January 13, 2023

धर्म का ज्ञान

... और ज्ञान का धर्म ! मार्ग नहीं, -उपाय!
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धर्म क्या है? इस प्रश्न का सरल उत्तर यह हो सकता है कि जिस किसी भी स्वाभाविक प्रवृत्ति से प्रेरित होकर कोई भी कर्म किया जाता है वह स्वाभाविक प्रवृत्ति ही मूलतः हर किसी का धर्म है।
परिस्थितियों के बदलने से वह प्रवृत्ति नहीं बदलती यद्यपि समय समय पर परिस्थितियों के अनुसार किया जानेवाला कोई कर्म या कार्य अवश्य ही बदलते रहते हैं।
इसलिए शरीर का, इन्द्रियों का, प्राणों का, भावनाओं का, एवं स्मृति तथा बुद्धि का कार्य यद्यपि सतत बदलता रहता है, किन्तु उनका धर्म या स्वाभाविक प्रवृत्ति नहीं बदलती और न बदल ही सकती है। इसी प्रकार से विचार अर्थात् मन के द्वारा होनेवाला चिन्तन जो शब्दों और शब्द-समूह का कोई विशिष्ट क्रम होता है, जिस विशिष्ट प्रवृत्ति से प्रेरित होता है, उसे धर्म कहा जा सकता है। यह विशेष प्रवृत्ति लोभ, भय, शोक, हर्ष के रूप में मानसिक स्तर पर मन में सदैव अप्रकट रूप में रहती है और समय समय पर भिन्न भिन्न रूपों में व्यक्त होती रहती है। विचार जिन शब्दों का समूह होता है, वे सभी शब्द किसी न किसी भाषा में प्रयुक्त किए जाते हैं जिसे किसी समूह या समुदाय द्वारा मान्यता दी गई होती है। सभी भाषाओं का विकास भिन्न भिन्न समुदायों में भिन्न भिन्न प्रकार से हुआ और लोभ, भय, शोक और हर्ष आदि जिन विशेष प्रवृत्तियों का उल्लेख ऊपर किया गया उन प्रवृत्तियों ने भाषा को और भाषा ने उन प्रवृत्तियों को प्रभावित किया। सभी समुदायों में अधिक शक्तिशाली और कम शक्तिशाली इस प्रकार के दो वर्ग बन गए। समूह के अस्तित्व को बनाए रखने के लिए उनके बीच व्यवस्था स्थापित हुई। इस प्रकार अनेक और भिन्न भिन्न समुदायों में भिन्न भिन्न सामाजिक व्यवस्थाएँ अपनाई गईं। किन्तु सभी समुदायों में व्यक्तिगत और सामूहिक लोभ, भय, हर्ष और शोक की प्रवृत्तियों ने ही समूह के व्यवहार को प्रेरित किया। भाषा और परंपरा ने ज्ञान का रूप लिया जो कि सूचना (information) का ही एक प्रकार था। मूलतः लोभ, भय, हर्ष और शोक ही वे प्रेरणाएँ थीं जिसे कि शायद धर्म भी कहा जा सकता है। सामाजिक नैतिकता (social ethics) और आचरण (morality) आदि परंपरा से ही तय किए गए। धर्म ने एक रूप वह लिया जिसमें लोभ या भय से प्रेरित होकर एक या अनेक देवताओं की कल्पना की गई और विचार के माध्यम से भिन्न भिन्न संप्रदायों (cults) की स्थापना की गई। इन भिन्न भिन्न संप्रदायों में वर्चस्व स्थापित करने के लिए युद्ध होने लगे। इस प्रकार धर्म ने सामूहिक राजनीतिक शक्ति का रूप ले लिया। यह धर्म सूचना-आधारित (information-based) व्यवस्था (system) था। कर्म ही इन समस्त धर्मों का आधार-बिन्दु था। 
कर्म के माध्यम से इस प्रत्यक्ष लोक में, और जिसका अनुमान किया गया, उस स्वर्ग या मृत्यु के बाद के लोक में कुछ पाया जा सकता है जो अनंत काल तक बना रहेगा, सभी धर्म इसी विचार पर आश्रित थे / हैं। किन्तु कुछ इस विचार से असहमत थे। ऐसे ही कुछ लोगों (ऋषियों) का ध्यान इस प्रश्न पर केन्द्रित हुआ कि अस्तित्व में "वह क्या है जो नित्य है?" वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि ऐसी एकमात्र वस्तु जो असंदिग्ध और अकाट्य रूप से नित्य है, वह है निजता (individuality) / consciousness / चेतना ।
इन्हीं दो परंपराओं को क्रमशः कर्म-निष्ठा और ज्ञान-निष्ठा कहा गया। निजता का अर्थ हुआ अपना आध्यात्मिक अस्तित्व और निजता के रूप में उसकी पहचान। 
दूसरे शब्दों में : जिसकी आस्था / विश्वास कर्म या कर्म-निष्ठा में है वह "मैं क्या करूँ?" के सन्दर्भ से जीवन को देखना-समझना चाहेगा, और जिसकी उत्कंठा "नित्यता और निजता स्वरूपतः क्या है?" वह इस प्रश्न का समाधान कर इस सत्य को जानने का यत्न करेगा।
चूँकि निरपेक्ष सत्य को जानने का कोई मार्ग है ही नहीं, इसलिए निष्काम कर्म-योग (जिसमें किसी ईश्वर को माना या न भी माना जाता हो), भी उस सत्य तक पहुँचने का संभवतः एक उपाय हो सकता है। 

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