भारतवर्ष का संविधान :
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"पता नहीं है।" -- इसका भी पता न होना!
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भारत के संविधान के निर्माताओं का द्वन्द्व (या अन्तर्द्वन्द्व) यह था कि धर्म के प्रश्न का समाधान कैसे करें । भारत का हिन्दू-मुस्लिम आधारित विभाजन स्वीकार करना ही मूलतः वह भयंकर भूल थी, जिसके कारण पाकिस्तान नामक देश उन मुस्लिमों के लिए अस्तित्व में आया, जो भारत से अलग एक स्वतंत्र मुस्लिम राष्ट्र के हामी थे।
उनका ध्येय स्पष्ट था : इस्लाम की बुनियाद पर अपने लिए एक राष्ट्र की स्थापना करना। इस्लाम के मूल सिद्धान्तों में कहीं कोई अनिश्चय और अस्पष्टता नहीं है, इसलिए पाकिस्तान नामक देश बनने के बाद यद्यपि वहाँ अपना वर्चस्व स्थापित करने हेतु विभिन्न गुटों में सत्ता-संघर्ष होता रहा, लेकिन भारत-विरोध के उद्देश्य को लेकर सब सहमत थे।
इन गुटों में इस्लाम के आधार पर भी सिद्धान्ततः यद्यपि सहमति थी, किन्तु उनकी भाषाएँ और सांस्कृतिक प्रेरणाएँ एक दूसरे से बहुत अधिक भिन्न थीं, अतः उनकी आपसी टकराहट के कारण उनके बीच का वैमनस्य, विद्वेष, परस्पर संदेह और अविश्वास भी क्रमशः बढ़ता ही चला गया। इस सबकी अंतिम परिणति के रूप में ही तब का पूर्व पाकिस्तान, पाकिस्तान से अलग होकर स्वतंत्र होकर बांग्लादेश के रूप में विश्व-पटल पर उभरा।
इस प्रकार मोहम्मद अली जिन्ना का दो राष्ट्रों का सिद्धान्त वैसे तो वास्तविकता की कठोर भूमि पर गिरकर तो असफल सिद्ध होता दिखाई पड़ा, परन्तु इससे इस्लाम के बुनियादी सिद्धान्तों में द्विराष्ट्र की जो अवधारणा है, उस पर कोई आँच तक नहीं आई, और आज भी संसार के सभी मुसलमान उससे प्रेरित होकर उसे ही परम आदर्श की तरह ग्रहण करते हुए अपना सर्वसम्मत लक्ष्य मानते हैं। और चूँकि इसकी ओर किसी का ध्यान ही नहीं जाता इसलिए इसके बारे में सीधे तौर पर, या अप्रत्यक्षतः क्या किया जाना चाहिए ऐसे किसी प्रश्न पर भी किसी का ध्यान भी नहीं जाता।
भारत में भी इसी तरह, हमारे देश के कर्णधारों तथा संविधान के निर्माताओं को भी उपरोक्त तथ्य का पता होना तो बहुत दूर, इस बारे में कोई कल्पना तक नहीं थी, इसलिए उन्होंने पाकिस्तान में विलय न चाहनेवाली रियासतों को मिलाकर भारत नामक एक देश की कल्पना की, जिसे सभी भारतवासी, भले ही रहन-सहन, जीवन-शैली, 'धर्म', एवं पूजा एवं उपासना की पद्धति, जीवन- शैली एक दूसरे से बहुत ही अलग अलग हो, -इसे अपना देश कहें और समझें ।
इसलिए भारत के संविधान में धर्म के बारे में कोई विशेष उल्लेख नहीं किया गया, और इस विषय में इतना ही मान लिया गया कि किसी भी धर्म और आस्था, विश्वास को माननेवालों के अधिकार समान होंगे। यह मूलतः सनातन भारतीय सर्वसमावेशी उदारता की ही मूल भावना से प्रेरित था, और इसमें किसी के प्रति विद्वेष के लिए कोई स्थान ही नहीं था, जबकि संसार के बहुत से देशों के संविधान में किसी विशेष एक रिलीजन को राज्य का प्रधान रिलीजन घोषित कर दिया गया। हाँ, कम्युनिस्ट देश इसका अपवाद कहे जा सकते हैं, किन्तु उनका रिलीजन अघोषित रूप से नास्तिकता के ही सिद्धान्त से प्रेरित था यह कहना अनुचित नहीं होगा।
भारत के संविधान के निर्माताओं ने इस राष्ट्र को संप्रभु सार्वभौम प्रजातान्त्रिक गणतन्त्र घोषित किया। प्रारम्भ में इस प्रकार इसमें "सामाजिक तथा धर्मनिरपेक्ष" / socialist and secular, ये दोनों शब्द अनुपस्थित थे। किन्तु वर्ष 1976 में इन दोनों शब्दों को बयालीसवाँ संवैधानिक संशोधन पारित कर संविधान की प्रस्तावना में बढ़ा / मढ़ दिया गया।
भारत वैसे भी ज्ञात इतिहास में और उससे भी पहले से विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों / समूहों के राजकुलों का संयुक्त गणतंत्र रहा है। वाल्मीकि रामायण के अनुसार भी अनेक राज्य पृथ्वी के विभिन्न स्थानों पर रहे किन्तु ये सभी राजा किसी सार्वभौम सम्राट के ही अधीन होते थे और कोई भी राजा बलपूर्वक किसी अन्य राजा को युद्ध करने की चुनौती दे सकता था किन्तु प्रत्येक राजा का यह भी कर्तव्य होता था कि वह प्रजा का पालन न्यायपूर्वक करे और न्याय का तात्पर्य होता था धर्मशास्त्र के निर्देशों का पालन करते हुए। छल कपट से किसी राजा का राज्य छीन लेना अधर्म ही माना जाता था। न्याय षड्दर्शनों में से ही एक दर्शन है।
दर्शन का अर्थ है vision / revelation, न कि philisophy.
इसी से प्रेरित होकर ग्रीक चिंतक प्लेटो ने The Republic ग्रन्थ की रचना की जिसमें 'आदर्श राज्य' की परिकल्पना भी प्रस्तावित की गई थी। इसे ही 'यूटोपिया' कहा गया जो कि बाद में काव्य और कला (poetry and Art) और दर्शनशास्त्र / (philosophy) के सन्दर्भ में क्रमशः साहित्य, नाट्य, मूर्तिकला तथा राजनीतिशास्त्र (political science) में विकसित हुआ।
कहना न होगा कि स्वयं Plato ने भी इसे पूर्ववर्ती चिंतकों आदि से प्राप्त किया था। न्याय का भारतीय दर्शन तर्कशास्त्र (logics and reasoning) के माध्यम से वैचारिक आधार पर केवल सामाजिक ही नहीं बल्कि आध्यात्मिक और तात्त्विक प्रश्नों की भी समीक्षा करता है । केवल राज्य और प्रजा के पारम्परिक, पारस्परिक संबंधों और व्यवस्था की ही नहीं।
गण का अर्थ है, : प्रतिनिधि (representative, delegates). इसलिए जहाँ हमें भगवान शिव के गणों का उल्लेख प्राप्त होता है, जिनके नायक गणेश हैं, वहीं विष्णु के पार्षदों का भी, और यमराज के दूत तो प्रसिद्ध हैं ही।
इसी 'गण' शब्द से क्रमशः 'प्रगण' और 'अवगण' शब्दों का उद्भव हुआ, जो बाद में अपभ्रंश होने से क्रमशः पैगन (pagan) और अफ़गान (Afghan) शब्द बने। इसी प्रकार संस्कृत भाषा का मूल शब्द 'पार्षद', फ़ारसी / पहलवी भाषा में 'फ़रिश्तः' बना। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि अंग्रेजी भाषा का Angel शब्द, जो फ़ारसी के 'फ़रिश्तः' का ही पर्याय है, संस्कृत भाषा के शब्द 'अंगिरा' का अपभ्रंश है, और Anglo-Saxon शब्द भी इसी प्रकार से 'अंगिरा-शैक्षं' का ही अपभ्रंश है।
संक्षेप में अभिप्राय यह कि 'गणतंत्र' शब्द में वे सारे तत्व पहले से ही विद्यमान हैं जो कि समाजवादी-धर्मनिरपेक्ष (socialistic-secular) के द्योतक हैं।
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