December 09, 2024

What Is Philosophy?

Question प्रश्न  115

Thought and Thinking

विचार और वैचारिकता

From my WordPress Blog

उपरोक्त दोनों लिंक्स इस प्रश्न के परिप्रेक्ष्य में महत्वपूर्ण हैं। भारतीय आध्यात्मिक परंपरा का आधार दर्शन  है,  न कि विचार या वैचारिकता।विचार Thought और वैचारिकता Thinking,  मस्तिष्क की बुद्धि (Intellect, memory,  Information) स्मृति पर आश्रित गतिविधि है, जो वृत्ति का ही प्रकार होने से अपनी ही सीमा में बद्ध होती है। जबकि चेतस्  consciousness / चेतना उसके लिए ऐसा  अनवगम्य / अकल्पनीय अनाकलनीय क्षेत्र है जिसे अज्ञेय, अनिर्वचनीय कहा जा सकता है। जिसके बातें श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार :

यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति।।

तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च।।५२।।

श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला।।

समाधावचला बुद्धिस्तथा योगमवाप्स्यसि।।५३।।

(अध्याय २)

अद्वैत वेदान्त में ऐसे मन-बुद्धि से परे के ज्ञान की प्राप्ति के लिए निम्न छः उपाय हैं :

प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, अर्थापत्ति, अनुपलब्धि और शब्द ।  प्रमाण या ऐसे मन-बुद्धि से परे के ज्ञान की प्राप्ति के अध्ययन को "न्याय-दर्शन" कहते हैं।

इनमें से प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम को पतञ्जलि मुनि ने सम्मिलित रूप से "प्रमाण" अर्थात् "वृत्ति" के अन्तर्गत रखा है :

प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि।। 

वहीं,

विपर्ययो मिथ्याज्ञानमतद्रूपप्रतिष्ठम्।।

और, 

शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः।।

अनुभूतविषयासम्प्रमोषः वृत्तिः स्मृतिः।।

अभाव-प्रत्यययालम्बना वृत्तिः निद्रा।। 

इन पाँच को वृत्ति कहा है जबकि 

योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः।। 

मेंधी पाँचों के निरोध को "योग" कहा है।

जिसे आधुनिक पश्चिमी विचारक Philosophy   कहते हैं, उसे उपरोक्त पाँच वृत्तियों में से विपर्यय और / या विकल्प के अन्तर्गत रखा जा सकता है। 

यह है  - Philosophy !

न्याय, योग और वेदान्त-दर्शन के उपरोक्त छः उपायों के आधार पर इसी तर्कसंगत युक्ति 

Rational Approach Reasoning

से उस एकमेव अद्वितीय सत्य की उपलब्धि की जाती है जिसे ब्रह्मन्, सांख्य-ज्ञान या कैवल्य भी कहा जाता है।

और एक और भी अधिक रोचक और विस्मयकारी तथ्य यह भी है कि इसी आधार पर चूँकि आधुनिकतम विज्ञान और गणित भी मूलतः विपर्यय तथा विकल्प के प्रकार ही हैं अतः उनकी विश्वसनीयता भी संदिग्ध ही है! और चूँकि ब्रह्म / ब्रह्मन् और  आत्मा / आत्मन्  एक ही वस्तु के दो नाम मात्र हैं, इसे मन, बुद्धि और ज्ञान के किसी भी अन्य माध्यम से नहीं जाना जा सकता है।

इसे ही अपरोक्षानुभूति  भी कहा जाता है।

स्थितप्रज्ञस्य की इस अवस्था को केवल इसके लक्षणों से ही पहचाना जा सकता है -

अर्जुन पूछते हैं -

स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव।। 

स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम्।।५४।।

और तब भगवान् श्रीकृष्ण उन्हें इस प्रश्न का उत्तर देते हैं।

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November 28, 2024

The Communication Gap.

And The Generation Gap.

मुझे याद है कि मेरे पिताजी अकसर मुझसे दो बातें कहा करते थे :

खग ही जाने खग की भाषा!

और, 

कोऊ काहू में मगन, कोऊ काहू में मगन!

यह दुनिया और दुनिया के लोगों पर उनकी अंतिम और स्थायी टिप्पणी होती थी। पता नहीं वे निराश होकर ऐसा कहते थे, या दुनिया और दुनिया के लोगों के प्रति व्यंग्य करुणा या उपहास की भावना के कारण कहते थे।

उनके इन सारगर्भित शब्दों का तात्पर्य अब मुझे अनुभव होने लगा है। मुझे लगता है, दुनिया और दुनिया के लोगों की हालत देखकर किसी भी संवेदनशील मनुष्य के लिए  इन दोनों वाक्यों में छिपे इस सत्य को देख पाना जरा भी मुश्किल नहीं है। हर मनुष्य अपने निज संसार में ही उस संसार को अनुभव करता है जिसे कि हम सबकी दुनिया कहा जाता है। इस छोटे से अपने निज संसार में ही यह  बहुत बड़ी दुनिया जो केवल विचार के ही अंतर्गत प्रतीत  होती है, और फिर भी वह अपने छोटे से संसार पर इस तरह हावी हो जाती है कि निजता और निजता की ओर से आँखें बन्द हो जाती हैं, अपनी सहज स्वाभाविक और सनातन अस्मिता, निजता और नित्यता विस्मृतप्राय हो जाती है। यह हमारी अत्यन्त और सबसे मूल्यवान संपत्ति है, किन्तु संसार / दुनिया के प्रति अपनी सतत बदलती धारणाओं से ग्रस्त मन का ध्यान कभी इस ओर नहीं जा पाता।

कोऊ काहू में मगन, कोऊ काहू में मगन,

और,

खग ही जाने खग की भाषा!

के रहस्य को समझने, जानने-बूझने के लिए उत्कंठित  मन को कभी अपरिमेय चिन्ता से छुटकारा नहीं मिलता! और वैसे भी शायद ही कभी इस ओर किसी के मन में कोई रुचि पैदा होती है!

जीवन संध्या आने तक भी बिरला ही कोई इस रहस्य को बूझकर चिन्ताओं से मुक्त होता होगा!

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November 15, 2024

Question प्रश्न 114

अभ्यास : सालम्ब और निरालम्ब(?)

The Spiritual Enterprise :

Dependent and  Independent(?)

--

श्रेयो हि ज्ञानं अभ्यासात् ज्ञानात् ध्यानं विशिष्यते।

ध्यानात् कर्मफल-त्यागः त्यागाच्छान्तिः अनन्तरम्।।१२।।

(श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय १२)

किसी भी प्रकार का अभ्यास आवश्यक रूप से और  सदैव सालम्ब ही होता है।

अभ्यास से अधिक श्रेयस्कर है ज्ञान, जो केवल बौद्धिक, द्वैत या विषय-परक हो सकता है, या विषयरहित अर्थात् विषयमात्र से रिक्त हो सकता है और उस स्थिति में वृत्ति भी शेष नहीं रह सकती, क्योंकि विषय-विषयी-चेतना के अभाव में वृत्ति का भी अस्तित्व नहीं हो सकता । 

इसीलिए अभ्यास आवश्यक से और सदैव, सालम्ब ही होता है जब विषयी अर्थात् विषयी-चेतना, अर्थात् "मन", चित्त, बुद्धि, अहंकार, किसी न किसी वृत्ति से सारूप्य में  होता है।

वृत्तिमात्र के निरुद्ध होने की दशा में न तो वृत्ति और न ही वृत्ति से सारूप्य हो सकता है :

तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम्।।

वृत्तिसारूप्यमितरत्र।।

न तो द्रष्टृत्व वृत्ति है और न ही किसी भी वृत्ति के सक्रिय होने पर द्रष्टृत्व का विषय-विषयी की तरह से विभाजन ही संभव है।

जब तक विषय, विषयी और वृत्ति की गतिविधि के रूप में चित्त किसी आलम्बन पर आश्रित होता है तब तक अभ्यास / ध्यान सालम्ब ही होता है।

उपरोक्त गतिविधि का निरुद्ध हो जाना "योग" है, न कि स्वरूप का दर्शन । इस प्रकार से वृत्ति के निरुद्ध हो जाने को निरोध-परिणाम कहा जाता है। दूसरी ओर, जब अन्य समस्त वृत्तियों को निरुद्ध कर किसी एक ही विषय को चित्त में धारण किया जाता है तो इसे धारणा  कहा जाता है -

देशबन्धचित्तस्य धारणा।।१।।

तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम्।।२।।

तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधिः।।३।।

त्रयमेकत्र संयमः।।४।।

(योगसूत्र विभूतिपाद)

मन या चित्तवृत्ति ही निरोध-परिणाम, एकाग्रता-परिणाम और समाधि-परिणाम से प्रभावित होती है।

यह सब सालम्ब प्रयास से होता है। 

इसलिए ध्यान या अभ्यास नहीं, ज्ञान ही  सालम्ब  या  निरालम्ब  होता है,

अभ्यास कर्म (द्वैत) है जबकि ज्ञान (अद्वैत) का कर्म से कोई संबंध ही नहीं है -

दूरेण हि अवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय।।

बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः।।४९।।

(श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय २)

इसलिए निष्काम कर्म, या कर्म और कर्मफल को ईश्वर को समर्पित कर देना ही कर्म करते हुए चित्त की शान्ति का एकमात्र उपाय है। दूसरा कुछ कठिन उपाय है कर्म-मात्र में कर्तृत्व-बुद्धि का त्याग "हो जाना"। यही सांख्य योग है। इस प्रकार के उपाय में मन किसी भी आश्रय का आलम्बन नहीं लेता और यही "मनोनाश" भी है, जबकि योग का साधन करने में केवल बारम्बार मनोलय होता है, न कि पूर्ण ज्ञान। पूर्ण ज्ञान "कैवल्य ज्ञान" है, जिसका उल्लेख "कैवल्यपाद" के क्रमांक ३०,३१, ३२,३३ और ३४ सूत्रों में है।

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November 08, 2024

The Conflict

सबसे बड़ी दुविधा 

--

पहचान का प्रश्न। 

जम्बूद्वीपे भारतखण्डे

यहाँ सभी कुछ दिव्य है, पावन भारत-भूमि की एकमात्र यही पहचान है और इसलिए यहाँ तक कि हर स्थान, जलाशय, नदी, पर्वत, ग्राम, नगर और पूरा भारत राष्ट्र ही दिव्य है। दिव्य अर्थात् जहाँ सब कुछ ईश्वरीय सत्ता की ही प्रकट और प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति है।

यहाँ किसी भी स्थान की अपनी सनातन पौराणिक पहचान है, जिसे सृष्टि के प्रारंभ से अब तक इतिहास और पुराण में अंकित किया जाता रहा है, और वाचिक परंपरा से भी जो भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग रही है।

उदाहरण के लिए इस समय मैं जिस स्थान पर रह रहा हूँ उस स्थान का प्रचलित नाम "बरमान" है, जिसे पुनः "बरमान कलान" भी कहा जाता है। नर्मदा नदी यहाँ पर चूँकि अनेक धाराओं में प्रवाहित होकर एक बहुत बड़े भौगोलिक क्षेत्र में फैली हुई है इसलिए इसे सहस्रधारा या सातधारा के नाम से भी जाना जाता है।

सातधारा नाम से प्रसिद्ध इस गाँव की ग्राम पंचायत का नाम है "लिंगा"! यह अनुमान अनुचित नहीं होगा कि यह नाम भी "लिङ्ग" अर्थात् "शिवलिङ्ग" का ही प्रचलित रूप है।

आध्यात्मिक और पौराणिक दृष्टि से नर्मदा भगवान शिव की पुत्री है। भगवान शिव सनातन तपस्वी हैं और तप भी एक प्रकार का श्रम ही तो है। भगवान शिव पञ्चानन भी हैं अर्थात् पञ्च महाभूत ही उनका भौतिक, स्थूल शरीर है। पृथ्वी तत्व के रूप में भगवान शिव का अर्धाङ्गिनी प्रकृति भी इसी प्रकार सनातन काल से तपस्यारत है। तप तो इन देवताओं का स्वभाव ही है। तो, भगवान शिव के तपरूपी श्रम से उनके वक्ष से एक स्वेदबिन्दु निःसृत हुआ जिसने तत्क्षण ही एक महातरङ्ग का रूप ले लिया।भगवान शिव के ही पर्याय आचार्य शङ्कर ने इसी कथा के आधार पर श्री नर्मदाष्टकम् की रचना की --

सबिन्दुसिन्धुसुस्खलत्तरंगभङ्गरञ्जितम् ...

वह स्थल जहाँ धरती पर भगवान शिव की पुत्री के रूप में माता नर्मदा अवतरित हुई वह स्थान अमरकंटक के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसी स्थान से एक और क्षीणप्राय धारा का उद्भव हुआ जिसे कपिल-धारा का नाम प्राप्त हुआ। जहाँ से माता नर्मदा पृथ्वी पर उतरी उस स्थान को अर्थात् गोमुख को अमरकंटक कहा गया, जबकि निकट से ही निकली एक अन्य दूसरी धारा का प्राकट्य भगवान कपिल मुनि के माध्यम से हुआ इसलिए उसे कपिलधारा कहा जाता है।

कपिलमुनि को साँख्य दर्शन का संस्थापक आचार्य कहा जाता है। 

वैसे भी, गीता में भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं -

सिद्धानां कपिलो मुनिः ... 

एक और सिद्ध महापुरुष का अवतरण इसी पवित्र भारत भूमि पर राजा शुद्धोदन के पुत्र राजकुमार "सिद्धार्थ" के रूप में हुआ, जिन्हें कि सत्य के रूप में उसी परम तत्व की उपलब्धि हुई जिसे वैदिक साहित्य में "ईश्वर-तत्व" की तरह भी जाना जाता है और जिसे केवल उत्तम पुरुष के रूप में पुरुषोत्तम भी कहा जाता है। इसलिए उसी को पुनः "भगवान्" भी कहा जाता है। इसीलिए सिद्धार्थ को भी आगे चलकर "भगवान् बुद्ध" की उपाधि प्राप्त हुई।

ब्रह्माजी का उद्भव चराचर में व्याप्त भगवान् विष्णु की नाभि से कमल के भीतर हुआ और जब उन्होंने कमल से बाहर अपने चारों ओर जल ही जल (नर्मदा) के दर्शन किए और वे यह न समझ सके कि "यह सब क्या है!", तो जिस स्थान पर उन्हें जल के दर्शन हुए उसी स्थान पर अपने आपके और इस अस्तित्व के रहस्य को जानने की तीव्र उत्कंठा से अनायास ही तपस्या रूपी श्रम में संलग्न हो गए। और तब दिव्य सत्ता के अनुग्रह से उन्हें सृष्टि की रचना करने के लिए आवश्यक ज्ञान प्राप्त हुआ।

सृष्टि की रचना होने पर असंख्य जीवों का उद्भव हुआ और उनमें से प्रत्येक को ही यद्यपि अपने अस्तित्व का अस्पष्टभान अर्थात् आभास-मात्र था किन्तु -

"यह सब क्या है!"

इस बारे में वह नितान्त अनभिज्ञ था।

प्रत्येक ही जीव ब्रह्मा का ही प्रतिरूप होने से प्रत्येक का  ही सामना इस प्रश्न से हुआ। तब से आज तक प्रत्येक ही भूलवश ही इस आभासी संसार को नित्य और सत्य मान बैठा। जल अर्थात् नारा जिसका उद्भव विष्णु के चरण के अँगूठे से हुआ। जायते लीयते च इति जलम्  

कपिलवस्तु में बुद्ध का जन्म हुआ, और कुशीनगर में उनका महापरिनिर्वाण हुआ। गीता में इसे ही ब्रह्मनिर्वाणं कहा गया है।

गीता का प्रारंभ इस ग्रंथ के दूसरे अध्याय "सांख्य योग" से, जबकि प्रथम अध्याय अर्जुनविषादयोग से होता है। पुराणणः के अनुसार इस स्थान पर ब्रह्मा ने तपस्या की इसलिए इसे "ब्रह्मन् कला" का नाम प्राप्त हुआ जो बाद में "बरमान कलान" या "बरमान कलां" में परिवर्तित हो गया।

अभी एक मित्र ने मेरा पोस्टल ऐड्रेस जानना चाहा तो मैं दुविधा में पड़ गया। बहरहाल गूगल मैप की सहायता से तात्कालिक ऐड्रेस पता लगाकर उन्हें भेज दिया।

कहानी यहीं समाप्त नहीं होती। क्योंकि न तो संसार में किसी स्थान का कोई स्थायी पता होता है, और न ही हो सकता है।

केवल लक्षणों के आधार पर ही किसी स्थान, मनुष्य या वस्तु के स्वरूप के बारे में कोई अनुमान लगाया जाना संभव है।

नर्मदा नदी के बारे में भी यह सत्य प्रतीत होता है। कहा जाता है कि गंगा के स्पर्शमात्र से ही सद्गति प्राप्त होती है, यमुना में स्नान करने से और नर्मदा के दर्शनमात्र से ही।

तीनों नदियाँ स्वरूपतः जल ही हैं, जल ही जीवन तथा जीवन और चेतना एक दूसरे से अभिन्न और अनन्य हैं।

इस चेतना में अस्मिता संनिहित है ही। "कोई है" जो कि अपने आपको जाननेवाला कहता है और "मैंं" के रूप में उसका उद्घोष करता है। यही है अस्मिता। इसका उद्भव उस विशुद्ध चेतना से होता है जो जल या जीवन के रूप में गंगा, यमुना, नर्मदा या कोई भी दूसरी नदी है। सरयू, क्षिप्रा, गोदावरी, सरस्वती या दूसरी भी कोई भी जैसे कि वैतरणी या निरञ्जना। नर्मदा "अहं-स्फुरणा" है जिसका उद्गम शुद्ध अहं तत्व अर्थात् परमात्मा या परमेश्वर शिव के हृदय से होता है जो तुरन्त ही बहिर्गामी होने से "वृत्ति" का रूप ले लेती है। समस्त संसार इसी में जन्म लेता है, इसी में जीवन पाता है और इसी में लय को प्राप्त होता है। इस "वृत्ति" के दर्शन कर लेना ही मुक्ति का सबसे सरल उपाय है, जबकि इसका स्पर्श करना भी एक और उपाय है। तीसरा उपाय है इसमें स्नान करना।

गंगा शिव की अर्द्धाङ्गिनी, यमुना धर्मराज यम की बहन है, जबकि नर्मदा भगवान शिव की पुत्री है।

सभी उपाय एक ही प्रयोजन की सिद्धि करते हैं।

और उन मित्र को इसलिए भी अपना पोस्टल ऐड्रेस देना थोड़ा कठिन तो है। सच्चाई तो यह है कि मुझे भी उनका जो ऐड्रेस ज्ञात है, वह कितना स्थायी है यह भी मैं ठीक ठीक नहीं जानता!

*** 

 





October 28, 2024

From My WP blog.

सन्दर्भ  : अश्विनी उपाध्याय

आज की कविता

समय मुट्ठी में बन्द रेत की तरह झर रहा है!

नियति का निष्ठुर चक्र निरन्तर चल रहा है,

चट्टान कण कण हो, रेत होती जा रही है,

रेत समय होकर, क्षण क्षण बिखर रहा है!

***

October 27, 2024

Question प्रश्न 113

Is Life Subject To Conditions

Or

The Conditions Are Subject To Life?

क्या जीवन, परिस्थितियों से स्वतंत्र, और उनसे अप्रभावित समष्टि अस्तित्व है? 

और, 

परिस्थितियाँ ही उस समष्टि जीवन पर आश्रित नहीं हैं?

This Question draws our attention onto yet another interesting question :

Is Life Subject To Person,

Or,

Is The Person Subject To (The)  Life?

यह प्रश्न हमारा ध्यान पुनः एक और रोचक प्रश्न की ओर खींचता है :

क्या जीवन नामक सत्यता मनुष्य / व्यक्ति-विशेष पर आश्रित कोई सत्ता है  

या 

मनुष्य-मात्र / व्यक्ति-विशेष ही, समष्टि जीवन पर आश्रित है?

For so long as the another question is not dealt with properly, we can't expect to deal with this question.

सोच रहा था कि इस पर विस्तार से लिखूँ किन्तु अभी परिस्थितियों के दबाव में यह संभव नहीं है। फिर कभी, अगर अवसर मिला तो! 

***

 


 



October 21, 2024

Breaking News!

The Word!

शब्द बीमार है!

The Word Is Unwell!

P O E T R Y /  कविता

--

In the Beginning,

There Was The Word, 

All Alone, Without The Other, 

Solitary, Solemnly, Oneself As,

The Knowing, The Knower,

And Also The Known! 

The Word Was The Beginning,

And The Beginning Was The Word.

They Were Two But One. 

The Word Was Known To Itself,

And The Knowing Was The Light.

So, Therefore In The Beginning,

The Word Was The Knowing, 

The Word Was The Beginning,

The Word Was The Light, 

They Light Was The Beginning.

Though The Beginning, The Word, 

And The Light Were But The Names,

Though The One That Was Alone, 

Was Nameless, Had No Name,

Neither A Form To Say One's Own.

--

There Was The Word, 

All Alone, Without The Other,

The Word Was The Beginning, 

The Beginning Was Light,

The Word Was The Light,

Where Time Existed Not,

So The Word Created Time, 

The Time Created The World, 

In The Beginning Though,

There Was Neither Time,

Nor The World, But The Word Alone, 

The Nameless, Without The Other.

The Word Was Though Light, 

The Knower, The Knowing,

And The Known, Had No Name!

The Word Delighted In Oneself,

Knew Not The Beginning,

Knew Not The Middle or The End.

Tragically, In The Light Though,

In Its Own Reflection In Itself,

Appeared A Shadow, An Alter-self,

That Assumed An Existence,

Independent And Other Than, 

The One That Was The Word.

In An Instant, Over-spread,

Covered Up The One, The Word,

Who Was There as The Word, 

As The Knowing, As The Knower, 

And As The Known Only.

The Shadow Though Knew Itself,

Couldn't fathom What Or Who, 

Was There Before It Evolved,

Couldn't Fathom, From Where,

Who Was The Father, Who Fathered,

The Father, The Word, The Light, 

The Knowing And The Knower,

The Father And The Light,

Knew The Shadow,

Too Well, For Certain,

The Shadow though Knew, 

It Was Born, And Feared,

Someday, It Might Die Too, 

Though Knew Not The Death.

There Was Just A Hint, A Clue.

The Shadow, Associating Itself, 

With Anything And Everything,

That It Covered, Overshadowed,

To Be Itself  And But Knew, 

All And Everything, Anything Was, 

Certainly Subject To Extinction

And As There Was no exception

To This Law Unspoken Unwritten, 

Soon Occurred As An Idea,

I Too Am Going To Die, Will Have To! 

That Was The Fear, It Felt,

During And Going Through,

Umpteen Times Though,

Associating And Identifying, 

Itself With The Countless Objects,

That Came Into Its Perception,

Accepting Those Objects As Itself,

However It Somehow Knew, 

I Persist Always Ever, All Along, 

Though Awake, I Dream, 

Though Dreaming, Awake, 

Though Asleep, Dreaming, 

Though Awake, Asleep, 

I'm Intact, Whole, Perfect.

Though I'm Alive, I'll Die! 

But Sadly, And Unfortunately,

It Never Occurred To The Shadow,

To Find Out, To Discover,

If It Was Ever Really Born And, 

If It Could Ever Go Through Death?

Or, Shall I Have A Reincarnation?

The Shadow Never knew For Certain!

Then On An Auspicious Moment,

The Light, That Was The Word,

The Knowing, Knower And The Known,

The Father, Took Pity Upon The Child, 

Pay Attention! Look My Child!

How Do You Think : You're Born? 

Why Do You Fear : You're Going To Die?

But Know Well : Whosoever Is Born,

Has To, And Would Certainly Die,

And Whoever Goes Through Death,

Has To, Would Certainly Be Born!

Why Think So, And Why Fear? 

About And For The Inevitable?

Were You Ever Really Born? 

Will You Really Going To Die?

Whatever That Was Born,

Would Have To Die.

Whatever Has died, 

Would Have To Discard,

The Name And Form,

The Body And The Mind,

That Keeps on dying, 

Moment To Moment,

And Come To Life, 

Again And Again. 

Do They Think, Do they Fear, 

Of The Imminant Incoming Death?

If You But For Once Discover, 

If You But For Once Know,

You're But Me, Myself Only,

I'm The Word, I'm The Knowing, 

I'm The Knower, I'm The Known, 

I'm The Word, I'm The Light,

I'm The Father, I'm The Child,

I'm The World, I'm The Spirit, 

You Shall No More Fear The Death. 

For You Shall At Once Realize,

You're But The Reality Immortal!

***

इस कविता का अंकुरण

"शब्द बीमार है" - 

इन शब्दों से किसी मंत्र जैसा, मेरे हृदय में अनायास ही स्फुरित और प्रस्फुटित हुआ था।

मूल प्रेरणा तो श्रीमद्भगवद्गीता से ही प्राप्त हुई थी  -

--

          अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते।

तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि।।2.25।।

अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्।

तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि।।2.26।।

जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।

तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि।।2.27।।


वैसे तो इसे सीधे ही  HTML  में वैसे ही कंपोज़ कर सकता था जैसा मेरे गीता के ब्लॉग में 1500 से भी अधिक पोस्ट्स में किया है, किन्तु

 यहाँ

मेरे ब्लॉग के पाठकों को इस लिंक की जानकारी और इस साइट को धन्यवाद देने के लिए उपरोक्त लिंक से कॉपी-पेस्ट किया है।

और चूँकि कविता का प्राकट्य अंग्रेजी में हुआ, अतः कविता को उसी भाषा में रहने दिया। 

***

















 




October 18, 2024

ये सब क्या हो रहा है!!

कुछ भी!! 

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जय हो!

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जेहि पर कृपा न करहिं पुरारी। 

सो न पाव मुनि भगति हमारी।। 

(रा मा १/१३७/७)

तो दोनों को प्रसन्न करना जरूरी है!? 

नहीं एक को कर लो,  दूसरा अपने आप मान जाता है। दोनों अलग थोड़े हैं! 

ये तो रामायण का श्लोक है न!

नारायण को मजा आता है महादेव की भक्ति में, इसीलिए ऐसा कहा उन्होंने। 

मेरी अल्प बुद्धि में समझ नहीं आ रहा है।  दोनों अलग नहीं हैं तो दोनों कैसे हैं?

पुत्र!  इसको इस तरह समझो।

अग्नि एक ही होती है। अगर शरीर में है तो प्राण है, अगर भोजन बनाएँ तो ज्वाला है, दीपक जलाएँ तो बिजली है, होती तो एक ही है लेकिन जनसाधारण को समझाने के लिए भाषा में इसके अलग अलग नाम होते हैं। 

जब अनंत ऊर्जा सृष्टि की रचना करती है तो उसे ब्रह्मा कह देते हैं। जब सृष्टि का संचालन करती है तो उसे विष्णु कहते हैं। जब सृष्टि का संहार करती है तो उसे ही शिव कह देते हैं। और जब सिस्टम रिबूट करना होता है तो उसे प्रलय कहते हैं। ये अनंत ऊर्जा एक ही है। सृष्टि का कार्य करने के लिए उसके बहुत से रूप होते हैं। एकोऽहम् बहुस्यामि।। 

हाँ अब थोड़ा समझ में आया। 

जय हो प्रभु आपकी! 

हमें तो पुरारी मुरारी समझ में नहीं आते। हम तो बस माई के भरोसे हैं। वो हमारा ध्यान रखती है।

जय माता दी।

प्रेम से बोलो जय माता दी।

जोर से बोलो जय माता दी।

सब मिल बोलो जय माता दी! 

😂 👏 

भारत माता की जय! 

महात्मा गांधी की जय।!

जवाहरलाल नेहरू की जय! 

इंदिरा गांधी की जय!

राजीव गांधी की जय! 

सोनिया गांधी की जय! 

राहुल गांधी की जय!!

प्रियंका गांधी की जय!!

अरे अरे,  रुको जरा!

हाँ,  नरेन्द्र मोदी की जय! 

अमित शाह की जय!

अरविंद केजरीवालजी की जय! 

आतिशी मारलेना की जय!!

सब सन्तन की जय! 

सब दुष्टों की जय!

थक गए!!! 

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Question प्रश्न 112

The Multi-polar

and The Uni-polar

Existence.

--

Question :

How does a human being differ from the rest of the living beings?

प्रश्न :

मनुष्य और शेष प्राणियों में सर्वाधिक प्रमुख अंतर क्या है?

Answer :

Human being is a species given with a mind. The Sanskrit etymology suggests the derivation of the word "human" as from -

ह उ मन् - मनुते इति मनुष्य, मानवः, मनुजः --इति। 

The only specific difference between a man and any other living being is - man has a "mind" a multipolar instrument which man is habitually addicted to. The other living beings don't have any such a very sophisticated, well developed tool to help them in dealing with the world and the surroundings.

Even if the other living beings are called "sentient", they lack an elaborate system of "language" that connects man with so many a hypothetical universes as in the case of humans.

Fortunately or unfortunately we learn a language from the very childhood. This is a system where a physical or a mental object is associated with a spoken word.

This is indeed very useful in connecting and treating with others in the everyday transactions. However this facilitates for the kind of things mostly of  the physical or tangible kind only. When the mental things are concerned, we are often at a loss of proper words in conveying our feelings and sentiments and again that too depends on our sensibilties. Moreover, sensibility of any man too is often conditioned because of the society where we are born, live and follow their ethical, moral, cultural standards, and values. Leaving Religion and spirituality aside, we are slaves and captives of the conditioning, and we all have been also trained to behave in a certain pattern.

When we compare ourselves with other living beings, we can see that they all live by the dictates of their specific nature. For example if you bring an animal from one part of the world to another part, it's behaviour and dealing with the old and  surroundings remains the same or quite similar. For a human being however it is comparatively difficult to fitting in and accommodate in the new environment. It's mostly because a man "thinks" and "thoughts" force one to believe in certain concepts which all are but hypothetical mental constructs and hold no truth in them at all. You can believe so different and so many contradictory ideas at the same time and have no even a hint that nothing of all that is true. Indeed it's all ignorance only. Our minds are therefore are multi-polar and in comparision the consciousness of any of the living being other than humans, is uni-polar.

Our Ethics and Morality determine and define our relationships, our sensibilities too fashion our behavior with the other fellow human beings accordingly.

It's because though all do have memory of the past (experience), only we humans  store it in the form of a narrative. 

Any good or bad experience is thus soon  translated into words of our language while the other living beings can hardly even think of doing or going through all this exercise.

So we have a "history", knowledge and memory, -the detailed information in a "language" just like any computer has in its system. Of course the computer has a well-arranged and preserved one, while we have a random access that is often of a kind of read only.

Other living beings have access to past information in the form of habitual and instant response to the situation, while we humans often "think", "evaluate" and then try to judge a situation through the knowledge stored up in the memory. We don't and can't respond to the situation in the very instant as all the other living beings do.

Moreover we have invented civilizations and these too continue to govern, control and format our mind. The conditioning is so deep in our brains and DNA.

That may perhaps is the only mark of difference between us humans and the rest of the living beings living on the earth.

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October 16, 2024

अगर आप बीमार हैं!

"पहला सुख निरोगी काया"! 

तो सबसे पहले तो आपको यह पता होना चाहिए कि आप बीमार हैं या नहीं, और अगर हैं, तो आपमें 'वह' क्या है जो बीमार है। और वह जो बीमार है, वह बीमार क्यों है!

और आपने कभी न कभी

"सावधानी हटी, और दुर्घटना घटी" 

यह भी पढ़ा या सुना ही होगा!

बीमार होना भी अवश्य ही एक दुर्घटना ही तो है। इसके यूँ तो अनेक ज्ञात या अज्ञात कारण हुआ करते हैं लेकिन सबसे पहला एकमात्र संभव और मूल कारण जो कि हमें पता हो सकता है, वह है अपने अंदर अपने-आपकी कोई पहचान बन जाना और उस पहचान का सतत, निरन्तर बदलते रहना। पहचान बन जाने के बाद अपने आपकी क्रमशः अनेक और भिन्न भिन्न बहुत सी पहचाने / छवियाँ बन जाती हैं, जिनके समूह के रूप में एक ऐसी पहचान भी पुनः पुनः स्थापित होते होते स्मृति में स्थायी की तरह प्रतीत होती है। सुविधा के लिए हम "पहचान" को छवि या प्रतिमा भी कह सकते हैं। उन सबमें अपने आपकी शरीर के रूप में पहचान अवश्य ही सूक्ष्म कल्पना और फिर धारणा की तरह जड़ जमा लेती है और दूसरी सभी बाद में पैदा होनेवाली छवियाँ मानों उस वृक्ष की अनेक शाखाएँ होती हैं जो क्रमशः नई नई जन्म लेती और फिर  किसी समय सूखकर या टूटकर नष्ट भी होती रहती हैं। यह शरीर या तन भी उस वृक्ष का तना ही होता है, जिस पर पुनः 'मन' नामक एक और नई पहचान उभरती है। 'मन' को भी यदि वृक्ष समझा जाए तो 'मन' भी उस वृक्ष का एक तना होता है जिस पर बुद्धि, भावनाएँ, मानसिक प्रतीतियाँ, अनुभव और अंततः 'विचार' नामक अनेक फूल और कलियाँ पल्लवित, प्रस्फुटित और पुष्पित होती रहती हैं।

मनुष्य का सबसे बड़ा दुर्भाग्य यही है कि जाने अनजाने उसने भाषा पर आश्रित 'विचार' नामक क्षणिक आभास की रचना कर ली। 'विचार' विभिन्न शब्दों का समूह होता है जिसका वस्तुपरक भौतिक अर्थ अवश्य हो सकता है, और उस अर्थ के संप्रेषण के लिए शब्द का उपयोग भी निस्संदेह आवश्यक होता है। किन्तु जब किसी भावना या भाव के अर्थ के द्योतक किसी शब्द को संप्रेषण के लिए प्रयुक्त किया जाने लगता है तो वह लक्षितार्थ कभी तो ठीक से संप्रेषित हो पाता है और कभी कभी नहीं हो पाता है। प्रायः सभी भाववाचक संज्ञाओं (abstract nouns) के बारे में ऐसा ही है। क्योंकि भावना या भाव मानसिक अनुभव होता है न कि कोई वस्तुपरक भौतिक इंद्रियग्राह्य विषय (tangible object).

इसीलिए अतीन्द्रिय, अभौतिक (non-physical) और मानसिक अनुभवों का संप्रेषण शब्दों के माध्यम से कर पाना लगभग बहुत कठिन हुआ करता है। किन्तु फिर भी स्थिति इतनी निराशाजनक भी नहीं है। भाषा जितनी ही अधिक विकसित, सुघड़, प्राञ्जल और प्रयोग-आधारित होगी, शब्दों के माध्यम से भावों और भावनाओं और उनके आशय को उतनी ही सरलता से अभिव्यक्त और संप्रेषित भी किया जा सकता है। काव्य और छन्द का यही महत्वपूर्ण पक्ष है।

किन्तु जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है, 'विचार' प्रायः ही भावों और भावनाओं के आशय को विरूपित भी कर सकता है, और तब छल-कपट को सहारा भी देने लगता है। तब शब्द-समूह अर्थात् वाक्य लक्ष्यार्थ, वाच्यार्थ और यथार्थ के बीच असामञ्जस्य का कारण हो जाता है।

उदाहरण के लिए "ईश्वर" विषयक विचार, जो "ईश्वर" शब्द के वाच्यार्थ, लक्ष्यार्थ और यथार्थ से अनभिज्ञ होते हुए भी परस्पर विवाद का कारण बन जाया करता है। तब "ईश्वर" को परिभाषित किए जाने की आवश्यकता पैदा हो जाती है और तब स्थिति और भी अधिक कठिन हो सकती है, बल्कि हो ही जाती है। यदि "ईश्वर" कोई ऐसी इंद्रियग्राह्य वस्तु होता तो विवादों के कोई कारण ही न होते।

अभी "ईश्वर" के स्थान पर "आत्मा" अर्थात् "स्व" के बारे में समझने का प्रयास करें तो प्रत्येक ही स्वीकार करेगा कि "स्व" या "आत्मा" अर्थात् "मैं" के अस्तित्व पर, उस बारे में कभी किसी को कोई संशय हो ही नहीं सकता। क्योंकि ऐसा कोई संशय स्वयं ही ऐसे संशय को नष्ट कर देता है। "स्व", "आत्मा" या "मैं" इसलिए निर्विवाद एक तथ्य है। किन्तु "स्व" / "मैं" के लिए विभिन्न भाषाओं में प्रयुक्त शब्दों के आशय पर किसी को न तो कोई संशय होता है, न भ्रम। और यद्यपि व्यवहार में "स्व" या "मैं" शब्द का उपयोग भी स्वप्रमाणित है, फिर भी इसे न तो परिभाषित किया जा सकता है, और न परिभाषित किए जाने की कहीं कोई आवश्यकता ही है। और फिर भी यह भी इतना ही सत्य है कि हर कोई यद्यपि इस "मैं" शब्द के आशय, वाच्यार्थ और लक्ष्यार्थ से परिचित होते हुए भी उसके यथार्थ से अनभिज्ञ होता है।

"पहला सुख नीरोगी काया"

यह "पहला सुख" स्वयं भी निर्विवाद सत्य है और कोई ऐसा नहीं है जो इसके तात्पर्य से अनभिज्ञ हो सकता है। किन्तु विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या काया अर्थात् यह शरीर ही स्वयं को जानता है? या शरीर को जाननेवाला "मैं" ही शरीर को "मेरा" कहता है और उसके नीरोगी या रुग्ण होने पर सुख होने या न होने के बारे में कहता है? क्या इस "मैं" / "स्व" को जाननेवाला इससे भिन्न और पृथक् कोई दूसरा "मैं" / "स्व" होना संभव है? 

यदि ऐसा है, तो जिसे अंग्रेजी में :

infinite regression,

begging the question,

और संस्कृत में "अनवस्था दोष" कहा जाता है, वह यहाँ उपस्थित हो जाता है। इसलिए "आत्मा" / "मैं" या "स्व" यद्यपि अपरिभाषेय और अनिर्वचनीय है तथापि यही वह है जिसे "काया" की तरह जाना जाता है -

आच्छादयति आत्मानं स्वरूपं या इयं सा छाया वा मीयते यया आत्मनः स्वरूपं सा माया अपि।

सा एव भवव्याधिः।

इसी प्रकार का एक शब्द है "ब्रह्म"। यह भी वैसे तो "ईश्वर" की ही तरह अपरिभाषेय और अनिर्वचनीय है, किन्तु इसे भी इसके लक्षणों से जान पाना अवश्य ही संभव है। इसके लिए इसके लक्षणों को तीन उदाहरणों से स्पष्ट किया जाता है :

"ब्रह्म" में स्वजातीय, विजातीय और स्वगत ये तीनों भेद नहीं पाए जाते। स्वजातीय अर्थात् जैसे आम और खजूर के वृक्ष, वृक्ष की तरह सजातीय होते हैं किन्तु पशुओं या मनुष्यों की जाति से विजातीय होते हैं। इन दोनों प्रकारों के भेद को स्वजातीय और विजातीय भेद कहा जाता है। पुनः एक ही वृक्ष में उसकी पत्तियों, डालियों, फूलों और फलों आदि की रचना भिन्न भिन्न होती है और इन भेदों को वृक्ष में विद्यमान "स्वगत" भेद कहा जाता है। यदि आप ईश्वर, आत्मा या ब्रह्म को नहीं भी जान या समझ पाते तो भी आप इस "मैं" से अनभिज्ञ नहीं हो सकते, और जैसे ही आप इसके स्वरूप को जाने-समझने के लिए अपने आपसे इसकी जिज्ञासा करते हैं तो आपके लिए यह स्पष्ट हो जाता है कि "मैं" (ब्रह्म की ही तरह, उसी प्रकार से) वस्तुतः सजातीय, विजातीय और स्वगत इन तीनों प्रकारों के भेदों से रहित है।

इसका ही महावाक्य के माध्यम से उपदेश देते हुए कहा जाता है -

अहं ब्रह्मास्मि।

इस ब्रह्म के स्वरूप पर काया, छाया और मायारूपी जो आभासी आवरण है उसकी ही प्रशंसा श्रीमद्भगवद्गीता के निम्न श्लोक में की गई है --

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।।

मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।

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October 06, 2024

चिड़ियाँ, मछलियाँ

और इंसान

आज की कविता

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हवा के समन्दर में, 

उड़ती हैं चिड़ियाँ,

जैसे नदी के जल में, 

सैर करती हैं मछलियाँ!

और हँसती हैं हम इंसानों पर,

जो रेंगते हैं नदी की तलहटी में,

या जंगलों मैदानों में, 

जानवरों, कछुओं और केंकड़ों जैसे!! 

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October 02, 2024

Question / प्रश्न 111

खुशबुएँ / Scents

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What is Science? 

विज्ञान क्या है? 

गन्ध

किसी को कहीं से कहीं ले जा सकती हैं, जीवन को बुरी तरह से बरबाद या खुशहाल भी बना सकती हैं। 

बदबुएँ शायद ही किसी को अपनी ओर खींच सकती हों, खुशबुओं के आकर्षण से बच पाना हर किसी के लिए आसान नहीं होता। यह तो बहुत बाद में पता चलता है कि कोई खुशबू कितनी ही मोहक क्यों न हो, परिणाम की दृष्टि से वास्तव में भी हमारे लिए हितकर है या नहीं, या कि अत्यन्त ही हानिकर तो नहीं है जो कि अन्ततः तो हमारा सर्वनाश भी कर सकती है।

खासकर किसी समय, स्थान, तिथि विशेष, अमावस्या या पूर्णिमा के दिन। लेकिन शायद ही किसी का ध्यान इस पर कभी जाता है।

यही बात खाने पीने की वस्तुओं पर भी लागू होती है। खाने पीने की कोई भी वस्तु जैसे कि स्वादिष्ट मिठाई या और कुछ भी यद्यपि बहुत सफाई से बनाई गई हो, खाने के कुछ समय बाद ही उसके अच्छे या बुरे प्रभाव का पता चलता है। कभी कभी तो बरसों बाद तक भी पता नहीं चल पाता।

बहरहाल, बात तरह तरह की खुशबुओं की हो रही थी। 

बचपन से ही मैं इस मामले में  over-sensitive  या  hyper-sensitive  रहा हूँ। पहले मैं स्वयं भी सोचता था कि यह मेरा वहम है, लेकिन कुछ घटनाओं के कारण मुझे इस ओर ध्यान देना पड़ा। पिछली गर्मियों में, और बारिश के दौरान मैं जिस जंगल-हाउस में ठहरा था, वहाँ पर बिजली कभी दो-दो दिनों तक गुल रहती थी, लेकिन बरसात के कीड़े अवश्य ही शाम होते ही कमरे में इकट्ठा हो जाते थे, और तब मोमबत्ती या मोबाइल की लाइट में भी खाना खाना तक दुश्वार हो जाता थ। और इसीलिए मैं सूरज डूबने से पहले ही शाम का भोजन कर लिया करता था। मच्छरदानी को अच्छी तरह से बंद कर उसके भीतर पड़ा रहता था। फिर भी कभी कभी कोई न कोई कीड़ा शरीर पर रेंगता तो उसे पकड़कर बाहर फेंक देता था। प्रायः तो कोई कीड़ा या पतंगा कभी काटता नहीं था लेकिन कुछ कीड़े बहुत बुरी तरह काटते थे जिनकी मुझे पहचान हो गई थी। इसलिए उन्हें पकड़ने के लिए मुझे बहुत सावधानी रखनी होती थी। मैं उन्हें प्लास्टिक की शीशी में बंद कर बाद में बाहर जाकर खुले में छोड़ देता था। सबसे अधिक परेशानी छोटे-बड़े काले कीड़ों से थी जो बहुत बदबूदार होते थे। उन्हें मैं कागज में लपेट लेता था ताकि उनकी बदबू हाथों तक न पहुँच सके। हैरत की बात यह कि ऐसे भी कीड़े थे, जिनसे हल्की सी सुगंध भी आती थी। ये कीड़े बिलकुल किसी पत्ती की तरह चपटे और उसी आकार के होते थे, और यद्यपि वे भी पेड़ की ही तरह बिलकुल हरे, पीले, काले या भूरे भी हो सकते थे लेकिन कभी काटते नहीं थे। इन सभी तरह के कीड़ों से किसी को एलर्जी भी हो सकती है, लेकिन सावधानी से उन्हें छूने से उनसे बचा भी जा सकता है।

तो मैं सोचने लगा कि कोई भी और कैसी भी गन्ध कहाँ से पैदा होती है? गीता में एक सूत्र प्राप्त हुआ -

पुण्यो गन्धः पृथिव्यां ...

यह हमारा दुर्भाग्य और प्रमाद ही था / है कि युगों युगों से जिस सनातन ज्ञान को ऋषियों ने :

तपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः।।

के माध्यम से उद्घाटित किया और उस की परम्परा को और अधिक अनुसंधान से परिपुष्ट और समृद्ध भी किया उसे हमने अपनी निष्क्रियता और आलस्य से विस्मृत कर दिया, इतना ही नहीं विदेशी आक्रान्ताओं ने हमारी बुद्धि को और अधिक मोहित तथा भ्रमित भी कर दिया।

किन्तु अपने अध्ययन और अनुसन्धान से मैंने पाया कि सनातन अर्थात् धर्म का मार्ग सदा से ही ऋषियों अर्थात् सत्य के जिज्ञासुओं को प्रत्यक्षतः दिखाई देता रहा है। और उन्होंने सनातन अर्थात् धर्म के उस मार्ग और उसकी स्मृति को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए उसे जिस भाषा में व्यक्त किया, वह भाषा (संस्कृत) भी उसी तरह चिर नूतन, सनातन, शाश्वत और नित्य है जिसका पुनः पुनः आविष्कार किया जा सकता है, यदि किसी में उपयुक्त जिज्ञासा और उत्कंठा हो।

आधुनिक 

Science / विज्ञान की चकाचौंध और आक्रान्ताओं की निरन्तर दासता की मानसिकता से प्रभावित होकर हमारा सतत अधोपतन होता रहा लेकिन सनातन वृक्ष लगभग पूरी तरह से सूख कर नष्टप्राय हो गया। किन्तु उसकी जड़ें हमारी मनोभूमि में गहरी पैठी होने से उसका पुनरुज्जीवित होना अपरिहार्यतः अवश्यंभावी ही है।

Science, Sense, Sentience,  इन अंग्रेजी शब्दों की उत्पत्ति संस्कृत भाषा की शस् / शंस् और संश् इन तीनों ही धातुओं से देखी जा सकती है। इसे हम ग्रीक और लैटिन भाषाओं से भी व्युत्पन्न कर सकते हैं। किन्तु वे दोनों भाषाएँ भी संस्कृत के ही भिन्न भिन्न संस्करण हैं इसमें संदेह हो तो इसकी भी परीक्षा की जा सकती है।

ग्रीक शब्द संस्कृत "गिरा" / ग्रृ धातु से निष्पन्न होता है, जिसका प्रयोग गीर्ण, उद्गीर्ण, निगीर्ण, उद्गार आदि शब्दों में दृष्टव्य है। जबकि लैटिन भाषा "ला" धातु से "लाति" के रूप में व्युत्पन्न है। पाणिनी के अष्टाध्यायी के अनुसार  "रा दाने, ला प्रदाने" रा और ला धातुएँ कहने और देने के अर्थ में प्रयुक्त होती हैं।

अरबी, फ्रैंच और बहुत सी अन्य भाषाओं में "ला" शब्द का प्रयोग यहीं से है जैसे "अल्" प्रत्याहार जो "इल" तथा "उल्" में भी परिणत हो गया। वाल्मीकि रामायण के उत्तरकाण्ड, सर्ग 87 में इला (संपूर्ण पृथ्वी) के एक महापराक्रमी नरेश 

"इल" 

का वर्णन है जिसे यक्ष, राक्षस, दैत्य, गंधर्व भी पृथ्वी का एकमेव ईश्वर मानकर जिसकी पूजा और सम्मान करते थे। वह अत्यन्त धार्मिक और महाप्रतापी भी था।

अंग्रेजी भाषा के  All, alright  आदि भी संस्कृत के इसी प्रत्याहार / अव्यय पद "अलम्" के अपभ्रंश हैं, और इसी अर्थ में ग्रहण किए जाते हैं।  "right" उसी प्रकार से संस्कृत शब्द "ऋत्" का पर्याय है जो पुनः "सत्य" का पर्याय है।  although  भी अलम् तः का प्रचलित रूप है।  "Science" इसी तरह "शस्" / "शंक्" / "शंस्" का विस्तार है।

उपरोक्त शीर्षक में दिए गए लिंक को मैंने पूरी तरह से अभी सुना नहीं है क्योंकि अभी ही उस पर दृष्टि पड़ी। एकमात्र दर्शन जो दूसरे शेष दर्शनों से कुछ भिन्न रीति से सत्योद्घाटन के आधार को स्पष्ट करता है तो वह है :

महर्षि पतञ्जलि कृत योग-दर्शन

क्योंकि इसमें "प्रमाण" को भी वृत्ति ही कहा गया है 

वृत्तयः पञ्चतय्यः। 

क्लिष्टाक्लिष्टा।

प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः।।

तत्र 

प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि।।

विपर्ययो मिथ्याज्ञानमतद्रूपप्रतिष्ठम्।। 

शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः।।

अभाव-प्रत्यययालम्बना वृत्तिः निद्रा।। 

अनुभूतविषयासम्प्रमोषः स्मृतिः।। 

इसलिए आज का विज्ञान जो प्रत्यक्ष और अनुमान इन दो प्रमाणों तक सीमित है, विकल्प और विपर्यय से परे "आगम" को छू भी नहीं पाता। 

पातञ्जल योगदर्शन में "ईश्वर" को भी परिभाषित किया गया है :

क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेषः ईश्वरः।।

तत्र निरतिशयं सर्वज्ञत्व-बीजम्।। 

ईश्वरप्रणिधानाद्वा।। 

(समाधिपाद)

यहाँ अनावश्यक विस्तार से नहीं कहा जा रहा है क्योंकि जिनकी रुचि हो वे स्वयं ही उपरोक्त संदर्भों को खोजकर पुष्टि भी कर सकते हैं।

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September 13, 2024

namAmidevinarmade

त्वदीय पादपङ्कजं नमामि देवि नर्मदे।।

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Question / प्रश्न 110

How Ancient Is narmadA?

नर्मदा कितनी प्राचीन है?

Answer  /  उत्तर :

।।ॐ नमः तत्सद्ब्रह्मणे।।



जिसे हम भौगोलिक अर्थ में एक नदी की तरह जानते हैं, वह नर्मदा नदी अवश्य ही पृथ्वी से अधिक प्राचीन नहीं है, किन्तु जिसे हम पुराणों के माध्यम से जानते हैं उसके स्वरूप की तीन कलाएँ व्यक्त जगत् में दृष्टिगत हो सकती हैं। चूँकि वेद, पुराण, स्मृतियाँ, और षट्-दर्शन भी केवल तीन ही कलाओं से व्यक्त जगत में पाए जाते हैं, इसलिए मनुष्य की अल्प और अपरिष्कृत बुद्धि के लिए उन तीनों प्रकारों / कलाओं  / (genres) में विरोधाभास प्रतीत हो सकता है क्योंकि मनुष्य की भौतिक बुद्धि काल की तीन काल की इन कलाओं को समय के अतीत, वर्तमान और आगामी एक-रेखीय आयाम में ही देख सकती है जबकि काल की गति सातों लोकों भूः भुवः स्वः महः जनः तपः और सत्यम् में भिन्न भिन्न है।

पुनः ब्रह्म के भी क्रमशः दो नाम और रूप सकल और निष्कल हैं। सकल ब्रह्म तो ब्रह्मा, विष्णु और शंकर के रूपों में अनन्त-कोटि ब्रह्माण्डों की सृष्टि, परिपालन और लय करता है, जबकि निष्कल केवल निश्चल साक्षी के रूप में कालनिरपेक्ष वास्तविकता है। 

काल भी पुनः क्रमशः अचल अटल और चर इन दो रूपों में अपना कार्य करता है। इसे चर रूप की गति भूः, भुवः, स्वः, महः, जनः और तपः इन छः लोकों में तो भिन्न भिन्न हैती है किन्तु सातवें लोक "सत्यम्" में इसका कोई कार्य शेष नहीं रहता।

इसी प्रकार स्वयं ब्रह्मा भी स्वरूपतः कालनिरपेक्ष और कालसापेक्षता इन दो, क्रमशः अव्यक्त और व्यक्त रूपों में सदा प्रकट ही रहते हैं।

ब्रह्म के अनेक और असंख्य व्यक्त प्रकारों में व्यक्त चेतना जीव के रूप में सतत अभिव्यक्त और अभिव्यक्त होती रहती है और इसलिए सापेक्ष दृष्टि से इनमें से प्रत्येक का ही अस्तित्व इन सातों ही लोकों :

क्रमशः भूः, भुवः, स्वः, जनः, महः, तपः और सत्यम् में सार्वकालिक होता है।

पुनः प्रत्येक ही जीव (जो कि अपरिहार्यतः पदार्थ और चेतना का अविभाज्य और संयुक्त रूप होता है) किसी भी समय इन सातों लोकों में अस्तित्वमान होता है और प्रत्येक में ही पुनः चेतना की भिन्न भिन्न प्रकार की चार कलाओं में (जिनमें से प्रत्येक ही शेष तीनों का निषेध करती है), अवस्थित होता है।

ये चार कलाएँ ही चेतना की जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और समाधि अर्थात् तुरीय। और प्रत्येक मनुष्य अनुभव से भी जानता ही है कि किसी भी समय वह इनमें से किसी एक में ही अवस्थित होता है। अर्थात् जब वह जाग्रत होता है, तब स्वप्न अथवा सुषुप्ति में नहीं होता, जब वह स्वप्न देख रहा होता है तब वह न तो जाग्रत और न ही सुषुप्त होता है, और इसी तरह जब वह सुषुप्त होता है तब भी न स्वप्न देख रहा होता है और न ही जाग्रत होता है। संकल्पपूर्वक ध्यान इत्यादि के प्रयासों, दैवी संयोग या प्रारब्धवश वह क्रमशः समाधिस्थ या अचेत भी हो सकता है। इसे तुरीय दशा कहा जाता है। 

इसी प्रकार प्रत्येक जीव के रूप में उद्भूत चेतना विशेष (आत्मा) एक ही समय में उपरोक्त सभी सातों लोकों में और किसी एक मानसिक दशा (जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय) अधिष्ठित होती है। भूः भूलोक इन्द्रियगम्य अनुभवों और ज्ञान का लोक है, भुवः - मानसिक लोक है जिसे मनो, बुद्धि, और चित्त के माध्यम से अनुभव किया जाता है अर्थात भुवर्लोक या वह स्थान जहाँ पर प्रत्येक ही जीव प्रारब्ध की गति से नियंत्रित होकर सुख दुःखों आदि का भोग यंत्रवत् किया करता है। स्वर्लोक अर्थात् स्वः या स्वयं और संसार दोनों की युगपत् प्रतीति जहाँ होती है। यही मनुष्यों और सभी जीव जन्तुओं में अपने विशिष्ट होने की कल्पना उत्पन्न होती है। इससे उच्चतर वे लोक हैं जिन्हें महः, तपः और सत्यम् कहा जाता है। जब कोई मनुष्य या उन्नत चेतना किसी महत्वाकांक्षा से प्रेरित होकर कोई असाधारण संकल्प और वैसा कार्य करती है तो वह जिस लोक में होती है उसे महः कहा जाता है जिसका वर्णन गीता के दसवें अध्याय "विभूति योग" में प्राप्त हो सकता है। जनः वह लोक है जिसमें सभी पुण्यवान या पतित जन्म लेते हैं और सहभागिता भी करते हैं। वाल्मीकि रामायण में "जनस्थान" के रूप में इसका बहुत अच्छा उल्लेख है। ब्रह्मा (आब्रह्म) की ही तरह नर्मदा का स्वरूप भी इसी प्रकार कालनिरपेक्ष और कालसापेक्ष तथा इन सभी लोकों में समान रूप से पाया और अपनी पात्रता होने पर अनुभव भी किया जा सकता है।

ब्रह्मा जब विष्णु की नाभि से कमल के पुष्प में अवतीर्ण हुए और अपने चार आननों से चतुर्दिक् देखा तो आश्चर्य और कौतूहल से भर गए। तब उन्हें अपनी सृष्टि होने का भान हुआ और उनमें उस कारण, तत्व और प्रयोजन को जानने की उत्सुकता, उत्कंठा और जिज्ञासा हुई जिससे उनकी सृष्टि हुई। उन्होंने भूः, भुवः और स्वः तक को तो जान लिया था किन्तु इस जिज्ञासुरपि महत्वाकाँक्षा के ही कारण वे महः लोक और तपः लोक से भी परिचित हो गए। सृष्टि होने ही जन्मरूपी जनस्थान या जनः लोक से तो वे प्रारंभ ही से अवगत थे।

तब उन्हें तपःलोक प्राप्त हुआ और वे नर्मदा के सप्तधारा तट पर निवास करते हुए कठोर तप करने लगे। नर्मदा के इस स्थान को इस प्रकार से ब्रह्म कला या ब्रह्मकलाम् / ब्रह्मकलां नाम प्राप्त हुआ और कालान्तर में विरूपित हो जाने से उसे ही बरमन कलान का नाम प्राप्त हुआ। 

संक्षेप में, नर्मदा स्वरूपतः तो भगवान् ब्रह्मा से भी पूर्व और प्राचीन समय से है।

संभवतः स्कन्द पुराण के रेवाखण्ड में जिसे नर्मदा पुराण भी कहा जाता है इसका उल्लेख पाया जा सकता है।

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September 12, 2024

निरंकुश शासक

अहं-वृत्ति / अहं-प्रत्यय / अहं-संकल्प / व्यक्तित्व अहंकार / मन 

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विश्व अर्थात् इस मृत्यलोक और जगत् के के स्वामी, जो क्रमशः मनु, मनुष्यों और प्राणिमात्र के इन्द्रियबुद्धिगम्य भौतिक संसार पर शासन करते हैं, देवताओं के दैविक संसार स्वर्ग पर शासन करते हैं, सम्पूर्ण समष्टि अस्तित्व का संचालन करनेवाले परमात्मा हैं, उन सबकी यद्यपि अपनी अपनी भूमिका है जिसका वे निर्वाह स्वतंत्र रूप से करते हैं, और वे सभी अपना प्रमाण स्वयं ही होते हैं और मनुष्य अनुमान, बौद्धिक तर्क और निष्कर्ष से उनके अस्तित्व पर संदेह नहीं कर सकता। भौतिक और स्थूल विज्ञान के अन्तर्गत, जहाँ प्रकृति की परिवर्तनशीलता में किन्हीं ऐसे स्थिर नियमों को सैद्धान्तिक और आधारभूत सत्य की तरह खोजने का यत्न किया जाता है, वहाँ उन नियमों की अधिष्ठाता भी किसी विशिष्ट ज्ञान या शक्ति से संपन्न कोई स्वयंसिद्ध एकमेव अद्वितीय सत्ता है यह तो मानना ही होगा। और मनुष्य यह भी मानता है कि दूसरी सभी भौतिक वस्तुओं के बीच निर्जीव और सजीव होने का प्राकृतिक भेद भी इसी प्रकार से स्वयंसिद्ध ही है।तात्पर्य यह कि वैज्ञानिक, जीवन क्या है इसे संतोषप्रद ढंग से परिभाषित तो नहीं कर सकता, किन्तु वह सभी वस्तुओं का वर्गीकरण सजीव अथवा निर्जीव इन दोनों रूपों में करने का प्रयास करता ही है। स्पष्ट है कि किसी  जीवित या सजीव मनुष्य के ही द्वारा ऐसा प्रयास किया जाना संभव है। और ऐसा कोई मनुष्य इससे भी नितान्त अनभिज्ञ भी होता है कि क्या इस बुद्धि का कारण और परिणाम भी उसमें विद्यमान जीवन है, या जीवन उससे स्वतंत्र ऐसी कोई सत्ता है जिसे वह "प्रकृति" का नाम दे सकता है! पदार्थ और उसकी कार्यप्रणाली को समझने के प्रयास में वह अकाट्य तर्क और गणितीय मान्यताओं को तात्कालिक रूप से सत्य मानकर उस आधार पर उन सिद्धान्तों की स्थापना करता है जिनकी पुनः पुनः परीक्षा कर वह उन्हें पूर्णतः विश्वसनीय कह सके। अपने जैसे  ही अन्य मनुष्यों से चर्चा और विचार विमर्श कर उन्हें वह "विज्ञान" (साइन्स) का नाम देता है, जिस पर वैज्ञानिकों के बीच मतभेद नहीं होता। अतः यह कहा जा सकता है  कि प्रकृति इसी विज्ञान के नियमों की अधीनता में रहकर अपना समस्त कार्य करती है। ये नियम परस्पर आश्रित होते हैं। यदि इन विविध प्रतीत होनेवाले विभिन्न नियमों के बीच कोई विषमता / असामंजस्य हो तो विज्ञान की उस आभासी कारणों का पता लगाकर उस विषमता का निराकरण भी कर देता है। किन्तु किसी भी वैज्ञानिक का ध्यान क्या कभी इस प्रश्न पर जाता होगा कि जिस बुद्धि की सहायता से वह यह सारा वैज्ञानिक आकलन करता है, वह बुद्धि उसमें कहाँ से उत्पन्न और जाग्रत होती है? फिर भी वह इतना तो समझ ही सकता है कि यह बुद्धि उसे कहीं से भी प्राप्त क्यों न होती हो, बुद्धि प्रकृति की कार्यप्रणाली की ही एक सूक्ष्म अभिव्यक्ति है, जो उसमें कभी प्रकट और कभी अप्रकट होती रहती है और वह स्वयं बुद्धि के आने या जाने और उसकी कार्यप्रणाली के प्रति सचेतन आधारभूत वास्तविकता है। यह सचेतनता ही बुद्धि से उच्चतर और स्वयंसिद्ध सत्य है, जबकि बुद्धि ऐसा कोई स्वयंसिद्ध स्वप्रमाणित सत्य नहीं हो सकता। पुनः बुद्धि तर्कपरक तथ्य (objective fact) है जबकि सचेतनता एक  वस्तुपरक वास्तविकता (subjective Reality) है। बुद्धि ही सचेतनता का विषय है जबकि सचेतनता बुद्धि का विषय कभी नहीं हो सकती।

सचेतन होना (knowing or being conscious of something else other than one-self) ही चेतना (consciousness) और यही संवेदनशीलता (sensitivity / sensibility) भी है जो स्वयं अपने आपको भी जानी गई वस्तु (the known) और उस वस्तु को जाननेवाले (the knower) के बीच वर्गीकृत कर लेती है और इस वर्गीकरण के ही फलस्वरूप चेतना से संबद्ध किसी भी और प्रत्येक शरीर विशेष (living organism) में :

 "मैं" / 'स्व' की भावना - (sense of self ); और,   अपने से अन्य / 'पर' की भावना - (sense of other than self) उत्स्फूर्त होती है। 'स्व' की भावना कर्तृत्व, भोक्तृत्व, ज्ञातृत्व और स्वामित्व के रूप लेकर व्यक्ति या व्यक्तित्व में परिवर्तित हो जाती है और यही वह निरंकुश शासक भी होता है जो कि भ्रम और अज्ञानवश स्वयं को व्यक्तित्व और व्यक्तित्व का स्वामी एक साथ दोनों मान लेता है। यही मन है,  जिसे कभी तो मनुष्य अपने आप की तरह और कभी अपने से भिन्न "मेरा मन" भी कहने लगता है। जिस प्रकार मन, बुद्धि से मोहित होता है उसी प्रकार से बुद्धि भी मन से मोहित हो जाती है। पुनः मोह से ही आसक्ति / या  विषयासक्ति  का जन्म होता है। आसक्ति का अर्थ है - "मैं / स्व और "मेरा" के बीच की भिन्नता के न देख पाना। और इसीलिए शरीर को तथा शरीर से संबद्ध वस्तुओं और विषयों को भी मोहजनित आसक्तिवश ही "मैं" तथा "मेरा" भी कह दिया जाता है। इसीलिए "मन" ही कभी कभी अत्यन्त व्यथित और त्रस्त हो जाने पर शरीर का ही अन्त कर देने का विचार भी करने लगता है, और उसे लगता है कि शरीर का अन्त होने पर "मैं" भी नहीं रह जाऊँगा। फिर मेरे सभी क्लेश भी समाप्त हो जाएँगे। किन्तु उसका ध्यान शायद कभी इस पर नहीं जा पाता कि "मैं" और मेरा  होने की स्थिति में "मेरे" संसार का क्या होता है! 

और न तो किसी भी तर्क से, अनुभव या उदाहरण से वह इस संदेह का निवारण ही कर सकता है। इसका एकमात्र कारण यही है कि उसे सबसे पहले तो अस्तित्व का भान होता है, फिर उस अस्तित्व में और अपने तथा अपने से पृथक् और भिन्न प्रतीत होनेवाले किसी और के अस्तित्व का। अस्तित्व / सत्तामात्र की ऐसी प्रतीति में अपने और अपने से भिन्न का भान साथ साथ ही प्रारंभ और समाप्त होता रहता है और स्मृति के कल्पित सातत्य से ही संदेह उत्पन्न होता है। यह देखना रोचक है कि स्मृति स्वयं ही क्षण क्षण न जाने कहाँ से जाग्रत होकर न जाने कहाँ विलुप्त होती रहती है, जिस पर उसको जाननेवाले और उसको अपना कहनेवाले का कोई अधिकार, नियंत्रण या दावा नहीं हो सकता, जबकि प्रत्येक ही भ्रमवश अपने स्वयं  को उसका स्वामी और शासक मान बैठता है और इस वास्तविकता से नितान्त अनभिज्ञ होता है, कि स्मृति ही उस पर शासन कर रही होती है! 

स्मृति उसमें उसे प्रतीत होनेवाले सभी अनुभवों के  बीच भेद होने की कल्पना से उन सभी अनुभवों की  पहचान उत्पन्न कर अपना स्वतंत्र अस्तित्व होने का  आभास निर्मित करती है

स्मृति ही पहचान है और पहचान ही स्मृति है।

क्योंकि एक के अभाव में दूसरी नहीं पाई जाती है।

इसे ही महर्षि पतञ्जलि ने वृत्ति कहा है।

इस प्रकार वृत्ति ही एकमात्र सार्वभौम निरंकुश शासक है, जो चेतना के प्रस्फुटित होते ही 

जड जगत / इदं, और चेतन "मैं"/ अहं

के रूप में अभिव्यक्त होता है।

सभी वृत्तियाँ अहं-वृत्ति में और अहं-वृत्ति भी पुनः पुनः विभिन्न प्रकार की दूसरी वृत्तियों में बदलती रहती है। न तो वृत्ति अहं-वृत्ति के अभाव में, और न अहं-वृत्ति ही वृत्ति के अभाव में स्वतंत्र रूप से बनी रह सकती है।

और यह जानना भी महत्वपूर्ण है कि अहं-वृत्ति वृत्तिमात्र के निरुद्ध कर दिए या हो जाने पर भी अस्मिता के रूप में बीज रूप में बनी रहती है। और इसीलिए इन विभिन्न प्रकार की समाधियों से गुजरने के बाद भी मनुष्य अपने आपको उनके अनुभवकर्ता, भोक्ता, स्वामी या साक्षी की तरह स्मरण रखकर अहं-वृत्ति से बँधा रहता है।

पुनः वह स्वयं को अहं-वृत्ति रूपी निरंकुश शासक  के रूप में मान्य कर लेता है और इसका रहस्योद्घाटन कर पाना उसके लिए संभव नहीं रह जाता।

इस रहस्य का उद्घाटन केवल तभी हो पाता है जब वह अपने हृदयान्तर में उतरकर / प्रविष्ट होकर इसे खोज ले कि इस अहं-वृत्ति का उदय / जन्म कहाँ से होता है, इसे समझ / खोज ले, इसमें पैठकर निमज्जित हो रहे, या श्वास की गति / प्राणापानगती पर संयम करने के माध्यम से चित्त को निरुद्ध कर सके।

महर्षि श्री रमण ने इस पूरी शिक्षा को संक्षेप में एक ही श्लोक में इस प्रकार से अभिव्यक्त किया है -

हृदयकुहरमध्ये केवलं ब्रह्ममात्रम् 

ह्यहमहमिति साक्षादात्मरूपेण भाति।

हृदि विश मनसा स्वं चिन्वता मज्जता वा

पवनचलनरोधादात्मनिष्ठो भव त्वम्।। 

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September 09, 2024

Question / प्रश्न 109

क्या महाभारत युद्ध समाप्त हो गया? 

मुझे नहीं लगता कि महाभारत युद्ध समाप्त हो गया था। मुझे लगता है कि वह अभी तक समाप्त नहीं हुआ है। अब भी अघोषित रूप से चल ही रहा है। यदि आज की स्थितियों का अवलोकन करें तो यह समझना कठिन नहीं होगा कि भारत पर विदेशियों के आक्रमण का इतिहास उसी क्रम का हिस्सा था। और हर मनुष्य, वर्ग, समुदाय, मजहब, रिलीजन की भूमिका यद्यपि बहुत अलग जान पड़ती है, शायद ही किसी की बुद्धि इस माया से मोहित न हो!  

आज वह युद्ध और भीषण हो चला है और हर मनुष्य ही उसमें इस या उस पक्ष की ओर से युद्ध लड़ रहे हैं। केवल अर्जुन की ही बुद्धि मोहित हुई हो ऐसा नहीं, बल्कि हम सभी की बुद्धि कम या अधिक मोहित है और विडम्बना यह है कि हमें इसका आभास या इसकी कल्पना तक नहीं है! 

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।।

मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।

यह मोहित बुद्धि उस माया का ही परिणाम है।

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September 05, 2024

The Shadow!

Ego and Alter-Ego

अहं और प्रत्यहं

(अहम् और प्रति-अहम्)

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अभी इस पोस्ट से कुछ मिनट पहले इसी ब्लॉग में एक कविता लिखी है। पता नहीं क्या लिखते लिखते एकाएक वह कविता लिख दी गई!

मन की ऊपरी सतह पर यद्यपि कविता लिखी जा रही थी किन्तु मन की इस ऊपरी सतह से नीचे कोई था जो चुपचाप इस कविता के रचयिता होने के गर्व से बहुत प्रसन्न था।

जब कविता पूरी हो गई तो ध्यान इस पर गया कि कल -  परसों मैंने ईगो / इगो और आल्टर ईगो की जिस प्रकार से विवेचना की थी और उसे परिभाषित किया था, उससे उत्पन्न हुई एक अद्भुत् शान्ति ने मुझे अभी तक अभिभूत कर रखा है। और सब कुछ यद्यपि अक्षरशः वही है, फिर भी सब कुछ नितान्त परिवर्तित भी हो गया है। इसे स्पष्ट  करने के लिए मेरे पास कोई व्याख्या नहीं है! 

कल मैंने संक्षेप में मेरे इस "आत्म-साक्षात्कार" के बारे में लिखा था कि विचारकर्ता ही ईगो और विचार ही आल्टर ईगो है। यद्यपि मैं न तो विचारकर्ता हूँ और न ही विचार!

विचारकर्ता / विचार मैं नहीं! 

आज सुबह से मन में इसी पर ध्यान केन्द्रित था।

और मन फिर भी अपना कार्य अधिक सरलता, स्पष्टता और शान्ति से करता रहा। यद्यपि कभी कभी वह पूरी तरह शब्दरहित भी होता रहता है, और जब विचारकर्ता तथा  विचार दोनों ही विलीन हो जाते हैं फिर भी कभी कभी विचार और विचारकर्ता की गतिविधि भी शुरू हो जाती है। इसी मनःस्थिति में इस पर ध्यान गया कि जैसे मनुष्य का अपना ईगो और आल्टर ईगो, - विचारकर्ता और विचार के रूप में उसके ही अन्तर्मन के दो पक्ष होते हैं, और उससे भिन्न और परे के जगत से उनका कोई सबंध नहीं होता, ठीक वैसे ही मनुष्य के सामूहिक मन (consciousness / collective mind) में भी असंख्य विचार, आभासी और काल्पनिक विचारकर्ता को प्रक्षेपित करते हैं, और वह भी पुनः सामाजिक स्तर पर विभिन्न समुदायों और वर्गों में बँटा होता है। यह है मनुष्य की नियति, जिसे परिवर्तित करने, और दुनिया को बदलने का विचार भी जिसका एक अत्यन्त छोटा विचारमात्र होता है।

विचार और विचारकर्ता (जो वस्तुतः एक ही तथ्य है) के बीच के इस संबंध की तुलना (analogy) शरीर और शरीर की छाया से शायद की जा सकती है, जिनके बीच में "मन"  नामक वस्तु पेन्डुलम की तरह डोलती रहती है।

"अपनी छाया"

शीर्षक से लिखी जानेवाली कविता इसका ही परिणाम या प्रभाव रहा होगा, और बाद में जिससे मुझे :

Oscar Wilde 

की रचना

"अपनी छाया"

का स्मरण हो आया। 

यह सब शायद रोचक और संभवतः नितान्त काल्पनिक ही है, बस इतना ही कह सकता हूँ! 

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अब तक ऐसा होता आया!

कविता : अपनी छाया

(यह कविता पूरी होते होते मुझे 

Oscar Wilde 

की एक रचना :

"अपनी छाया"

याद आई !

हालाँकि मैंने शायद इस उपन्यास / कहानी / पुस्तक का नाम ही सुना है! याद नहीं आता, इसे मैंने कभी पढ़ा भी है या नहीं! 

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जब से आँख खुली है मेरी, 

अब तक ऐसा होता आया, 

मेरे पीछे ही लगी रही थी,

खुद मेरी अपनी ही छाया!

मेरी वह थी, या मैं उसका, 

कभी इसे मैं समझ न पाया,

कभी उसे अपना कहता था,

और कभी मैं उसे पराया!

जब जब मुझ पर पड़े रोशनी,

तब तब वह मेरे पीछे होती,

जब जब मुझे अन्धेरे मिलते,

तब तब वह गायब हो जाती!

इसी तरह जब त्रस्त हुआ मैं,

आखिर उसको भुला ही दिया,

तब से बहुत सुखी रहता हूँ,

आखिर ऐसा भी दिन आया!

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Distressed and Depressed.

The Crises and The Challenges of Our Times.

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भारत के संकट और चुनौतियाँ 

दस्तकों का अब किवाड़ों पर असर होगा ज़रूर,

हर हथेली खून से तर और ज्यादा बेक़रार!!

'70 के दशक में स्व. दुष्यन्त कुमार को पढ़ा था।

कैसे एक ही शे'र या साहित्यिक रचना के अर्थ समय, संदर्भ और उसे पढ़नेवाले की मनःस्थिति के अनुसार बदल जाते हैं इसकी कल्पना तक शायद ही न तो उस साहित्यकार या शायर को होती होगी और न उस रचना को पढ़नेवाले उसके किसी पाठक को, यह इसका एक बहुत ज्वलन्त उदाहरण हो सकता है!

जरा कल्पना कीजिए किसी उस लड़की की स्थिति की, जो स्वयं बांग्लादेश की एक ग़ैर मुस्लिम दलित वर्ग की बेटी है, जिसके घर के कमज़ोर किवाड़ों पर गहरी अँधेरी रात में किन्हीं गुंडों या बदमाशों की खटखटाहट हो रही हो, या उस जैसी किसी दूसरी लड़की की स्थिति, जो कि स्वयं इस डर से घर से घबराकर भागकर पड़ोसी के घर जाकर आतुर प्रतीक्षा करते हुए उसके किवाड़ों को जोर जोर से खटखटा रही हो!

उसी दौर में साहित्य से मेरा मोहभंग हो चुका था। चाहे वह मुंशी प्रेमचन्द हों, कृशन चन्दर हों, क़ैफी आजमी हों या नामी गिरामी कमलेश्वर, धर्मवीर भारती, हरिवंशराय बच्चन जैसे लोग ही क्यों न हों! उनकी तुलना में स्थापित साहित्यकार जैसे फणीश्वरनाथ रेणु, मुक्तिबोध उन सबसे कुछ अलग जान पड़ते थे। ऐसे ही पृथ्वी राजकपूर और उनका पूरा परिवार जो आज भी सफलता, समृद्धि और ऐश्वर्य की बुलन्दियाँ छू रहा है, समय के उस दौर में बहुत क्रान्तिकारी जान पड़ता था। एक बहुत लम्बी सूची है इन सब कलाकारों और साहित्यकारोंं की, जिन्हें हवा के रुख को और नदी के बहाव की दिशा पहचानने और उसके अनुसार अवसर भुनाने में महारत हासिल थी, फिर भले ही उससे देश और देश की जनता का भविष्य चौपट ही क्यों न हो रहा है। उस समय का, विशेष रूप से 1900 से बाद के अंग्रेजी और उससे पहले के मुग़लों का शासन भी अपनी पूरी ताकत से भारत और भारत की जनता, संस्कृति और सभ्यता को नष्ट करने पर आमादा था। और मैं यह भी मानता हूँ कि हममें से अधिकांश यद्यपि विदेशी शासन के इस निरन्तर दमन और अत्याचारों से अत्यन्त पीड़ित और त्रस्त थे, किन्तु हममें ही कुछ इने-गिने ऐसे भी थे जिन्होंने अपने भारत राष्ट्र की संस्कृति और सभ्यता की रक्षा करते हुए हँसते हँसते हुए अपने प्राणों का बलिदान तक कर दिया। और फिर कुछ ऐसे तथाकथित राष्ट्रवादी थे जिन्हें कांग्रेस में नरम दल में जाना जाता था, जिन्हें भारत को आजाद कराने का श्रेय भी दिया गया। उसी कॉंग्रेस ने जिन्ना और माउन्टबैटन से साँठ-गाँठ कर भारत का विभाजन कराया था। जब तक इस पूरे इतिहास पर हम ध्यान नहीं देंगे, तब तक हमारे संकटों और विपत्तियों का अन्त नहीं हो सकेगा। फिल्में, साहित्य, कला, संगीत, टी वी, इन्टरनेट और इससे जुड़े विभिन्न नेटवर्क आज भी हमें बुरी तरह भ्रमित कर रहे हैं और इस दौर में भी अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति करने के लिए बहुत से लोग ढिठाई और दुष्टतापूर्वक जनता के दरवाजों पर बेकरारी से दस्तक दे रहे हैं। और हम आज भी नहीं समझ पा रहे हैं कि कौन सी दस्तक किसकी है! बंगाल जल रहा है, आसाम, उड़ीसा, और तो और, उन्हें दिल्ली तक अब दूर नहीं दिखाई दे रहा है।

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September 02, 2024

Question / प्रश्न 108

Why do relationships deteriorate?

संबंध क्यों बिगड़ते हैं?

How we can maintain relationships normal and healthy?

संबंधों को सामान्य और स्वस्थ कैसे रखें?

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लगभग हर मनुष्य की तरह हममें से किसी का भी ध्यान शायद ही कभी इस पर जाता होगा कि हम क्या चाहते हैं और हमारी आवश्यकताएँ क्या और कितनी हैं!

फिर उन सब लोगों से हमारे संबंधों का क्या जो हमारी ही तरह हैं, जिनका ध्यान शायद ही कभी इस पर जाता है कि वे वस्तुतः क्या चाहते हैं और उनकी आवश्यकताएँ क्या हैं।

किसी से हमारी कोई अपेक्षा हमारी किसी आवश्यकता से या केवल हमारी इस इच्छा से भी पैदा हो सकती है कि उससे हम कुछ ऐसा चाहने लगते हैं जिसे वह पूरा ही न कर सके या उसे जिस बारे में पता ही न हो!

यदि हमें वास्तव में उससे प्रेम है तो हम अवश्य ही यह भी समझ सकेंगे कि वह हमसे क्या चाहता है, उसकी क्या आवश्यकताएँ हैं जिन्हें कि हम पूरा कर सकते हैं या किन्हीं ज्ञात या अज्ञात कारणों से शायद पूरा कर पाने में असमर्थ हों!

यदि उसे वास्तव में हमसे प्रेम है, तो वह भी अवश्य ही यह समझ सकेगा कि हम उससे क्या चाहते हैं, हमारी क्या आवश्यकताएँ हैं जिन्हें कि वह पूरा कर सकता है या किन्हीं ज्ञात अथवा अज्ञात कारणों से शायद पूरा कर पाने में असमर्थ हो!

जब हम और वह भी जिसके बारे में हमें ऐसा लगता है कि हमारे बीच कोई संबंध है, इस सच्चाई को नहीं देख पाते हैं तो हमारे आपसी संबंधों में दरार आने लगती है और संबंध क्रमशः निराशाजनक और उत्साहहीन होने लगते हैं तब हम बाध्यता, विवशता या दुविधा में फँसे रहते हैं और हममें असंतोष पैदा होने लगता है। समय बीतने के साथ संबंध से हमें अरुचि होने लगती है और उसकी स्मृति भी धुँधली होते होते अंततः पूरी तरह मिट जाती है।

ऐसा न केवल लोगों से हमारे संबंधों के बारे में ही होता है बल्कि वस्तुओं, विचारों, जीवन-मूल्यों, आदर्शों, जीवन के ध्येय के बारे में भी हुआ करता है। फिर हम यह कहते या कि सोचते हैं कि मुझे धर्म, राजनीति, खेल, साहित्य, पत्रकारिता, सामाजिकता आदि से संन्यास लेना चाहिए। और तब तक हमें जीवन में सब कुछ नितान्त अर्थहीन सा प्रतीत होने लग सकता है, तो भी हम कहीं न कहीं 

 "मन लगाने का यत्न" 

करने  लगते है। हम किसी महात्मा, आध्यात्मिक गुरु, मार्गदर्शक, सामाजिक संस्था, किताबों में या सत्संग में समय बिताने का प्रयत्न करने लगते हैं, किन्तु कभी भूल से भी हमारा ध्यान इस प्रश्न पर नहीं जाता कि क्या यह "मैं" नामक वस्तु कोई शरीर-विशेष है, मन या बुद्धि है! हम निरन्तर "मेरा मन", "मेरे विचार", "मेरा जीवन" या "मेरा घर", "मेरे लोग, मेरे मित्र, मेरे शत्रु, मेरे परिजन", "मेरा देश, संस्कृति, धर्म, भाषा" आदि शब्दों का प्रयोग अनवधानता या आदत के अनुसार करते रहते हैं किन्तु क्या मन ही यह सब नहीं कहता! क्या यह मन ही "मैं" है? और क्या यह वाकई मेरा है!

"मैं" और "मेरा" के बीच का यह विभाजन क्या केवल  एक कल्पना ही नहीं है?

शायद इस प्रश्न की ओर हम देखना तक नहीं चाहते, तो हमें यह सूझना तो और भी दूर की बात है। किन्तु जब तक यह हममें कौतूहल या उत्सुकता की तरह भी नहीं उठता, तब तक जीवन से हमारे संबंध में हमारी दुविधा दूर नहीं हो सकती। तब तक जीवन खाली खाली, रिक्त, अनुभव होता रहेगा। मन में जीवन को समाप्त कर देने की प्रबल इच्छा भी उत्पन्न हो सकती है, हम मनोरंजन या किसी नशे के गुलाम भी हो सकते हैं जो वास्तव में हमें केवल और भी अधिक मंदबुद्धि बना देता है।

न केवल एक आम और औसत मनुष्य बल्कि वे सब भी जिन्हें हम सफल और संपन्न, समृद्ध, यशस्वी, ऐश्वर्यवान, महान और लोकप्रिय समझते हैं, उनके जीवन में भी यह खालीपन होता है।  

जीवन सचमुच ही अत्यन्त निष्ठुर है! 

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