Question / प्रश्न 94
Is Attention "Activity / Process" ?
क्या ध्यान कृत्य है?
Attention and / or Meditation --
प्रारंभ यहाँ से -
"क्या आप ध्यान करते हैं??
"आप किस प्रकार का ध्यान करते हैं?"
"क्या आप ध्यान-साधना करते हैं?"
"आप किस प्रकार की ध्यान-साधना करते हैं?
"ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।।
सङ्गात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।।"
उपरोक्त वाक्यों में "ध्यान" शब्द का प्रयोग क्रियापद के अर्थ में होता है। जबकि :
"तब मेरा ध्यान इस प्रश्न / समस्या पर गया।"
"ध्यान एकाग्र करो!"
"तुम्हारा ध्यान कहाँ है?"
"इस ओर अधिक / बिल्कुल ध्यान मत दो!"
उपरोक्त वाक्यों में "ध्यान" शब्द का प्रयोग संज्ञापद के अर्थ में होता है।
यह जानना महत्वपूर्ण है कि ध्यान के दोनों प्रकार के प्रयोग को ध्यान में कैसे रखा जाए!
इसके लिए एक सूत्रवत् निष्कर्ष अगली पंक्तियों में इस तरह से प्राप्त किया जा सकता है -
ध्यान हमारा प्रत्यक्ष स्वरूप अर्थात् अव्यक्त और व्यक्त आत्मा ही है। हम कभी ध्यान-रहित नहीं होते यह जानना प्रकृति होने से पुरुष होने और पुरुष होने से उत्तम पुरुष (पुरुषोत्तम / परमात्मा) होने तक की यात्रा का प्रारम्भ है, -आध्यात्मिक विकास का प्रथम चरण है।
ध्यान के वश में होना,
ध्यान का वश में होना।
समष्टि प्रकृति
पुरुषोत्तम के वश में है जबकि पुरुषोत्तम परमात्मा उससे स्वतंत्र है।
परमात्मा के तेजरूपी ध्यान का प्रकृति पर अवतरण होते ही प्रकृति में ध्यान का स्फुरित हो उठता है और व्यष्टि ध्यान प्रकृति से संयुक्त होकर उसके वश में हो जाता है। यह हुआ प्रकृति का ध्यान के वश में होना। जब पुनः यह ध्यान और भी विकसित होता है तो प्रकृति की प्रथम अभिव्यक्ति, -जड शरीर के वश में होता है जो कि सचेतन ध्यान से रहित अचेतन ध्यान के प्रभाव से नियंत्रित और उससे परिचालित पृथ्वी तत्व हुआ।
1 :
ध्यान का पृथ्वी तत्व के वश में होना,
पृथ्वी तत्व का ध्यान के वश में होना।
2 :
ध्यान का शरीर के वश में होना,
शरीर का ध्यान के वश में होना।
3 :
ध्यान का इंद्रियों के वश में होना,
इंद्रियों का ध्यान के वश में होना।
4 :
ध्यान का मन के वश में होना,
मन का ध्यान के वश में होना।
5 :
ध्यान का बुद्धि के वश में होना,
बुद्धि का ध्यान के वश में होना।
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इंद्रियाणि पराण्याहुः इंद्रियेभ्यः परं मनः।।
मनसः परया बुद्धिः यः बुद्धेः परतस्तु सः।।
(श्रीमद्भगवद्गीता के उक्त श्लोक को केवल संदर्भ के लिए यहाँ स्मृति के आधार पर उद्धृत किया जा रहा है, इसमें कोई त्रुटि हो सकती है, अतः कृपया इसकी शुद्धता की पुष्टि कर लें।)
न तत् स्वाभासं दृश्यत्वात्।।१९।।
(योगसूत्र - कैवल्यपाद)
यहाँ तत् पद पर अधिक विस्तार दिया जाना चाहिए किन्तु अभी वह संभव नहीं प्रतीत हो रहा अतः इसे छोड़ दिया जा रहा है।
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ध्यान और चेतना एक ही वस्तु -परमात्मा के तेज के ही दो नाम हैं।
इस प्रकार ध्यान / चेतना का क्रमशः उत्परिवर्तन ही वास्तविक आध्यात्मिक उन्नति है।
इन उपरोक्त पाँच के रूप में जब ध्यान / चेतना का आरोहण होते हुए जब ध्यान / चेतना का बुद्धि से परे के सत्य को स्पर्श कर उसमें भली प्रकार से प्रतिष्ठित हो जाना ही आध्यात्मिक विकास का चरम उत्कर्ष होता है।
ध्यान इस प्रकार से एक प्रक्रिया और उसका चरम भी है।
यही जीवन है।
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उत्परिवर्तन / Mutation मन और बुद्धि दोनों ही स्तरों पर विचारणीय है ।
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