कविता : अपनी छाया
(यह कविता पूरी होते होते मुझे
Oscar Wilde
की एक रचना :
"अपनी छाया"
याद आई !
हालाँकि मैंने शायद इस उपन्यास / कहानी / पुस्तक का नाम ही सुना है! याद नहीं आता, इसे मैंने कभी पढ़ा भी है या नहीं!
***
जब से आँख खुली है मेरी,
अब तक ऐसा होता आया,
मेरे पीछे ही लगी रही थी,
खुद मेरी अपनी ही छाया!
मेरी वह थी, या मैं उसका,
कभी इसे मैं समझ न पाया,
कभी उसे अपना कहता था,
और कभी मैं उसे पराया!
जब जब मुझ पर पड़े रोशनी,
तब तब वह मेरे पीछे होती,
जब जब मुझे अन्धेरे मिलते,
तब तब वह गायब हो जाती!
इसी तरह जब त्रस्त हुआ मैं,
आखिर उसको भुला ही दिया,
तब से बहुत सुखी रहता हूँ,
आखिर ऐसा भी दिन आया!
***
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