अर्जुन विषाद-योग / मैं क्या करूँ!
-------------------©------------------
किंकर्तव्यविमूढो यो जानाति न कर्तव्यम् ।।
ईश्वरो हि प्रेरयिता तं प्रेरयति तेन यत्कुरुते।।
(-इसे संशोधित किया जा सकता है।)
यह प्रश्न जो कि पुराने से भी पुराना है, उतना ही नित्य-प्रति और प्रायः नये से नया भी है, जो हर मनुष्य के मन में अवश्य ही उठा करता है।
"मैं क्या करूँ!"
सर्वत्र, सर्वव्याप्त और सार्वकालिक प्रश्न है, और अपनी बुद्धि से, परिस्थिति या किसी और के आदेश से मनुष्य कुछ तय कर लेता है जिससे वह किसी न किसी कार्य में प्रवृत्त हो जाता है। यद्यपि तात्कालिक रूप से यह प्रश्न हल हो गया, ऐसा भी प्रतीत होता है, किन्तु परिस्थिति के बदलते ही यह पुनः पुनः उभरकर सामने आता रहता है। विषाद ही इसका स्थायी भाव है और असंतोष इसका स्थायी चरित्र।
इसलिए अर्जुन विषाद योग केवल अर्जुन के लिए नहीं, प्रत्येक ही मनुष्य के मन की स्थिति है, जिसमें कि हर कोई फँसा रहता है। इसमें जाति, समुदाय, स्त्री -पुरुष आदि का भी प्रश्न नहीं है।
इस प्रश्न का मूल है कर्तृत्व की भावना, जो कभी भोक्तृत्व, कभी स्वामित्व तथा कभी ज्ञातृत्व की भावना में परिवर्तित हो जाया करती है। और इनमें से किसी भी रूप में कोई इंगित प्राप्त होते ही मनुष्य किसी न किसी कार्य में संलग्न हो जाता है। विचार या चिन्ता भी ऐसा ही एक कार्य है। भोग, कुछ प्राप्त होने का लोभ और कुछ खो जाने का भय भी मनुष्य को किसी कार्य को करने के लिए बाध्य कर देता है। किन्तु यह प्रश्न कभी पूरी तरह से हल नहीं हो पाता और पुनः पुनः सिर उठाता रहता है। किन्तु मनुष्य के मन में जैसे ही :
"नित्य क्या है और अनित्य क्या है?"
यह प्रश्न उठता है, तो उसके चिन्तन और सोच-विचार उसे एक नितान्त भिन्न दिशा में ले जाते हैं, और उसके लिए :
"मैं क्या करूँ?"
यह प्रश्न अप्रासंगिक और व्यर्थ भी हो जाता है।
यही सांख्यनिष्ठा है, जबकि
"मैं क्या करूँ?"
यह प्रश्न मनुष्य की कर्मनिष्ठा का द्योतक है।
श्रीमद्भगवद्गीता के दूसरे अध्याय में सांख्यनिष्ठा के पात्र जिज्ञासु के लिए तथा बाद के सभी अध्यायों में कर्मनिष्ठा के पात्र जिज्ञासु के लिए उसके अनुरूप तदनुसार शिक्षा दी गई है, किन्तु अध्याय १८ में दोनों निष्ठाओं का एक ही फल होने से दोनों को समन्वित कर दिया गया है।
***
No comments:
Post a Comment