बलि-पशु और पशु-बलि
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तब समय नहीं था।
मतलब यह कि वह समय नहीं था, जो कि बीतता या व्यतीत होता है। धरती पर जीवन था किन्तु तब धरती सूरज के इर्द-गिर्द नहीं घूमती थी, बल्कि आकाश में, या अन्तरिक्ष में किसी अज्ञात दिशा की ओर गतिमान थी। यह भी पता नहीं, कि वह तब किसी सरल रेखा में गतिशील थी, या कि उसका मार्ग वृत्तीय, अंडाकार, वक्र, परवलयाकार या अतिपरवलयाकार था।
जो भी हो किन्तु यह भी सच है कि तब सूरज ही धरती के इर्द-गिर्द घूमा करता था - और शास्त्रों में भी इसका उल्लेख है ही! बहरहाल, तब सूरज और चन्द्रमा दोनों ही धरती की परिक्रमा करते रहे होंगे, और आकाश के तमाम तारे, नक्षत्र आदि भी।
इसलिए भी तब धरती पर सुबह और शाम तो होती थी, रात्रि में चन्द्रमा और तारे, नक्षत्र आदि भी दिखाई देते रहे होंगे, -क्योंकि इसका उल्लेख भी शास्त्रों में है ही!
तब भी धरती पर मनुष्य था, और सभी मनुष्यों का जीवन अलग अलग कबीलों के अपने अपने रीति रिवाजों से संचालित होता था। कुछ कबीले नितान्त शाकाहारी, कुछ मांसाहारी, तो कुछ सामिष-निरामिष दोनों ही प्रकार का आहार करने के अभ्यस्त थे। कुछ थोड़े से ऐसे नरभक्षी (cannibal) भी थे, जो कि अपने कबीले के मनुष्यों के अलावा अन्य किसी भी कबीले के मनुष्यों को अपना आहार बना लेते थे। ऐसे ही नरभक्षियों को राक्षस, असुर, दानव, और दैत्य भी कहा जाता था।
तब समय नहीं था ।
मतलब वह समय नहीं था जो कि बीतता या व्यतीत होता है।...
तब देवता भी नहीं थे, या थे भी तो वे अपने अपने लोक में रहते हुए अपना कार्य करते रहते थे।
कुछ देवता कभी कभी मनुष्यों से उनके प्रेम के कारण अवश्य ही उनके समक्ष प्रकट होने लगे थे, और उन मनुष्यों से धीरे धीरे उनके संबंध प्रगाढ होने लगे थे। फिर भी देवता ही यह तय करते थे कि उन्हें किसी के समक्ष प्रकट होना है या नहीं।
बहुत समय तक ऐसी परंपरा चलते रहने से मनुष्यों को यह स्पष्ट हुआ कि किस देवता या देवी का संबंध रात्रि से है, और किसका संबंध दिन से है। इतना ही नहीं, किसका संबंध अंधेरे से है, और किसका संबंध प्रकाश से है। किसका संबंध बादलों से है, और किसका संबंध वायु से है, किसका संबंध अग्नि से है, किसका धूप से, किसका वर्षा से, किसका शीत या ऊष्णता से है। किसका संबंध रोग से है, किसका स्वास्थ्य, नीरोगता, या आरोग्य से, किसका जन्म या मृत्यु आदि से है। किसका काम-भावना से है, किसका लोभ या भय से है। संबंधों के और प्रगाढ होते-होते धीरे धीरे मनुष्य देवताओं की भाषाओं को भी समझने लगे। तब तक मनुष्यों को यह नहीं पता था कि क्या सभी देवता एक ही या अलग अलग भाषाएँ बोलते हैं ?
फिर जब मनुष्यों को यह पता चला कि देवता अलग अलग और अनेक भाषाएँ बोलते हैं, तो उन देवताओं की भिन्नता के आधार पर ही उन्हें यक्ष, किन्नर, गंधर्व, नाग आदि नाम प्रदान किए गए। देवताओं के पास यह शक्ति थी कि वे अपनी इच्छा के अनुसार किसी के सामने प्रकट या अप्रकट हो सकें, किन्तु जब मनुष्यों ने धीरे धीरे उनकी भाषा सीख ली, तब मनुष्यों को यह विद्या आ गई कि वे आवश्यकता होने पर वाणी का प्रयोग करते हुए उन देवताओं का आवाहन या आह्वान कर सकें। इसी क्रम में मनुष्यों को यह भी अनुभव हुआ कि जैसे मधुमक्खियाँ, भ्रमर और तितलियाँ अलग अलग सुगन्धों से आकर्षित होते हैं, उसी तरह अलग अलग देवताओं को अलग अलग प्रकार की सुगन्ध के प्रयोग के द्वारा आकर्षित किया जा सकता है। आकर्षित ही नहीं, बल्कि प्रसन्न भी किया जा सकता है।
यही मनुष्य ऋषि कहलाए।
उन्हीं ऋषियों ने तब सभी देवताओं का आवाहन करने, उनसे संपर्क करने, तथा उन्हें प्रसन्न करने के विज्ञान का, अर्थात् यज्ञ का आविष्कार किया और इसकी पूरी प्रक्रिया लिपिबद्ध की।
कुछ देवता यद्यपि सात्विक प्रवृत्ति के थे, और प्रायः केवल घृत की आहुति से ही अत्यंत प्रसन्न हो जाते थे, किन्तु राजसी और तामसिक प्रवृत्ति रखनेवाले कुछ अन्य देवता मांसभोजी थे, और इसलिए यज्ञों के अनुष्ठान में पशु-बलि का प्रचलन प्रारम्भ हुआ।
इन सभी देवताओं के साथ इन देवताओं के कुछ ऐसे अनुचर या दास भी यज्ञ की आहुतियाँ प्राप्त करने लगे और चूँकि ये अनुचर भिन्न भिन्न प्रकार के उच्छिष्ट आहार को ग्रहण करने के अभ्यस्त थे, इसलिए यज्ञ के स्वरूप में क्रमशः विकार आने लगा । इसके बाद कुछ मनुष्यों ने ही उन अनुचरों को प्रसन्न करने का विज्ञान भी खोज लिया।
इन अनुचरों में बहुत से ऐसे थे, जो कि देवताओं की ही तरह पहले तो मनुष्य ही थे, किन्तु मनुष्य के रूप में उनकी मृत्यु हो जाने के बाद केवल वायुरूप के होकर रह गए और देवताओं के अनुचर हो गए, ताकि उस जीवन को आनन्दपूर्वक जीते हुए उस स्तर के भोग प्राप्त कर सकें।
धरती पर यज्ञ का धर्म धीरे धीरे जब विकार को प्राप्त होते होते अंततः पूरी तरह से लुप्त हो गया, तो इन दासों / अनुचरों ने मनुष्यों को प्रेत-कुल (ghost-cults) की ओर आकर्षित कर लिया।
चूँकि इस समय तक यज्ञ के विज्ञान का अंत हो चुका था, अतः प्रेत-कुल की परंपरा के अनुयायियों ने पुस्तकों और ग्रन्थों आदि के माध्यम से अपनी अपनी परंपराओं की स्थापना की।
चूँकि हर ग्रन्थ का अपना एक देवता होता है, इसलिए अनेक ग्रन्थों के भिन्न भिन्न देवता ही एकमेव परमेश्वर बन बैठे और तब पशु-बलि की पूर्व-परंपरा के समाप्त हो जाने के बाद परस्पर युद्ध करने लगे। और इन विभिन्न परंपराओं के अनुयायी, जो कि पहले अपने अपने देवता के वाहन थे, धीरे धीरे अन्य देवताओं के लिए बलि-पशु के रूप में प्रयुक्त किए जाने लगे।
इसके बाद जब से सूरज और ग्रह-नक्षत्रों ने धरती की परिक्रमा करना छोड़ दिया और, जब धरती ही सूरज की परिक्रमा करने लगी, तब तक विभिन्न मतों, देवताओं के अनुयायी दूसरे मतों के मतावलंबियों को बलि-पशु की तरह प्रयुक्त करने लगे।
यह परंपरा आज तक वैसी ही सतत, निरंतर जारी है।
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