The Crises and The Challenges of Our Times.
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भारत के संकट और चुनौतियाँ
दस्तकों का अब किवाड़ों पर असर होगा ज़रूर,
हर हथेली खून से तर और ज्यादा बेक़रार!!
'70 के दशक में स्व. दुष्यन्त कुमार को पढ़ा था।
कैसे एक ही शे'र या साहित्यिक रचना के अर्थ समय, संदर्भ और उसे पढ़नेवाले की मनःस्थिति के अनुसार बदल जाते हैं इसकी कल्पना तक शायद ही न तो उस साहित्यकार या शायर को होती होगी और न उस रचना को पढ़नेवाले उसके किसी पाठक को, यह इसका एक बहुत ज्वलन्त उदाहरण हो सकता है!
जरा कल्पना कीजिए किसी उस लड़की की स्थिति की, जो स्वयं बांग्लादेश की एक ग़ैर मुस्लिम दलित वर्ग की बेटी है, जिसके घर के कमज़ोर किवाड़ों पर गहरी अँधेरी रात में किन्हीं गुंडों या बदमाशों की खटखटाहट हो रही हो, या उस जैसी किसी दूसरी लड़की की स्थिति, जो कि स्वयं इस डर से घर से घबराकर भागकर पड़ोसी के घर जाकर आतुर प्रतीक्षा करते हुए उसके किवाड़ों को जोर जोर से खटखटा रही हो!
उसी दौर में साहित्य से मेरा मोहभंग हो चुका था। चाहे वह मुंशी प्रेमचन्द हों, कृशन चन्दर हों, क़ैफी आजमी हों या नामी गिरामी कमलेश्वर, धर्मवीर भारती, हरिवंशराय बच्चन जैसे लोग ही क्यों न हों! उनकी तुलना में स्थापित साहित्यकार जैसे फणीश्वरनाथ रेणु, मुक्तिबोध उन सबसे कुछ अलग जान पड़ते थे। ऐसे ही पृथ्वी राजकपूर और उनका पूरा परिवार जो आज भी सफलता, समृद्धि और ऐश्वर्य की बुलन्दियाँ छू रहा है, समय के उस दौर में बहुत क्रान्तिकारी जान पड़ता था। एक बहुत लम्बी सूची है इन सब कलाकारों और साहित्यकारोंं की, जिन्हें हवा के रुख को और नदी के बहाव की दिशा पहचानने और उसके अनुसार अवसर भुनाने में महारत हासिल थी, फिर भले ही उससे देश और देश की जनता का भविष्य चौपट ही क्यों न हो रहा है। उस समय का, विशेष रूप से 1900 से बाद के अंग्रेजी और उससे पहले के मुग़लों का शासन भी अपनी पूरी ताकत से भारत और भारत की जनता, संस्कृति और सभ्यता को नष्ट करने पर आमादा था। और मैं यह भी मानता हूँ कि हममें से अधिकांश यद्यपि विदेशी शासन के इस निरन्तर दमन और अत्याचारों से अत्यन्त पीड़ित और त्रस्त थे, किन्तु हममें ही कुछ इने-गिने ऐसे भी थे जिन्होंने अपने भारत राष्ट्र की संस्कृति और सभ्यता की रक्षा करते हुए हँसते हँसते हुए अपने प्राणों का बलिदान तक कर दिया। और फिर कुछ ऐसे तथाकथित राष्ट्रवादी थे जिन्हें कांग्रेस में नरम दल में जाना जाता था, जिन्हें भारत को आजाद कराने का श्रेय भी दिया गया। उसी कॉंग्रेस ने जिन्ना और माउन्टबैटन से साँठ-गाँठ कर भारत का विभाजन कराया था। जब तक इस पूरे इतिहास पर हम ध्यान नहीं देंगे, तब तक हमारे संकटों और विपत्तियों का अन्त नहीं हो सकेगा। फिल्में, साहित्य, कला, संगीत, टी वी, इन्टरनेट और इससे जुड़े विभिन्न नेटवर्क आज भी हमें बुरी तरह भ्रमित कर रहे हैं और इस दौर में भी अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति करने के लिए बहुत से लोग ढिठाई और दुष्टतापूर्वक जनता के दरवाजों पर बेकरारी से दस्तक दे रहे हैं। और हम आज भी नहीं समझ पा रहे हैं कि कौन सी दस्तक किसकी है! बंगाल जल रहा है, आसाम, उड़ीसा, और तो और, उन्हें दिल्ली तक अब दूर नहीं दिखाई दे रहा है।
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