Question / प्रश्न 105
चित्तभूमि और चित्त की विभिन्न भूमिकाओं के मध्य क्या संबंध है?
अनुभव और अनुभवकर्ता के बीच क्या संबंध और भेद है?
Answer / उत्तर :
चित् (चैतन्य) / Awareness,
चित्त (mind, consciousness),
और चेतना ( Consciousness)
इन शब्दों का तात्पर्य जानने के बाद ही पातञ्जल योगसूत्र के अध्याय ४, कैवल्यपाद के निम्न सूत्रों को ठीक से समझा जा सकता है :
--
जन्मौषधिमन्त्रतपः समाधिजा सिद्धयः।।१।।
जात्यन्तरपरिणामः प्रकृत्यापूरात्।।२।।
निमित्तमप्रयोजकं प्रकृतीनां वरणभेदस्तु ततः क्षेत्रिकवत्।।३।।
निर्माणचित्तान्यस्मितामात्रात्।।४।।
प्रवृत्तिभेदे प्रयोजकं चित्तमेकमनेकेषाम्।।५।।
तत्र ध्यानजमनाशयम्।।६।।
कर्माशुक्लाकृष्णं योगिनस्त्रिविधमितरेषाम्।।७।।
(भाष्य -
चतुष्पदी खल्वियं कर्मजातिः।
कृष्णा शुक्लकृष्णा शुक्लाऽशुक्लाकृष्णा चेति।
तत्र कृष्णा दुरात्मनाम्।
शुक्लकृष्णा बहिःसाधनसाध्या।
तत्र परपीडानुग्रहद्वारेणैव कर्माशय प्रचयः।
शुक्ला स्वाध्यायध्यानवताम्।
सा हि केवल मनस्यायत्तत्वादबहिः साधनाधीना न परान्पीडयित्वा भवति।
अशुक्लाकृष्णा संन्यासिनाम् क्षीणक्लेशानां चरमदेहानामिति।
तत्राशुक्लं योगिन एव फलसंयन्सादकृष्णं चानुपादानात्।
इतरेषां तु भूतानां पूर्वमेव त्रिविधमिति।)
ततस्तद्विपाकानुगुणानामेवाभिव्यक्तिर्वासनानाम्।।८।।
जातिदेशकालव्यवहितानामप्यानन्तर्यं स्मृतिसंस्कारयोरकरूपत्वात्।।९।।
तासामनादित्वं चाऽऽशिषो नित्यत्वात्।।१०।।
हेतुफलाश्रयलम्बनैः सङ्ग्रहीतत्वादेषामभावे तदभावः।।११।।
अतीतानागतं स्वरूपतोऽस्त्यध्वभेदाद्धर्माणाम्।।१२।।
ते व्यक्तसूक्ष्मा गुणात्मानः।।१३।।
परिणामैकत्वाद्वस्तुतत्वम्।।१४।।
वस्तुसाम्ये चित्तभेदात्तयोर्विभक्तः पन्थाः।।१५।।
(पातञ्जल योगसूत्र अध्याय ४ कैवल्यपाद)
उपरोक्त सूत्रों में क्रमांक ५ और ६ को रेखांकित किया जा रहा है ताकि यह स्मरण रहे कि चेतना यद्यपि एक है फिर भी वह अनेक रूपों में चित्त के रूप में अभिव्यक्त होती है। सूत्र १५ तक इसे ही स्पष्ट किया गया है।
चित्त की भूमि तो एक ही है, और जैसे भिन्न भिन्न स्थानों की मिट्टी अलग अलग प्रकार की होती है, उसी तरह से चित्त में उठनेवाली वृत्तियाँ भिन्न भिन्न प्रकार की होती हैं।
विभिन्न वृत्तियाँ ही चित्त की भूमिकाएँ हैं। जिनमें से पाँच प्रमुख हैं -
प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः।।
जैसा कि योग की परिभाषा (योगानुशासनम्) में प्रारम्भ में ही समाधिपाद में कहा जा चुका है :
योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः।।२।।
और अगले ही सूत्र में परिणाम अर्थात् निरोध-परिणाम के बारे में भी :
तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम्।।३।।
तब द्रष्टा स्वरूप में अवस्थित (किन्तु आवश्यक नहीं कि अधिष्ठित) होता है। और इसके बाद ही -
वृत्तिसारूप्यमितरत्र।।४।।
का उल्लेख है, जिससे यह स्पष्ट है कि चित्तवृत्ति पर से निरोध-परिणाम के समाप्त होते ही चित्त पुनः शेष चार प्रकार मूढ, क्षिप्त, एकाग्र या सुषुप्ति में से किसी भी एक से तादात्म्ययुक्त (identified) हो जाती है। वृत्तिमात्र से यह विचलन ही तादात्म्य (identification) है, जिसमें विषय और विषयी के रूप में वृत्ति की पहचान स्थापित हो जाती है। पहचान, स्मृति और तादात्म्य एक ही वस्तु के भिन्न भिन्न नाम हैं। यही अनुभव और अनुभव की स्मृति काल्पनिक और एक स्वतंत्र अनुभवकर्ता के आभासी विभाजन को जन्म देती है। कल्पना वृत्ति है। वैचारिक चिन्तन, वृत्ति है। और जैसा कहा जा चुका है, वृत्ति का उद्भव और लय, प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा और स्मृति इन पाँच रूपों में होता है। इसलिए अनुभव और अनुभवकर्ता दोनों स्वरूपतः वृत्ति ही है। विचार और विचारकर्ता भी वृत्ति ही है। चूँकि वृत्ति को निरुद्ध करने पर भी "मैं" रूपी विचार पृष्ठभूमि में बना ही रहता है, अतः वह द्रष्टा / स्वरूपतः आत्मा नहीं होता। इसीलिए महर्षि पतञ्जलि बाद में सविचार / सवितर्क, सविकल्प और निर्विकल्प, निर्विचार, सबीज तथा निर्बीज समाधि का उल्लेख भी करते हैं।
जब तक कोई -
"Control" / निरोध किसका और कैसे?,
और आत्मज्ञान / आत्म-साक्षात्कार को "beyond experience" कहता है तब तक उसे " आरुरुक्षु" कहते हैं। और जब उसे यह स्पष्ट हो जाता है कि अनुभव और अनुभवकर्ता एक ही वस्तु (वृत्तिमात्र) हैं, तो उसे "योगारूढ" कहते हैं।
साँख्य दर्शन यहाँ से प्रारम्भ होता है।
योगाभ्यास करते समय चित्तवृत्ति पर जो तीन प्रकार के प्रभाव होते हैं उन्हें क्रमशः एकाग्रता- परिणाम, निरोध-परिणाम और समाधि-परिणाम कहा जाता है। जब तीनों प्रभाव संयुक्त होते हैं तो उसे संयम कहा जाता है।
त्रयमेकत्रः संयमः
सूत्र में संयम को परिभाषित किया गया है।
प्रायः भूल या प्रमादवश संयम और निरोध दोनों को ही "Control" कह दिया जाता है, और उन्हें एक दूसरे के समान समझ लिया जाता है।
किन्तु जब तक "नियंत्रण / संयम / control किसका और कैसे?" यह प्रश्न है, और जिसे भी यह प्रश्न है वह "संशयकर्ता" ही अहं-प्रत्यय / अहं-संकल्प / अहं-वृत्ति है। उसका निवारण होना ही निर्बीज समाधि है। उसके बने रहने तक जो समाधि होती है उसे सबीज समाधि कहते हैं। सबीज समाधि भी सविकल्प और निर्विकल्प प्रकार की हो सकती है। निर्विकल्प भी योगाभ्यास का परिणाम हो सकती है। तब उसे केवल निर्विकल्प कहा जाता है। और योगारूढ के लिए अब भी संस्कार-रूपी बाधाएँ विद्यमान होती हैं, और उनका शमन किया जाना होता है -
आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते।।
योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते।।
इसलिए आत्मज्ञान /आत्मसाक्षत्कार हो जाने के बाद भी (जो योगाभ्यास की चौथी भूमिका / तुरीय में हो जाता है), उपासना / साधना समाप्त नहीं होती, और अनायास होती है। इसे ही "तप" कहते हैं स्वयमेव होती है इसलिए इस स्थिति में आलस्य का कोई स्थान नहीं होता।
इसीलिए सात लोकों -
भूः - material existence,
भुवः - consciousness / mind, Life,
स्वः - sense of individuality,
जनः - Life-forms,
महः - greatness and spiritual, occult powers,
तपः
और,
सत्यं Ultimate Reality
में
तप - austerities
का स्थान सत्य से पूर्व है।
यह तप प्रतिरोध (resistance), प्रयास (effort) नहीं बल्कि आत्मा ही है।
और महर्षि पतञ्जलि ने पाँच सार्वभौम व्रतों / यमों में सत्य से भी प्रथम स्थान अहिंसा रूपी तप को दिया है:
अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहाः यमाः।।
यमलोक में कोई यमराज के अनुशासन का उल्लंघन नहीं कर सकता।
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