August 08, 2024

अब कह सकता हूँ ...

मेरा जीवन : एक तीर्थयात्रा,

सनातन 

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मैं जीवन भर घास ही नहीं काटता रहा, हालाँकि अकसर लोग मेरे बारे में यही सोचते हैं और मौका मिलते ही दबी ज़बान से कह भी देते हैं।

उन्हें जीवन में वैसी समृद्धि और सफलता मिली है, जैसी समृद्धि और सफलता मुझे भी किसी हद तक मिली थी, लेकिन मैंने उस तरह की समृद्धि और सफलता की कभी न तो चाह की थी, न उसके मिलने पर कभी उनकी तरह बौराया ही था। और यद्यपि मैं आज भी उतना ही विपन्न हूँ, जैसा कि बचपन से अब तक रहता आया, फिर भी मैं अपने जीवन से उन सबकी तलना में अधिक संतुष्ट और प्रसन्न अनुभव करता हूँ, क्योंकि मैंने हिन्दू और हिन्दुत्व  की इस पहेली को सुलझा लिया है, और अब मैं हिन्दुत्व को सभ्यता और संस्कृति भर मानता हूँ, न कि धर्म।

धर्म नित्य, शाश्वत और सनातन है, जबकि विभिन्न  सभ्यताएँ, संस्कृतियाँ और संप्रदाय समय समय पर धर्म अर्थात् सनातन की भूमि पर उत्पन्न होते, फलते फूलते और अंततः मिटकर समाप्त हो जाते हैं।

धर्म इसलिए वैदिक सत्य है - स्मृतियाँ, पुराण तथा इतिहास आदि उसके ही विविध प्रकार और रूप हैं। इसलिए सनातन, धर्म और वैदिक सत्य एक दूसरे के पर्याय हैं।

कोई भी सभ्यता, संस्कृति और संप्रदाय वैदिक सत्य पर आधारित हो सकता है, उसका कुछ रूपांतरित प्रकार या उससे नितान्त ही भिन्न अथवा विपरीत भी हो सकता है। तब उस प्रकार की परंपरा को विधर्म या अधर्म कहा जा सकता है।

सनातन अर्थात् धर्म को हिन्दू / हिन्दुत्व या अन्य कोई नाम देना मौलिक भ्रम है जिससे हम सबकी बुद्धि भ्रष्ट और दूषित हो गई है। सैद्धान्तिक दृष्टि से भी, हिन्दू के रूप में अपनी पहचान स्थापित करना तब तो एक बड़ी भूल है, जब हम भारतीय के रूप में अपनी वास्तविक पहचान को विस्मृत कर देते हैं। यह हमारी भयंकर और आत्मघाती भूल है। इसलिए पहले हम भारतीय हैं और उसके बाद ही हमारी कोई हिन्दू पहचान भी हो सकती है। इसलिए हिन्दुत्व को राजनीतिक हथियार बनानेवालों से मेरा हमेशा से गहरा मतभेद और विवाद होता रहा है। वे  फिर हिन्दुत्व के तथाकथित पक्षधर रहे हों, समर्थक आदि, या हिन्दुत्व के विरोधी हों। विडम्बना यह है वे सभी सनातन / धर्म के ही यद्यपि विभिन्न प्रकार हैं किन्तु वे इस सच्चाई को भूल गए हैं, और हिन्दुत्व के पक्ष में या विरोध में संगठित हो गए हैं। इसका ज्वलन्त प्रमाण यह है कि भारत हिन्दू राष्ट्र हो या न हो, है या नहीं है, इस बारे में कभी सहमत नहीं हो पाते। और इसलिए भारत तथा भारतीयता के विरोधी भारत से विद्वेष करने वाले इसका भरपूर दुरुपयोग करने और हमारी इस भूल का लाभ लेने से हिचकिचाते नहीं।

सनातन / धर्म के दो पक्ष हैं -

लौकिक / सांसारिक जिसे Secular शब्द के इतिहास के आधार पर सेकुलर भी कहा जा सकता है, तथा दूसरा है - आध्यात्मिक / Spiritual, और दोनों के प्रयोजन एक दूसरे से स्वतंत्र हैं। अध्यात्म के दृष्टिकोण से यद्यपि  संसार का कोई मूल्य नहीं है, किन्तु धर्म के दृष्टिकोण से चूँकि संसार अध्यात्म की ही एक अभिव्यक्ति है इसलिए उसका परित्याग किया जाना अनुचित तो है ही, असंभव भी है।

कभी कभी सोचता हूँ कि अपना नाम 

"विनय वैद्य"

से बदलकर 

"विनय सनातनी" रख लूँ! 

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