कविता / 27-01-2023
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पड़ गई हैं दीवारों पर भी, दरारें बहुत सी,
मेरे भी घर में और बाहर सड़कों पर भी।
अभी चार बरस पहले तक सब नया था,
सड़कें, नालियाँ, छत, सभी कुछ नया था।
उत्साह भी नया था, उम्मीदें भी नयी थीं,
पर इन चार बरसों में दरक गई है धरती,
सड़कें पर बहुत सी लंबी दरारें पड़ गई हैं,
दो बरसों तक तो उनमें घास भी उगती रही,
इस बरस और भी अधिक गहरी हो गई हैं!
पास के स्कूल में कल ही मनाया गया था,
गणतंत्र दिवस, आनन्द उत्सव भी साथ में!
पर इन चार बरसों में दरक गई है धरती!
पड़ गई हैं दीवारों पर भी, दरारें बहुत सी!
मोबाइल से मैं तस्वीर लेता हूँ जब उनकी,
तो कोई चेहरा उभरता है उन तस्वीरों में,
पता नहीं किसका है, यह अजनबी चेहरा!
वर्तमान, भविष्य का, मेरा या किसी और का!
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