The Sin, The Virtue,
and The Freedom .
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पाप, पुण्य और पाप-पुण्य दोनों ही से मुक्ति
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Question / प्रश्न 103
क्या घृणा पाप है?
Answer / उत्तर :
एक विदुषी, साध्वी किसी आध्यात्मिक / धार्मिक ग्रन्थ को पढ़ रही थी। ग्रन्थ पढ़ते हुए उसकी दृष्टि इस वाक्य पर पड़ी -
"पाप से घृणा करो, पापी से नहीं।"
उसने इसे काट दिया।
उस ग्रन्थ को माननेवाले उसके किसी परिचित ने उससे पूछा : क्या पवित्र ग्रन्थ में दी गई शिक्षा में कोई त्रुटि है?
उसने उत्तर दिया :
"घृणा ही पाप है, यह प्रश्न गौण है कि घृणा किससे की जाती है!"
उस परिचित ने पूछा :
"क्या घृणा सदैव ही पाप है?"
"हाँ! इस पर किसी को क्या सन्देह हो सकता है?"
"यह तो आसानी से समझा जा सकता है कि घृणा करना पाप है, किन्तु क्या घृणा होना भी पाप है?"
परिचित द्वारा पूछे गए इस प्रश्न से वह साध्वी विचार में पड़ गई।
"घृणा करना तो अवश्य ही पाप है, किन्तु किसी को घृणा करने के लिए बाध्य करना तो उससे भी बड़ा पाप है।"
"वह कैसे?"
"क्या घृणा न करना / घृणा न होना प्रेम है?"
"जिसे मैं नहीं जानता ही नहीं, मैं उससे प्रेम या घृणा कैसे कर सकता हूँ?"
"किसी से प्रेम या घृणा करने या होने के लिए पहले उसे जानना तो होगा ही। जिस तरह अपने-आपको यद्यपि तुम जानते हो फिर भी तुम अपने-आप से न तो प्रेम और न ही घृणा करते हो, और फिर भी कभी कभी तुम्हें अपने-आप से घृणा हो जाती है। यह भी सच है कि हर किसी को अपने-आपसे अनायास ही प्रेम होता है, फिर चाहे उसकी अपने आपके बारे में जो भी कल्पना या भावना हो। और इस ओर किसी का ध्यान शायद ही कभी जाता है, कि जिस अपने-आपको वह "मैं" कहता है, उसे वह ठीक से जानता भी है या नहीं! फिर भी जिस रूप में स्वयं को वह अनुभव करता है, अपने उस प्रकार से उसे अवश्य और अनायास ही प्रेम भी होता है और वह उसे सदा सुखी और प्रसन्न देखना चाहता है, - फिर चाहे वह उसका शरीर या मन हो या उसके अपनों के रूप में उस अपने-आप का विस्तार हो। और इस विस्तार में ही उसके संपर्क में आनेवाली वस्तुएँ और वे विभिन्न लोग भी हो सकते हैं जिन्हें कि वह अपना मानता है। जैसे कि उसका परिवार, समुदाय, धर्म, देश, आदर्श, लक्ष्य, मान्यताएँ, विश्वास, आग्रह आदि सब भी।"
"फिर वह किसी से घृणा क्यों करता है, या किसी से उसे घृणा क्यों होती है?
"जो उसे उसके अपने लिए अहितप्रद प्रतीत होते हैं, उनसे उसे भय अनुभव हो सकता है और तब उसके मन में उनसे घृणा उत्पन्न हो सकती है।"
"तात्पर्य यह, कि घृणा की यह भावना उसके मन में किसी काल्पनिक या वास्तविक भय या प्रतिक्रिया के कारण भी पैदा हो सकती है! अर्थात् घृणा करने से या घृणा होने से वह बच भी नहीं सकता।"
"तो वह क्या करे?"
"अवश्य ही इस स्थिति का अवलोकन शान्त मन से वह कर सकता है जिसमें उसके अपने मन में हो रही समस्त स्थितियों पर भी उसकी दृष्टि है, और वह उन से बिना किसी अपेक्षा किए, बिना उनकी वैचारिक समीक्षा या आलोचना किए, उनकी निन्दा या प्रशंसा किए, उन्हें अनुचित या उचित ठहराए बिना, स्थिति का सामना कर सकता है।
क्या तब वह वस्तुतः कुछ करता है?
जो भी होता है, बस होता है।
इसलिए यह भी नहीं कहा जा सकता है कि वह कुछ करता है, तो फिर 'वह क्या करे!' यह प्रश्न ही कहाँ उठता है?"
"तब वह जानता भर है और यह 'जानना', और यह 'होना' एक दूसरे से अलग नहीं हैं, इसे भी अनायास ही जानता है।"
"क्या तब उसके लिए घृणा होने या न होने, करने या न करने का प्रश्न शेष रहता है?"
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