Question / प्रश्न 97
What are the 5 grounds (kinds) of Mind (चित्त) prior to beginning the practice of Yoga?
योगाभ्यास प्रारम्भ करने से पहले की चित्त की पाँच भूमिकाएँ क्या हैं?
Answer / उत्तर :
चित्त की भिन्न भिन्न प्रकार की वे पाँच भूमिकाएँ जिन्हें जानने के बाद ही योगाभ्यास प्रारम्भ किया जा सकता है, क्रमशः इस प्रकार से हैं :
1.मूढ Indolent
2.क्षिप्त Distracted
3.एकाग्र Centred / Focused
4.समाहित / Absorbed / Identified
5.निरुद्ध / Arrested / Completely Under Control
इनमें से सर्वप्रथम प्रकार मूढ है जिसका लक्षण है प्रमाद और प्रकृति से प्रेरित गतिशीलता। प्रमाद तमोगुण और गतिशीलता रजोगुण है और दोनों ही अपने अस्तित्व के सहज स्वाभाविक भान अर्थात् सतोगुण के जागृत होने पर ही उससे मिलकर चित्त का निर्माण करते हैं। सामान्य द्रव्य-पिण्ड में चित्त के उद्भव के बाद अर्थात् जीवन के व्यक्त होने पर ही चित्त व्यक्त और विद्यमान होता है। यही चित्त मूढवत पूर्णतः प्रकृति के वश में तथा उससे ही संचालित होता है। किसी पशु या पक्षी, जलचर या वृक्ष वनस्पति आदि में यही विभिन्न अनुभवों से गुजरता हुआ स्वयं को स्वतंत्र अनुभवकर्ता के रूप चिन्हित कर स्मृति में अंकित कर लेता है। अनुभवकर्ता होने की कल्पना ही स्मृति को जन्म देती है और स्मृति ही अनुभवकर्ता होने की कल्पना को बल प्रदान करती है। यह एक दुष्चक्र ही है और यही मूल अविद्या है।
चित्त का दूसरा प्रकार है क्षिप्त अर्थात् बिखरा हुआ और द्वन्द्वबुद्धियुक्त जैसा कि गीता, अध्याय ७ के निम्नलिखित श्लोक में वर्णन है :
इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत।।
सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप।।२७।।
चित्त का तीसरा प्रकार है एकाग्र, जिसमें कि चित्त किसी विशेष विषय से संलग्न होकर यद्यपि उस विषय से बँध जाता है, किन्तु किसी भी समय उस विषय से विचलित भी हो सकता है। साधारणतः जिसे "मन लग जाना" भी कहा जाता है किन्तु चूँकि तब किसी भी क्षण किसी भी कारण से या बाध्यतावश मन ध्यान उस विषय से उचक भी सकता है।
चित्त का चौथा प्रकार है समाहित अर्थात् पूर्णतः निमग्न होकर किसी विशेष विषय से एकात्म हो जाना, उसमें निमज्जित हो जाना। चित्त उस विषय में इतना रम जाता है कि उसे वहाँ से बाहर खींचकर लाना बहुत कठिन हो जाता है। जैसे गहरी नींद में सो रहा कोई व्यक्ति जिसे कि उस नींद से जगाया जाना बिलकुल अच्छा नहीं लगता। वैसे जागृत अवस्था में भी कभी कभी कोई कलाकार या चित्रकार, संगीतकार, नर्तक या गायक भी इतना तल्लीन हो सकता है कि उसे संसार विस्मृतप्राय सा हो जाता है।
उपरोक्त चार प्रकारों से बहुत भिन्न प्रकार है निरुद्ध चित्त जिसमें वृत्तिमात्र को अवरुद्ध कर दिया जाता है।
अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः।।१२।।
(समाधिपाद)
गीता अध्याय ६ के निम्नलिखित श्लोक में भी यह कहा गया है :
श्रीभगवानुवाच --
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्।।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।।३५।।
इस प्रकार मन अर्थात् चित्त को पूर्णतः नियंत्रित करना ही उसका निरोध करना है। इसी चित्त को निरुद्ध कहा जाता है। क्या इसका अनुमान या इसकी कल्पना की जा सकती है कि चित्त की इस प्रकार की स्थिति में वह किस दशा में होता होगा? नहीं - क्योंकि प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि के अनुसार प्रमाण भी वृत्ति अर्थात् चित्तलक्षण ही होता है। इसे अनुभव भी नहीं किया जा सकता है। अनुभव / आगम भी पुनः प्रमाण अर्थात् एक वृत्ति ही है।
अनुभव तथा अनुभवकर्ता वृत्ति के ही दो रूप होते हैं।
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