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भगवान् श्री रमण महर्षि द्वारा रचित सद्दर्शनम् का एक श्लोक :
विद्या कथं भाति न चेदविद्या
विद्यां विना किं प्रविभात्यविद्या।।
द्वयं च कस्येति विचार्य मूलं
स्वरूपनिष्ठा परमार्थ विद्या।।१२।।
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An ignorant one is ignorant of his ignorance too.
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If ignorance were not, how can knowledge be? And, If knowledge were not, how can ignorance be? Searching close the source of both, settled State there is knowledge true.
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अज्ञानी को यह भी नहीं पता होता है कि वह अज्ञानी है। जब किसी को समझ में आता है कि मैं अज्ञानी हूँ, तो इस प्रकार की समझ होने पर ही उसका ध्यान इस ओर जाता है। अज्ञान का बोध भी ज्ञान ही है, जिसमें अपने अज्ञान का पता होता है। इस प्रकार का अज्ञान और ज्ञान जिस निज हृदय / चेतना में होता है, उस अपने स्वरूप की नित्यता और निजता को खोज लेना और वहीं निमग्न हो रहना परमार्थ निष्ठा है।
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श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार :
इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत।।
सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परंतप।।२७।।
(अध्याय ७)
अर्थात् सभी भूतप्राणी जिसका भी जन्म हुआ है, जन्म से ही मोहबुद्धि से युक्त होता है इसलिए उसमें इच्छा और द्वेष दोनों ही जन्म से ही विद्यमान होते हैं।
इस मोहबुद्धि से ही प्रत्येक मनुष्य मूढ की तरह होता है। मूढ का तात्पर्य है पशु की तरह की बुद्धि से युक्त। लौकिक, व्यावहारिक शिक्षा प्राप्त करने पर भी वह संस्कारों से प्रेरित होने के कारण सभ्य भी अवश्य हो जाता है किन्तु फिर भी, संसार और उसके विषयों की अनित्यता को न देख पाने के फलस्वरूप उन विषयों में प्रतीत हो रहे सुखों के पीछे भागते हुए किसी मूढ की तरह ही आचरण करता है। अर्थात् वह पशु की तरह मूढ न होते हुए भी, यद्यपि विचार कर सकने के योग्य भी हो जाता है किन्तु अनित्य विषयों और उनके ऐसे ही अनित्य भोगों और इन विविध भोगों का जिन इन्द्रियों और शरीर के माध्यम से उपभोग किया जाता है, उनके अनित्य और क्षणिक होने के तथ्य से अपनी आँखें मूँद लेता है। इसलिए उसे मूढ न कहकर मूर्ख कहा जाता है। उसका ध्यान जब अपनी इस मूर्खता पर जाता है तो उसे अपने अज्ञानी होने का पता चलता है। तब वह विद्वान तो हो जाता है किन्तु उसकी बुद्धि वैचारिक ऊहापोह में ही फँसी रहती है। किन्तु जब नित्य और अनित्य क्या है इस पर वह ध्यान देता है, तब विवेक की प्राप्ति उसे होती है, जिससे उसके मन में संसार से वैराग्य पैदा हो जाता है। नित्य वस्तु के स्वरूप को जानने की उत्कंठा से ही अंततः वह उस नित्य वस्तु को अपनी चेतन आत्मा की तरह अत्यन्त निज की तरह से जान लेता है। तब वह स्थितधीः जिसकी बुद्धि स्थिर है, ऐसा हो जाता है। इस बुद्धि को ही यहाँ स्वरूपनिष्ठा अर्थात् परमार्थ विद्या कहा है।
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