January 05, 2023

A Voyage Into The Unknown.

विचार-प्रक्रिया जड या चेतन? 

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इससे पहले के पोस्ट में यह समझने का प्रयास किया गया था कि विचार तथा विचार-प्रक्रिया घटना है न कि ऐसा कोई कृत्य, कर्म, या कार्य, जिसके संपन्न हो सकने के लिए किसी साधन की सहायता लेना आवश्यक होता हो, और इस प्रक्रिया में इस साधन का प्रयोग करनेवाला उस साधन से भिन्न कोई और हो। 

किसी यंत्र कंप्यूटर आदि में भी अपनी पहले से सुनिश्चित कोई विचार-प्रक्रिया होती है जिसके अनुसार ही वह सभी कार्यों को सुचारु रीति से कर पाता है। हमारा मस्तिष्क भी एक अत्यन्त सूक्ष्म संगणक है जो उससे भी अधिक सूक्ष्म-चेतना और प्राणों के माध्यम से सैकड़ों जटिल आपरेशन पलक झपकते कर लेता है। प्रश्न यह है कि जैसे किसी कम्प्यूटर में सी. पी. यू. यह सभी कार्य निष्पन्न करता है क्या हमारा मस्तिष्क भी उसी प्रकार कार्य करता है? किन्तु यह तो स्पष्ट ही है कि जैसे हममें अपने चेतन होने की भावना स्वाभाविक रूप से विद्यमान होती है, कंप्यूटर में क्या ऐसी किसी भावना को प्रोग्रामिंग के जरिए फीड किया जा सकता है? हममें अपने चेतन होने की जो भावना अनायास ही होती है, क्या वह किसी प्रक्रिया का परिणाम है, या मूलतः केवल अस्तित्व का वह भान होती है जो कि बाद में अनुभवों की स्मृतियों को मस्तिष्क द्वारा क्रम (पैटर्न) दिए जाने से हमारी वैयक्तिक पहचान बन जाता है? इस प्रकार "मैं" की यह भावना वस्तुतः कृत्रिम ज्ञान है जिसका निर्माण मस्तिष्क द्वारा इसलिए किया जाता है कि आभासी संसार में अपने को यथासंभव ठीक तरह से समायोजित किया जा सके। यह रोचक है कि मस्तिष्क की यह व्यवस्था हमारे जाग्रत होने पर ही सुसंगत रीति से कार्य करती है, जबकि हमारे अचेत (बेहोश, unconscious) होने या स्वप्न तथा सुषुप्ति आदि की स्थितियों में इसकी कोई भूमिका नहीं होती। उस समय मस्तिष्क अपनी सहज यान्त्रिक प्रक्रिया से परिचालित होता है। केवल जागने पर ही अपने आपको इस शरीर और इससे संबद्ध इसके विभिन्न कार्यों और घटनाओं का नियामक मान लिया जाता है, जो कि वैसे तो एक मान्यता होती है, किन्तु समय के साथ दृढ आग्रह बन जाती है। इस प्रकार से यह मान्यता विचार-प्रक्रिया की ही उत्पत्ति है, न कि कोई स्वतंत्र वस्तु। किन्तु मस्तिष्क को प्राप्त होनेवाली सभी जानकारियों को परस्पर संबद्ध कर एक सूत्र में बाँधती तो है ही। और फिर इससे ही मनुष्य में अनेक और विभिन्न प्रकार के विरोधाभासी विश्वास पैदा होते हैं, जो अपने आपके एक व्यक्ति-विशेष होने के आग्रह को बनाए रखते हैं। तब मनुष्य अपने  पृथक्, स्तंवत्र अस्तित्व को आधारभूत रूप से सत्य मानकर "मैं करूँगा / करता हूँ / मैं नहीं करूँगा", आदि संकल्पों से प्रेरित होता है। "मैं सोचता हूँ, विचार करता हूँ, नहीं सोचता, विचार नहीं करता, मैं चाहता हूँ, मैं नहीं चाहता ..." जैसे अनेक संकल्प इस प्रकार से चेतना पर आधिपत्य कर लेते हैं और चेतना उस सीमित दायरे में उस तक सीमित प्रतीत होती है। जबकि न तो संकल्प करनेवाला ही कहीं कोई स्वतंत्र कर्ता है, न ही यह प्रक्रिया स्वयं कोई संकल्प करती या कर सकती है, क्योंकि यह चेतन नहीं है, जबकि इस प्रक्रिया को जाननेवाला न तो प्रक्रिया होता है, न ही प्रक्रिया को किसी भी प्रकार से प्रभावित कर सकता है। वह चेतन, जो कि न तो प्रक्रिया को प्रभावित करता है, और जिसे कि प्रक्रिया भी नहीं प्रभावित करती या नहीं कर सकती, वह भी "मैं" नहीं !

इस प्रकार "मैं" एक अस्थायी आभास / विचार है, और दूसरे सभी विचारों की अपेक्षा स्थिर होने से स्वयं ही अपने आपको उनके केन्द्र में स्थापित कर लेता है। चेतना स्वयं भी इस "मैं" का आधारभूत सत्य होने से वस्तुतः नित्य स्थिर अधिष्ठान है। 

"मैं", विचार या विचार-प्रक्रिया कभी स्वयं का अतिक्रमण नहीं कर सकते इसलिए "मैं" सतत, अनवरत पुनः पुनः बनता मिटता रहता है और चेतना की नित्यता से अपनी एक आभासी नित्यता स्थापित कर लेता है।

इस पूरी गतिविधि को देख लिए जाने पर यह गतिविधि विलीन हो जाती है, जबकि जीवन निरंतर नये से और भी नये तलों नये आयामों पर आगे बढ़ता रहता है। "मैं" और मैं-भावना से रहित यह जीवन अज्ञात से अज्ञात में एक चिरंतन यात्रा :

An Eternal Voyage Into The Unknown होता है।

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