August 07, 2024

वहाँ और यहाँ होना

निर्णायक

क्या पूरी उम्र भर मनुष्य, वहाँ से वहाँ भटकते रहता है? 

क्या पूरी उम्र भर मनुष्य कभी, वहाँ से यहाँ नहीं लौटता?

यहाँ होना वास्तविकता है, जबकि वहाँ होना कल्पना, स्मृति, भविष्य और अतीत है।

वहाँ होना, परिचय और अपरिचय है, विचार, स्मृति और  संबंध है, अतीत और भविष्य हैं, जबकि यहाँ होना, जो है वह, और अभी होना है।

तब आप किसी अतीत या भविष्य की स्मृति या कल्पना से रहित होते हैं, और उन समस्त काल्पनिक सन्दर्भों से भी रहित होते हैं जो आपका ध्यान जो है -उससे हटाते हैं। परन्तु वह, -जो है, वहाँ कहीं नहीं हो सकता, जहाँ विचार उसकी खोज में वहाँ से वहाँ गति करता रहता है। 

वहाँ होना, यहाँ होने से नितान्त भिन्न एक सतत यात्रा है जबकि यहाँ होना विचार की वैचारिक यात्रा से निवृत्ति और उस सबकी परिसमाप्ति है जो कुछ भी वहाँ है। यहाँ से कहीं भी जाते ही कोई वहाँ होता है जो कल्पना और विचार के आयाम को यहाँ पर आरोपित कर देता है।  यह कोई भी वहाँ की ही एक वैचारिक प्रतिमा होता है, जिसका प्रतिबिम्ब वह वहाँ स्वयं ही होता है। इस प्रकार विचारमात्र एक ऐसा विचारजनित विभ्रम होता है जिसमें कोई काल्पनिक विचारकर्ता वहाँ से वहाँ भटकते रहता है और अत्यन्त थक जाने पर भी वहाँ ही एक ऐसा स्थायी आश्रय खोजता रहता है जिसका अस्तित्व पुनः विचार में ही संभव है। विचार से ही उसका उद्भव और पुनः विचार में ही उसकी विलुप्ति भी होती रहती है।

इसके बारे में संभवतः यह कहा जा सकता है कि इसका उद्भव रूप से होता है, रूप में ही विचरता हुआ यह एक आभासी रूप से दूसरे किसी नये आभासी रूप को ग्रहण करते ही पहले प्राप्त हुए रूप को त्याग देता है। इस अर्थ में, यह एक रूपसमूह में ही इसका जन्म और जीवन ही वहाँ से वहाँ के मध्य सतत अस्तित्वमान और गतिशील होता है।

जब कोई मनुष्य वहाँ से वहाँ तक की इस यात्रा के रोचक तथ्य के रहस्य को जान लेता है तो वहाँ से वहाँ तक आने जाने की व्यर्थता को देखकर इस प्रपञ्च की पकड़ उस पर नहीं रह जाती।

समस्त समस्याएँ, अपेक्षाएँ,  वहाँ से वहाँ तक में ही पैदा होती हैं, यहाँ कभी कोई समस्या, निराशा, कुन्ठा न तो जन्म ले सकती है न ही कभी उसका समाधान खोजने की कोई आवश्यकता ही होती है। 

किन्तु सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि वह कौन है जो वहाँ से वहाँ की अन्तहीन, दुःखद, आशा, अपेक्षाओं और आशंकाओं से ग्रस्त होकर सतत यात्रा करता हुआ जीवन के अन्त में अपनी स्वयं की, अपना कहे जानेवाले शरीर की और उस संसार की पहचान से परे चला जाता होगा? पूरी आयु तक वह यहाँ क्यों नहीं लौट पाता और अन्त में अनिश्चय, संदेह और संशय में ही यहाँ को जाने पहचाने बिना ही, यहाँ से कहीं किसी अज्ञात लोक की दिशा में चला जाता होगा!

क्या वस्तुतः ऐसा कोई होता भी है, या यह विचारजनित स्व और स्व का विचार या कल्पना ही होता है जो वहाँ की कृत्रिम पहचान में अपने आपके उसके केन्द्र में होने के अपरीक्षित भ्रम / मान्यता / विश्वास की उपज ही होता है? क्योंकि जब तक शरीर है तब तक भविष्य में उसके नष्ट होना अपरिहार्य है ही। फिर मृत्यु की कल्पना मन के जागृत वर्तमान अवस्था में ही सत्य प्रतीत होती है। निद्रा में अवस्थित मनुष्य क्या आगामी मृत्यु की कल्पना या विचार से भयभीत होता है? स्पष्ट है कि यह जाग्रत दशा में प्रकट हुआ व्यक्त मन ही है जो कि अस्तित्व से अपने आपको भिन्न, पृथक् और स्वतंत्र स्व कहता है।

क्या प्रत्येक और सभी समस्याएँ जाग्रत होते ही इसके ही साथ, इसके ही लिए नहीं उत्पन्न होती हैं?

सो जाने पर यह समस्याग्रस्त "स्व" कहाँ होता है?

स्व या स्व का विचार / कल्पना ही समस्त समस्याओं को सृजित करता है, और स्व ही उनके रूप में अपना मिथ्या अस्तित्व बनाए रखता है। निद्रा में अस्थायी रूप से यह विलीन हो जाता है, जबकि मृत्यु में इसका स्थायी अन्त हो जाता है।  

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