अहं-वृत्ति / अहं-प्रत्यय / अहं-संकल्प / व्यक्तित्व अहंकार / मन
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विश्व अर्थात् इस मृत्यलोक और जगत् के के स्वामी, जो क्रमशः मनु, मनुष्यों और प्राणिमात्र के इन्द्रियबुद्धिगम्य भौतिक संसार पर शासन करते हैं, देवताओं के दैविक संसार स्वर्ग पर शासन करते हैं, सम्पूर्ण समष्टि अस्तित्व का संचालन करनेवाले परमात्मा हैं, उन सबकी यद्यपि अपनी अपनी भूमिका है जिसका वे निर्वाह स्वतंत्र रूप से करते हैं, और वे सभी अपना प्रमाण स्वयं ही होते हैं और मनुष्य अनुमान, बौद्धिक तर्क और निष्कर्ष से उनके अस्तित्व पर संदेह नहीं कर सकता। भौतिक और स्थूल विज्ञान के अन्तर्गत, जहाँ प्रकृति की परिवर्तनशीलता में किन्हीं ऐसे स्थिर नियमों को सैद्धान्तिक और आधारभूत सत्य की तरह खोजने का यत्न किया जाता है, वहाँ उन नियमों की अधिष्ठाता भी किसी विशिष्ट ज्ञान या शक्ति से संपन्न कोई स्वयंसिद्ध एकमेव अद्वितीय सत्ता है यह तो मानना ही होगा। और मनुष्य यह भी मानता है कि दूसरी सभी भौतिक वस्तुओं के बीच निर्जीव और सजीव होने का प्राकृतिक भेद भी इसी प्रकार से स्वयंसिद्ध ही है।तात्पर्य यह कि वैज्ञानिक, जीवन क्या है इसे संतोषप्रद ढंग से परिभाषित तो नहीं कर सकता, किन्तु वह सभी वस्तुओं का वर्गीकरण सजीव अथवा निर्जीव इन दोनों रूपों में करने का प्रयास करता ही है। स्पष्ट है कि किसी जीवित या सजीव मनुष्य के ही द्वारा ऐसा प्रयास किया जाना संभव है। और ऐसा कोई मनुष्य इससे भी नितान्त अनभिज्ञ भी होता है कि क्या इस बुद्धि का कारण और परिणाम भी उसमें विद्यमान जीवन है, या जीवन उससे स्वतंत्र ऐसी कोई सत्ता है जिसे वह "प्रकृति" का नाम दे सकता है! पदार्थ और उसकी कार्यप्रणाली को समझने के प्रयास में वह अकाट्य तर्क और गणितीय मान्यताओं को तात्कालिक रूप से सत्य मानकर उस आधार पर उन सिद्धान्तों की स्थापना करता है जिनकी पुनः पुनः परीक्षा कर वह उन्हें पूर्णतः विश्वसनीय कह सके। अपने जैसे ही अन्य मनुष्यों से चर्चा और विचार विमर्श कर उन्हें वह "विज्ञान" (साइन्स) का नाम देता है, जिस पर वैज्ञानिकों के बीच मतभेद नहीं होता। अतः यह कहा जा सकता है कि प्रकृति इसी विज्ञान के नियमों की अधीनता में रहकर अपना समस्त कार्य करती है। ये नियम परस्पर आश्रित होते हैं। यदि इन विविध प्रतीत होनेवाले विभिन्न नियमों के बीच कोई विषमता / असामंजस्य हो तो विज्ञान की उस आभासी कारणों का पता लगाकर उस विषमता का निराकरण भी कर देता है। किन्तु किसी भी वैज्ञानिक का ध्यान क्या कभी इस प्रश्न पर जाता होगा कि जिस बुद्धि की सहायता से वह यह सारा वैज्ञानिक आकलन करता है, वह बुद्धि उसमें कहाँ से उत्पन्न और जाग्रत होती है? फिर भी वह इतना तो समझ ही सकता है कि यह बुद्धि उसे कहीं से भी प्राप्त क्यों न होती हो, बुद्धि प्रकृति की कार्यप्रणाली की ही एक सूक्ष्म अभिव्यक्ति है, जो उसमें कभी प्रकट और कभी अप्रकट होती रहती है और वह स्वयं बुद्धि के आने या जाने और उसकी कार्यप्रणाली के प्रति सचेतन आधारभूत वास्तविकता है। यह सचेतनता ही बुद्धि से उच्चतर और स्वयंसिद्ध सत्य है, जबकि बुद्धि ऐसा कोई स्वयंसिद्ध स्वप्रमाणित सत्य नहीं हो सकता। पुनः बुद्धि तर्कपरक तथ्य (objective fact) है जबकि सचेतनता एक वस्तुपरक वास्तविकता (subjective Reality) है। बुद्धि ही सचेतनता का विषय है जबकि सचेतनता बुद्धि का विषय कभी नहीं हो सकती।
सचेतन होना (knowing or being conscious of something else other than one-self) ही चेतना (consciousness) और यही संवेदनशीलता (sensitivity / sensibility) भी है जो स्वयं अपने आपको भी जानी गई वस्तु (the known) और उस वस्तु को जाननेवाले (the knower) के बीच वर्गीकृत कर लेती है और इस वर्गीकरण के ही फलस्वरूप चेतना से संबद्ध किसी भी और प्रत्येक शरीर विशेष (living organism) में :
"मैं" / 'स्व' की भावना - (sense of self ); और, अपने से अन्य / 'पर' की भावना - (sense of other than self) उत्स्फूर्त होती है। 'स्व' की भावना कर्तृत्व, भोक्तृत्व, ज्ञातृत्व और स्वामित्व के रूप लेकर व्यक्ति या व्यक्तित्व में परिवर्तित हो जाती है और यही वह निरंकुश शासक भी होता है जो कि भ्रम और अज्ञानवश स्वयं को व्यक्तित्व और व्यक्तित्व का स्वामी एक साथ दोनों मान लेता है। यही मन है, जिसे कभी तो मनुष्य अपने आप की तरह और कभी अपने से भिन्न "मेरा मन" भी कहने लगता है। जिस प्रकार मन, बुद्धि से मोहित होता है उसी प्रकार से बुद्धि भी मन से मोहित हो जाती है। पुनः मोह से ही आसक्ति / या विषयासक्ति का जन्म होता है। आसक्ति का अर्थ है - "मैं / स्व और "मेरा" के बीच की भिन्नता के न देख पाना। और इसीलिए शरीर को तथा शरीर से संबद्ध वस्तुओं और विषयों को भी मोहजनित आसक्तिवश ही "मैं" तथा "मेरा" भी कह दिया जाता है। इसीलिए "मन" ही कभी कभी अत्यन्त व्यथित और त्रस्त हो जाने पर शरीर का ही अन्त कर देने का विचार भी करने लगता है, और उसे लगता है कि शरीर का अन्त होने पर "मैं" भी नहीं रह जाऊँगा। फिर मेरे सभी क्लेश भी समाप्त हो जाएँगे। किन्तु उसका ध्यान शायद कभी इस पर नहीं जा पाता कि "मैं" और मेरा न होने की स्थिति में "मेरे" संसार का क्या होता है!
और न तो किसी भी तर्क से, अनुभव या उदाहरण से वह इस संदेह का निवारण ही कर सकता है। इसका एकमात्र कारण यही है कि उसे सबसे पहले तो अस्तित्व का भान होता है, फिर उस अस्तित्व में और अपने तथा अपने से पृथक् और भिन्न प्रतीत होनेवाले किसी और के अस्तित्व का। अस्तित्व / सत्तामात्र की ऐसी प्रतीति में अपने और अपने से भिन्न का भान साथ साथ ही प्रारंभ और समाप्त होता रहता है और स्मृति के कल्पित सातत्य से ही संदेह उत्पन्न होता है। यह देखना रोचक है कि स्मृति स्वयं ही क्षण क्षण न जाने कहाँ से जाग्रत होकर न जाने कहाँ विलुप्त होती रहती है, जिस पर उसको जाननेवाले और उसको अपना कहनेवाले का कोई अधिकार, नियंत्रण या दावा नहीं हो सकता, जबकि प्रत्येक ही भ्रमवश अपने स्वयं को उसका स्वामी और शासक मान बैठता है और इस वास्तविकता से नितान्त अनभिज्ञ होता है, कि स्मृति ही उस पर शासन कर रही होती है!
स्मृति उसमें उसे प्रतीत होनेवाले सभी अनुभवों के बीच भेद होने की कल्पना से उन सभी अनुभवों की पहचान उत्पन्न कर अपना स्वतंत्र अस्तित्व होने का आभास निर्मित करती है।
स्मृति ही पहचान है और पहचान ही स्मृति है।
क्योंकि एक के अभाव में दूसरी नहीं पाई जाती है।
इसे ही महर्षि पतञ्जलि ने वृत्ति कहा है।
इस प्रकार वृत्ति ही एकमात्र सार्वभौम निरंकुश शासक है, जो चेतना के प्रस्फुटित होते ही
जड जगत / इदं, और चेतन "मैं"/ अहं
के रूप में अभिव्यक्त होता है।
सभी वृत्तियाँ अहं-वृत्ति में और अहं-वृत्ति भी पुनः पुनः विभिन्न प्रकार की दूसरी वृत्तियों में बदलती रहती है। न तो वृत्ति अहं-वृत्ति के अभाव में, और न अहं-वृत्ति ही वृत्ति के अभाव में स्वतंत्र रूप से बनी रह सकती है।
और यह जानना भी महत्वपूर्ण है कि अहं-वृत्ति वृत्तिमात्र के निरुद्ध कर दिए या हो जाने पर भी अस्मिता के रूप में बीज रूप में बनी रहती है। और इसीलिए इन विभिन्न प्रकार की समाधियों से गुजरने के बाद भी मनुष्य अपने आपको उनके अनुभवकर्ता, भोक्ता, स्वामी या साक्षी की तरह स्मरण रखकर अहं-वृत्ति से बँधा रहता है।
पुनः वह स्वयं को अहं-वृत्ति रूपी निरंकुश शासक के रूप में मान्य कर लेता है और इसका रहस्योद्घाटन कर पाना उसके लिए संभव नहीं रह जाता।
इस रहस्य का उद्घाटन केवल तभी हो पाता है जब वह अपने हृदयान्तर में उतरकर / प्रविष्ट होकर इसे खोज ले कि इस अहं-वृत्ति का उदय / जन्म कहाँ से होता है, इसे समझ / खोज ले, इसमें पैठकर निमज्जित हो रहे, या श्वास की गति / प्राणापानगती पर संयम करने के माध्यम से चित्त को निरुद्ध कर सके।
महर्षि श्री रमण ने इस पूरी शिक्षा को संक्षेप में एक ही श्लोक में इस प्रकार से अभिव्यक्त किया है -
हृदयकुहरमध्ये केवलं ब्रह्ममात्रम्
ह्यहमहमिति साक्षादात्मरूपेण भाति।
हृदि विश मनसा स्वं चिन्वता मज्जता वा
पवनचलनरोधादात्मनिष्ठो भव त्वम्।।
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