September 02, 2024

Question / प्रश्न 108

Why do relationships deteriorate?

संबंध क्यों बिगड़ते हैं?

How we can maintain relationships normal and healthy?

संबंधों को सामान्य और स्वस्थ कैसे रखें?

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लगभग हर मनुष्य की तरह हममें से किसी का भी ध्यान शायद ही कभी इस पर जाता होगा कि हम क्या चाहते हैं और हमारी आवश्यकताएँ क्या और कितनी हैं!

फिर उन सब लोगों से हमारे संबंधों का क्या जो हमारी ही तरह हैं, जिनका ध्यान शायद ही कभी इस पर जाता है कि वे वस्तुतः क्या चाहते हैं और उनकी आवश्यकताएँ क्या हैं।

किसी से हमारी कोई अपेक्षा हमारी किसी आवश्यकता से या केवल हमारी इस इच्छा से भी पैदा हो सकती है कि उससे हम कुछ ऐसा चाहने लगते हैं जिसे वह पूरा ही न कर सके या उसे जिस बारे में पता ही न हो!

यदि हमें वास्तव में उससे प्रेम है तो हम अवश्य ही यह भी समझ सकेंगे कि वह हमसे क्या चाहता है, उसकी क्या आवश्यकताएँ हैं जिन्हें कि हम पूरा कर सकते हैं या किन्हीं ज्ञात या अज्ञात कारणों से शायद पूरा कर पाने में असमर्थ हों!

यदि उसे वास्तव में हमसे प्रेम है, तो वह भी अवश्य ही यह समझ सकेगा कि हम उससे क्या चाहते हैं, हमारी क्या आवश्यकताएँ हैं जिन्हें कि वह पूरा कर सकता है या किन्हीं ज्ञात अथवा अज्ञात कारणों से शायद पूरा कर पाने में असमर्थ हो!

जब हम और वह भी जिसके बारे में हमें ऐसा लगता है कि हमारे बीच कोई संबंध है, इस सच्चाई को नहीं देख पाते हैं तो हमारे आपसी संबंधों में दरार आने लगती है और संबंध क्रमशः निराशाजनक और उत्साहहीन होने लगते हैं तब हम बाध्यता, विवशता या दुविधा में फँसे रहते हैं और हममें असंतोष पैदा होने लगता है। समय बीतने के साथ संबंध से हमें अरुचि होने लगती है और उसकी स्मृति भी धुँधली होते होते अंततः पूरी तरह मिट जाती है।

ऐसा न केवल लोगों से हमारे संबंधों के बारे में ही होता है बल्कि वस्तुओं, विचारों, जीवन-मूल्यों, आदर्शों, जीवन के ध्येय के बारे में भी हुआ करता है। फिर हम यह कहते या कि सोचते हैं कि मुझे धर्म, राजनीति, खेल, साहित्य, पत्रकारिता, सामाजिकता आदि से संन्यास लेना चाहिए। और तब तक हमें जीवन में सब कुछ नितान्त अर्थहीन सा प्रतीत होने लग सकता है, तो भी हम कहीं न कहीं 

 "मन लगाने का यत्न" 

करने  लगते है। हम किसी महात्मा, आध्यात्मिक गुरु, मार्गदर्शक, सामाजिक संस्था, किताबों में या सत्संग में समय बिताने का प्रयत्न करने लगते हैं, किन्तु कभी भूल से भी हमारा ध्यान इस प्रश्न पर नहीं जाता कि क्या यह "मैं" नामक वस्तु कोई शरीर-विशेष है, मन या बुद्धि है! हम निरन्तर "मेरा मन", "मेरे विचार", "मेरा जीवन" या "मेरा घर", "मेरे लोग, मेरे मित्र, मेरे शत्रु, मेरे परिजन", "मेरा देश, संस्कृति, धर्म, भाषा" आदि शब्दों का प्रयोग अनवधानता या आदत के अनुसार करते रहते हैं किन्तु क्या मन ही यह सब नहीं कहता! क्या यह मन ही "मैं" है? और क्या यह वाकई मेरा है!

"मैं" और "मेरा" के बीच का यह विभाजन क्या केवल  एक कल्पना ही नहीं है?

शायद इस प्रश्न की ओर हम देखना तक नहीं चाहते, तो हमें यह सूझना तो और भी दूर की बात है। किन्तु जब तक यह हममें कौतूहल या उत्सुकता की तरह भी नहीं उठता, तब तक जीवन से हमारे संबंध में हमारी दुविधा दूर नहीं हो सकती। तब तक जीवन खाली खाली, रिक्त, अनुभव होता रहेगा। मन में जीवन को समाप्त कर देने की प्रबल इच्छा भी उत्पन्न हो सकती है, हम मनोरंजन या किसी नशे के गुलाम भी हो सकते हैं जो वास्तव में हमें केवल और भी अधिक मंदबुद्धि बना देता है।

न केवल एक आम और औसत मनुष्य बल्कि वे सब भी जिन्हें हम सफल और संपन्न, समृद्ध, यशस्वी, ऐश्वर्यवान, महान और लोकप्रिय समझते हैं, उनके जीवन में भी यह खालीपन होता है।  

जीवन सचमुच ही अत्यन्त निष्ठुर है! 

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