August 23, 2024

Question / प्रश्न 102

Question  /  प्रश्न 102

What Is Desire?

Why / How The Desire Takes Place?

इच्छा क्या है?

इच्छा का उद्भव क्यों और कैसे होता है? 

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अवधान, ध्यान, ज्ञान, प्रमाद, और उन सबकी पारस्परिक अन्तर्क्रियाएँ

Awareness, Attention, Knowledge,  Delusion, 

And

Their Mutual Interactions.

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ध्यान ही चित्त है।

चित्तं चिद्विजानीयात् 

'त-कार'-रहितं यदा।।

'त-कार' विषयाध्यासो

विषयविषयिनौ उभौ।।

इसे उपदेश-सारः के श्लोक :

ज्ञानवर्जिताऽज्ञानहीन चित्।।

ज्ञानमस्ति किं ज्ञातुमन्तरम्।।२७।।

के साथ देखने पर स्पष्ट हो जाता है कि चित् द्वैत-ज्ञान से रहित निष्ठा रूपी अद्वैत वास्तविकता है, जबकि चित्त है - ध्यान, -अहंकार।  

चित् / चैतन्य अन्तर्मुख या बहिर्मुख नहीं हो सकता, जबकि चित्त / चेतना का कार्य  अपरिहार्यतः द्वैत-युक्त होता है। और तब ध्यान विषय और विषयी में विभाजित हो जाता है। अनवधानयुक्त / अवधानरहित चित्त ही प्रमादपूर्ण होने से अपने आपको विषय और विषयी, अर्थात् स्व (अहंकार) और संसार इन परस्पर भिन्न दो सत्ताओं में बँटा अनुभव करता है। यह अनुभव, और अनुभवकर्ता होने की यह प्रतीति ही दृग्-दृश्य अविवेक है। यही प्रतीति विषयी और विषय के बीच प्रतीत होनेवाला आभासी विभाजन / विरोधाभास है। 

श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय के निम्न श्लोक :

ध्यायतो विषयान्पुंसः

सङ्गस्तेषूपजायते।।

सङ्गात्सञ्जायते कामः

कामात्क्रोधोऽभिजायते।।६२।।

(अध्याय २)

से स्पष्ट है कि काम, कामना या इच्छा का उद्भव चित्त में तब होता है जब प्रमाद-वश, मोहित-बुद्धि अर्थात् अवधानरहित चित्त, विषय और विषयी को परस्पर भिन्न भिन्न  मान लेता है और फिर आत्मा से किसी अन्य वस्तु की तरह उसे ग्रहण करते ही उस विषय की इच्छा का उद्भव चित्त में हो जाता है।

विषय-विषयी रूपी द्वैत अस्तित्व में आते ही वह "ज्ञान"/ "अविद्या" भी अस्तित्व में पाई जाती है जिसमें विषयी अपने आपको बद्ध अनुभव करता है।

इस बारे में सद्दर्शनम् के निम्नलिखित तीन पद द्रष्टव्य हैं -

भवन्तु सद्दर्शनसाधनानि

परस्य नामाकृतिभिः सपर्या।।

सद्वस्तुनि प्राप्त तदात्मभावा

निष्ठैव सद्दर्शनमित्यवेहि।।१०।।

द्वन्द्वानि सर्वाण्यखिलस्त्रिपुट्यः

किञ्चित्समाश्रित्य विभान्ति वस्तु।।

तन्मार्गणे स्याद्गलितं समस्तम्

न पश्यतां सच्चलनं कदापि।।११।।

विद्या कथं भाति न चेदविद्या

विद्यां विना किं प्रविभात्यविद्या।।

द्वयं च कस्येति विचार्य मूलम्

स्वरूपनिष्ठैव परमार्थविद्या।।१२।।

Knowing the Self and abiding as and in that Self alone is the only True, Real, Ultimate and the Supreme Wisdom.

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