जब समय अस्तित्व में आया।
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तब परमात्मा ही था। अब भी वही है।
तब समय नहीं था। अब समय प्रतीत होता है।
वैसे, समय प्रतीत भी कहाँ होता है?
समय नहीं, समय का विचार ही आता है, न कि समय नामक कोई ऐसी भौतिक वस्तु जो इन्द्रिय, बुद्धि या मनोग्राह्य होती हो। अर्थात्, समय जो नित्य है, जो आता-जाता नहीं। हाँ, समय का विचार ही तो आता-जाता है। शायद, क्या उसके आने-जाने से ही समय का अनुमान नहीं होता! फिर भी भौतिक जगत् / विश्व की प्रतीति तो अकाट्य सत्य है ही न! इस भौतिक जगत् का आधार सूर्य ही तो है।
सूर्य के होने की प्रतीति का आधार जीवन ही तो है।
सवाल यह है कि क्या सूर्य के होने से ही जीवन है, और इसके बाद जीवन के होने से सूर्य के होने की प्रतीति? या, इस प्रतीति के बाद ही सूर्य का अस्तित्व प्रतीत होता है?
तात्पर्य यह कि जीवन, प्रतीति और सूर्य, एक ही युगपत् घटना है, जिसे परोक्षतः 'समय' कहा जाता है। 'समय' न तो बीतता है, न स्थिर है, क्योंकि समय मूलतः एक अवधारणा है न कि कोई भौतिक इन्द्रिय-मन-बुद्धि-ग्राह्य वस्तु। क्वांटम / इलेक्ट्रॉनिक ढंग से कहें तो समय की मात्रा (mass), आवेश (charge) तथा विमाएँ (length, breadth, height, / dimensions) शून्य होते हैं । शून्य का दूसरा अर्थ है - अभाव होना।
जैसे शून्य का मान न तो धनात्मक होता है, और न ऋणात्मक, उसी प्रकार से समय का न तो अतीत में, और न ही भविष्य में कोई मान होता है। वर्तमान में भी इसे, क्षण के लगभग शून्य के निकटतम मानकर ही (as small as we please) अल्प-तम मान दिया जाता है। निपट इस क्षण में समय का कोई मान तय ही नहीं किया जा सकता।
सूर्य, जीवन और प्रतीति (चेतना / consciousness) एक ही वस्तु के भिन्न भिन्न नाम हैं। सूर्य की प्रतीति का आधार जीवन ही तो है, - जीवन है तो प्रतीति है और प्रतीति है तो सूर्य की भी प्रतीति है। किन्तु लगता यह है कि पहले सूर्य अस्तित्व में आया और बाद में जीवन। अत्यन्त मेधावी के लिए भी यह समझना कठिन होता है कि प्रतीति के अभाव में सूर्य का क्या प्रमाण हो सकता है?
और यह एकमात्र जीवन अविभाज्य अखंड सत्य है। विचार ही समय को अस्तित्व / जन्म प्रदान करता है, और समय, -स्मृति को। ये तीनों भी एकमेव वस्तु की तीन प्रतीतियाँ हैं।
सूर्य की तीन संतानें हैं - यह एक समय-निरपेक्ष तथ्य है।
यम -अर्थात् समय, यमुना अर्थात् स्मृति, व लोक अर्थात् पृथ्वी के द्वारा सूर्य की कक्षा में परिभ्रमण करने से उत्पन्न होनेवाले दो अश्विनीकुमार । इसे ही अश्विनौ (द्विवचन) भी कहा जाता है। यह संयोग या आश्चर्य नहीं है, कि ग्रीक भाषा के इक्विनॉक्स / equinox शब्द को दो प्रकार से अश्विनौ से संबद्ध किया जा सकता है। एक है दो अश्वों का युगल, दूसरा है अश्विन्-ऊक्षिन्। ऊक्षिन् अर्थात् अश्व या बैल (ox), पुनः, अश्व से 'horse' की समानता भी दृष्टव्य है।
यह स्थूल इन्द्रिय-मन-बुद्धि-ग्राह्य लोक / जगत् है।
जीवन और प्रतीति, -सूक्ष्म, अर्थात् मनो-जगत है।
विचार से निश्चय अर्थात् बुद्धि का उद्भव हुआ।
बुद्धि का संस्कारित होकर उसके शुद्ध हो जाने पर ज्ञान का।
ज्ञान का अधिष्ठान चेतना / जीवन है।
ज्ञान जब तक निज (स्व) और पर (दूसरा) के सन्दर्भ में होता है, तब तक व्यक्तित्व और व्यक्ति तथा ऐसे असंख्य व्यक्तित्व और व्यक्ति भी सामूहिक और वैयक्तिक रूप से प्रकट और अप्रकट होते रहते हैं। तब स्व / निज और पर का भेद मिट जाता है तो भी 'निजता' अक्षुण्ण रहती है। यह निजता ही परमात्मा है।
यही एकमात्र शाश्वत, सनातन और नित्य वास्तविकता है।
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