सूली पर टँगा हुआ मन और मनुष्य
श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय ४
श्रद्धावानंल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति।।३९।।
अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति।।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः।।४०।।
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"आत्मा" / "आत्मन्"
पद का प्रयोग संस्कृत भाषा में -
आवश्यकता के अनुसार शरीर, मन और स्वयं के अर्थ
में हो सकता है। किसी भी मनुष्य का शरीर तो जन्म से मृत्यु तक सूली पर टँगा ही होता है। जबकि मन अर्थात् स्वयं और स्वयं की पहचान जो क्षण क्षण बदलती रहती है, कभी पीड़ा और संकट की आशंका, तो कभी उनसे क्षणिक मुक्ति की प्रतीति होने के समय काल्पनिक सुख अर्थात सुखाभास से मोहित रहा करती है।
आत्मा, उपरोक्त तीनों ही अर्थों में नित्य उत्पन्न / प्रकट और / या नित्य ही मृत है, जैसा कि,
अध्याय २
के निम्नलिखित श्लोक में वर्णन किया गया है --
अथ चेत् नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्।।
तथापि त्वं महाबाहो न शोचितुमर्हसि।।२६।।
इसी प्रकार क्षण क्षण उत्पन्न होते और विलीन होता रहने वाला विचार, जो कि क्षण क्षण उत्पन्न और विलीन होती रहने वाली व्यक्त बुद्धि का ही शाब्दिक रूप होता है, तथा इस बुद्धि को भी नित्यजात और / या नित्य-मृत माना जा सकता है।
वह पीड़ा, जो मूलतः शारीरिक होती है केवल शरीर की प्रकृति की ही कोई गतिविधि होती है, जबकि कोई मानसिक चिन्ता, भय, आशंका, व्याकुलता -क्षणिक होते हुए भी उस क्षणमात्र में असीम और अन्तहीन जान पड़ते हैं, जो नित्य आत्मा और अनित्य शरीर, विचार, मन एवं बुद्धि आदि को "मैं" कहे जाते ही अस्तित्वमान और सत्य भी प्रतीत होने लगते हैं।
इस तरह देखें, तो शरीर और मन अर्थात् ("मैं") क्षण क्षण ही सूली पर टँगे रहते हैं, जबकि मनुष्य की निज, नित्य, और सत्य आत्मा सदा ही सनातन आधारभूत और जन्म मृत्यु से रहित वास्तविकता है।
अध्याय ४ :
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनः तत्वदर्शिनः।।३४।।
श्रद्धा होने पर ही इस आत्मा के ज्ञान को ज्ञानियों के द्वारा उपदेश दिए जाने पर पात्र के द्वारा ग्रहण किया जाता है।
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