Question प्रश्न 106
What Is Social Ethics?
Dharma or Religion / Sect?
सामाजिक नैतिकता क्या है?
धर्म या रिलीजन/ पंथ/मजहब/संप्रदाय/समुदाय
Answer उत्तर :
जैसा कि सरलता से समझा जा सकता है -
सामाजिक नैतिकता
प्रत्येक ही प्राणी की वह सामूहिक चेतना; (Collective consciousness)
होती है जिससे प्रेरित होकर वह अपने सामूहिक हितों के लिए अपना सहज नैसर्गिक व्यवहार करता है और अपने समूह के हितों को सर्वोपरि महत्व देता है। उदाहरण के लिए चींटी जैसे क्षुद्र प्राणी से लेकर हाथी जैसे बड़े और विशालकाय प्राणी तक इसी प्रेरणा के अनुसार व्यवहार करते हैं, जो उनमें जन्मजात ही विद्यमान होती है और यही उनका :
स्वाभाविक धर्म / प्रकृति / प्रवृत्ति - (Natural Instinct
होता है, और इससे भी अधिक शक्तिशाली एक प्रवृत्ति और होती है जो है आत्मरक्षा की प्रवृत्ति, जो उसमें भूख, प्यास और भय के रूप में अभिव्यक्त होती है। इसलिए भोजन न मिलने पर भूख से व्याकुल कोई प्राणी कभी कभी अपनी ही संतान को भी मारकर खा जाता है।
इसी अर्थ को व्यक्त करने के लिए कहा जाता है :
अहिंसा परमो धर्मः धर्म हिंसा तथैव च।।
यह तो हुआ पशु-धर्म।
पशुओं में ही एक विशिष्ट कोटि मनुष्यों की है, जो समूह में रहते हैं और अपने अपने समूह विशेष की सामाजिक नैतिकता से बँधे होते हैं। इनके द्वारा विभिन्न वस्तुओं को ध्वन्यात्मक अर्थ दिए जाने से प्राकृत भाषाओं का उद्भव हुआ। मनुष्यों की पुनः तीन कोटियाँ हैं। पहली जो वैसे तो शारीरिक संरचना की दृष्टि से मनुष्यों जैसे जान पड़ते हैं किन्तु सामाजिक और सामूहिक दृष्टि से वे मनुष्यों से बहुत भिन्न हैं। एक रोचक अनुमान यह भी है कि सांख्य दर्शन के संस्थापक आचार्य कपिल का संबंध इसी वर्ग से रहा होगा। "कबीला" शब्द इसी कपिल का cognate / अपभ्रंश / सजात / सज्ञात हो सकता है।
अब पुनः हम मनुष्यों और मनुष्य धर्म की बात पर आएँ। कबीलों की उत्पत्ति के बाद धर्म के वैदिक और अवैदिक परम्परागत प्रकार अस्तित्व में आए। दोनों ऋषि-प्रणीत ही थे। जैसे भृगु, अगस्त्य, गर्ग और जाबाल / जाबालि ऋषियों द्वारा प्रणीत शैव परम्परा और वेदव्यास प्रणीत शुद्धतः वैदिक आर्य परम्परा। भृगु, अगस्त्य, गर्ग (गार्ग्य), अङ्गिरा और जाबाल के सजात / सज्ञात / cognate / अपभ्रंश ही क्रमशः :
Briggit, Augustus, George, Angel Gabriel हैं, यह अनुमान लगाना कठिन नहीं है।
तात्पर्य यह कि इन्हीं ऋषियों ने :
सामाजिक नैतिकता
के इन आधारभूत तत्वों को परिभाषित किया जिसे कि धर्म कहा गया। इसी धर्म को मनुष्य मात्र के लिए :
महर्षि पतञ्जलि ने पाँच सार्वभौम महाव्रतों के रूप में "यम" की संज्ञा प्रदान की।
मनुष्य :- मनुप्रणीत वैदिक धर्म को पुनः मनुष्यमात्र ने अपनी अपनी पात्रता के अनुसार "यति-धर्म" का रूप दिया, जिसमें पाँच महाव्रत :
अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, और अपरिग्रह
पाँच आधारभूत और अपरिहार्य स्तम्भ हैं। जिनका उल्लंघन ही अधर्म या विधर्म है।
इनका पालन करना सभी आश्रमों और वर्णों के मनुष्यों के लिए आवश्यक है।
अहिंसा का अर्थ है प्राणिमात्र से अवैर।
हिंसा का अर्थ है : द्वेष या भय के कारण किसी प्राणी को कष्ट देना। क्योंकि हिंसा को पहचानना सरल है, इसलिए हिंसा के निषेध को इंगित करने के लिए "अहिंसा" शब्द का प्रयोग किया गया।
सत्य का अर्थ इसी प्रकार असत्य के निषेध का सूचक है क्योंकि "सत्य" को सीधे जानना सिद्ध करना अपेक्षाकृत अत्यन्त ही कठिन कार्य है जबकि असत्य की पहचान करना सरल है। हर मनुष्य अपनी अंतःप्रज्ञा से स्वयं ही जानता है कि वह जो कह या सुन रहा है वह सत्य है या नहीं, और स्वयं ही मन, वाणी और कर्म से असत्य-युक्त आचरण करने से बच सकता है।
अस्तेय का तात्पर्य है अ-स्तेय - अर्थात् जिस पर अपना अधिकार नहीं है उस पर आधिपत्य कर लेना, जो चोरी छिपे या धृष्टता और छल-कपट से बलप्रयोग द्वारा किया जाता है। अंग्रेजी भाषा का : "steal" इसी से व्युत्पन्न है। इस पर यहाँ और विस्तार से नहीं।
ब्रह्मचर्य का अर्थ है ब्रह्म जैसी चर्या, आचार विचार और व्यवहार। "ब्रह्म" और "सर्व" समानार्थी शब्द हैं -
अयमात्मा ब्रह्म।।
तथा,
सर्वं खल्विदं ब्रह्म।।
से स्पष्ट है कि "ब्रह्म" संज्ञा कम और सर्वनाम अधिक है। वैसे भी
"तत्त्वमसि"
महावाक्य में "तत्" का प्रयोग "ब्रह्म" के ही अर्थ में है और व्याकरण की दृष्टि से भी "तत्" सर्वनाम पद है।
इन पाँच महाव्रतों में अंतिम है - अपरिग्रह
जिसका अर्थ हुआ अनावश्यक संग्रह का परित्याग और जिसे आवश्यकता हो उसे उस वस्तु का दान कर देना।
ये सभी पाँच महाव्रत यम कहे जाते हैं। और इन्हीं पाँच को धर्मस्तम्भ / धर्मस्कन्ध भी कहा जाता है।
इस विवेचना से यह समझना सरल होगा कि धर्म शब्द मनुष्यमात्र की
सामूहिक सामाजिक नैतिकता
Human collective social and ethical consciousness.
का ही पर्याय है न कि मजहब, संप्रदाय, पन्थ या रिलीजन। और जो भी धर्म से भिन्न या विपरीत है वह और कुछ भी क्यों न हो, धर्म / virtue, कदापि नहीं हो सकता।
एक रोचक सन्दर्भ यह भी हो सकता है कि अंग्रेजी भाषा का human शब्द संस्कृत भाषा के
मनुः / manuH का ही अपभ्रंश है!
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