August 07, 2024

96. The Conscious Mode.

Question / प्रश्न 96

What is the relation between the Mind and the Consciousness? What connects the two? 

मन और चेतना का परस्पर क्या संबंध है? कौन सी वस्तु उन्हें परस्पर संबद्ध करती है?

Answer  /  उत्तर :

The only thing that connects the two is :

The Attention,

That is the ground and expression of the underlying principle, the Reality, and the ever-present truth. The Attention could never be denied neither by logic, example or experience.

जो एकमात्र वस्तु उन्हें संबद्ध करती है वह वस्तु है :

अवधान

अवधान ही वह एकमात्र आधारभूत सत्य तत्व है, मन और चेतना में अन्तर्निहित वह उभयनिष्ठ वास्तविकता है, जिसे किसी भी तर्क से, उदाहरण या अनुभव से अमान्य या अस्वीकृत नहीं किया जा सकता।

चेतना और वृत्ति एकमेव और एकमात्र वास्तविकता हैं, जो सतत एक से दूसरे रूप में प्रतिबिम्बित होते रहते हैं। चूँकि वे एक दूसरे से अनन्य हैं, इसलिए स्वरूपतः और व्यावहारिक तल पर, चेतना ही मन, और मन ही चेतना है। एक ही मन या चेतना वृत्ति के रूप में तर्क, उदाहरण तथा अनुभव से नित्यसिद्ध है, जो कि जीवन ही है और उस प्रकार से प्रत्येक जैव-प्रणाली में संचरित होता है। जिस शक्ति से यह संचरण घटित होता है वह ज्ञानशक्ति और कार्यशक्ति इन दो रूपों में कार्य करती है, और स्वरूपतः वैसे ही परस्पर अभिन्न हैं जैसे मन और चेतना। 

मन समस्त भावी और भव्य की समष्टि है, जबकि चेतना शुद्ध ज्ञान / जानना मात्र है।

प्रकृति ही अव्यक्त और व्यक्त इन दोनों रूपों में निरन्तर कार्यरत है -

अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत।।

अव्यक्त निधनान्येव तत्र का परिदेवना।।

(श्रीमद्भगवद्गीता)

अव्यक्त और व्यक्त दोनों ही स्तरों पर प्रकृति असंख्य जैव-प्रणालियों में विद्यमान होकर उन सभी को उनके अपने अपने निज धर्मों में प्रवृत्त करती है।

इस प्रकार प्रकृति के गुणों से प्रेरित होकर वे कर्म करने के लिए बाध्य होते हैं, और जहाँ ज्ञानशक्ति उनमें उनके अज्ञान से आवरित होने के कारण उनकी बुद्धि में अहं और इदं की प्रतीति को उत्पन्न करती है, वहीं प्रकृति अपने गुणों के प्रभाव से क्रियाशक्ति को, उनमें कर्मों के अपने द्वारा किए जाने का अर्थात् अहं कर्मों के कर्ता होने का भ्रम उत्पन्न करती है।

वृत्तयस्त्वहंवृत्तिमाश्रिताः।। 

वृत्तयो मनः विद्ध्यहं मनः।।

(उपदेश-सारः)

उपरोक्त विशद प्रस्तावना के बाद यह समझना सरल है कि जिसे मन कहा जाता है, वृत्ति उसका ही अभिव्यक्त रूप है।

स्पष्ट है कि किसी भी वृत्ति के सक्रिय होते ही उसके होने का ज्ञान भी उससे संयुक्त होता ही है, अर्थात् उस स्थिति में तब उस वृत्ति को जाननेवाला भी वृत्ति की पृष्ठभूमि में अपरिहार्यतः विद्यमान होता ही है। जाननेवाला ही वह है, -जिसे द्रष्टा कहा जाता है। वृत्ति दृश्य, और जाननेवाला दृक् / दृग् या द्रष्टा होता है। द्रष्टा ही दर्शन है क्योंकि दोनों एक ही वस्तु के लिए प्रयुक्त होनेवाले दो भिन्न प्रतीत होने वाले शब्दमात्र हैं।

जाननेवाला के अवधान / Attention  के अनुसार ही कोई जाननेवाला अपने आपके स्वयं के ही स्वतन्त्र कर्ता होने की भावना से ग्रस्त होता है, जबकि दूसरा कोई इस भावना से कि वह केवल द्रष्टा है, न कि विभिन्न कार्यों का कर्ता। यही वह प्रस्थान-बिन्दु है जहाँ आध्यात्मिक तत्व का प्रत्येक जिज्ञासु साँख्य का या योगमार्ग का अवलंबन स्वीकार कर तदनुसार उपासना करने में प्रवृत्त होता है।

साँख्य मार्ग का अवलंबन लेनेवाला सीधे ही आत्मा और ईश्वर के तत्व का अनुसंधान करने में संलग्न हो सकता है जबकि योगमार्ग का अवलंबन करनेवाला अपने आपके स्वतंत्र होने की मान्यता के कारण मन की वृत्तियों पर नियंत्रण करते हुए, उन्हें निरुद्ध करने के लिए उन सभी साधनों का सहारा लेता है जिनका वर्णन पतञ्जलि के द्वारा उनके योगदर्शन में इस प्रकार से किया गया है :

अथ योगानुशासनम्।।१।।

योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः।।२।।

तदा दृष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम्।।३।।

वृत्तिसारूप्यमितरत्र।।४।।

वृत्तयः पञ्चतय्यः क्लिष्टाक्लिष्टाः।।५।।

प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः।।६।।

प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि।।७।।

विपर्ययो मिथ्याज्ञानमतद्रूपप्रतिष्ठम्।।८।।

शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः।।९।।

अभाव-प्रत्ययालम्बना वृत्तिः निद्रा।।१०।।

अनुभूतविषयासम्प्रमोषः वृत्तिः स्मृतिः।।११।।

अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः।।१२।।

इनमें से प्रमाण नामक वृत्ति प्रत्यक्ष, अनुमान अथवा आगम के रूप में होती है। यह शुद्ध इंद्रियानुभव, केवल बौद्धिक निष्कर्ष, या भावनात्मक अनुभूति के रूप में भी होना संभव है।

विपर्यय नामक वृत्ति वस्तु के त्रुटिपूर्ण और आधारहीन ज्ञान (जानकारी) के रूप में होती है। और पुनः वस्तु की इस त्रुटिपूर्ण जानकारी का शोधन भी किया जा सकता है जिससे विपर्यय का निरसन (elimination) हो जाता है।

विकल्प नामक तीसरे प्रकार की वृत्ति तब उठती है जब किसी शब्द से प्रतीत होनेवाली वैसी किसी भी वस्तु का अस्तित्व होता ही नहीं है।

चौथी निद्रा नामक वृत्ति वह है जो कि अभाव प्रत्यय पर आलंबित होती है - अर्थात् किसी भी वस्तु के अभाव की ही प्रतीति होना।

पाँचवी और अंतिम वृत्ति स्मृति है जो कि किसी अनुभूत विषय के पुनः चित्त में आने पर उठती है।

उपरोक्त पाँचों प्रकार की वृत्तियों में व्यक्त ज्ञान जानकारी की कोटि में होता है और इसे वृत्तिज्ञान कहा जाता है। समस्त शास्त्रीय (Scriptural knowledge) और तथाकथित वैज्ञानिक (Scientific knowledge)  जिसे भौतिक ज्ञान के रूप में सीखा और सिखाया जाता है, विश्वसनीय नहीं हो सकता। सूचना और इनफॉर्मेशन तकनीक, आर्टीफीशियल इन्टेलिजेन्स की भी इसीलिए सीमित उपयोगिता है।  

शुद्ध चेतना में ग्रहण किया जानेवाला ज्ञान / ज्ञानवृत्ति ज्ञात से परे (beyond the knowledge and the known) होता है और इसलिए असंदिग्ध रूप से सर्वत्र और सदैव परम ज्ञान की कोटि में रखा जा सकता है।

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