संन्यास-योग" में यह स्पष्ट किया गया है कि किस प्रकार ज्ञान-रूपी अग्नि में समस्त कर्म (और कर्मफल भी) दग्ध हो जाते हैं :
यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन।।
ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा।।३७।।
अध्याय ५ में पुनः कर्म-योग और कर्म-संन्यास योग की तुलना करते हुए कहा गया है :
संन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ।।
तयोस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते।।२।।
यद्यपि संन्यास (साङ्ख्य-ज्ञान) और कर्म-योग दोनों ही श्रेयस् की प्राप्ति के लिए उपाय हैं, संन्यास की अपेक्षा कर्म-योग इस अर्थ में विशिष्ट है कि इस माध्यम से किया जानेवाला कर्म ज्ञान में बाधक नहीं होता। वास्तविक संन्यास तो वही है, जिसमें कर्म को नहीं, कर्तृत्व (की भावना) को ही त्याग दिया जा सके। यदि यह हो सकता है, तो फिर कर्म करने / किए जाने, या न करने / न किए जाने का प्रश्न ही नहीं उठता।
कर्तृत्व की भावना सहित किया जानेवाला कोई भी कर्म अवश्य ही संकल्प और संशय से युक्त होगा। किन्तु जब "कर्तव्य क्या है" इसका निश्चय हो जाता है, तो संकल्प और संशय शेष नहीं रहते।
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