त्वदीय पादपङ्कजं नमामि देवि नर्मदे।।
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Question / प्रश्न 110
How Ancient Is narmadA?
नर्मदा कितनी प्राचीन है?
Answer / उत्तर :
।।ॐ नमः तत्सद्ब्रह्मणे।।
जिसे हम भौगोलिक अर्थ में एक नदी की तरह जानते हैं, वह नर्मदा नदी अवश्य ही पृथ्वी से अधिक प्राचीन नहीं है, किन्तु जिसे हम पुराणों के माध्यम से जानते हैं उसके स्वरूप की तीन कलाएँ व्यक्त जगत् में दृष्टिगत हो सकती हैं। चूँकि वेद, पुराण, स्मृतियाँ, और षट्-दर्शन भी केवल तीन ही कलाओं से व्यक्त जगत में पाए जाते हैं, इसलिए मनुष्य की अल्प और अपरिष्कृत बुद्धि के लिए उन तीनों प्रकारों / कलाओं / (genres) में विरोधाभास प्रतीत हो सकता है क्योंकि मनुष्य की भौतिक बुद्धि काल की तीन काल की इन कलाओं को समय के अतीत, वर्तमान और आगामी एक-रेखीय आयाम में ही देख सकती है जबकि काल की गति सातों लोकों भूः भुवः स्वः महः जनः तपः और सत्यम् में भिन्न भिन्न है।
पुनः ब्रह्म के भी क्रमशः दो नाम और रूप सकल और निष्कल हैं। सकल ब्रह्म तो ब्रह्मा, विष्णु और शंकर के रूपों में अनन्त-कोटि ब्रह्माण्डों की सृष्टि, परिपालन और लय करता है, जबकि निष्कल केवल निश्चल साक्षी के रूप में कालनिरपेक्ष वास्तविकता है।
काल भी पुनः क्रमशः अचल अटल और चर इन दो रूपों में अपना कार्य करता है। इसे चर रूप की गति भूः, भुवः, स्वः, महः, जनः और तपः इन छः लोकों में तो भिन्न भिन्न हैती है किन्तु सातवें लोक "सत्यम्" में इसका कोई कार्य शेष नहीं रहता।
इसी प्रकार स्वयं ब्रह्मा भी स्वरूपतः कालनिरपेक्ष और कालसापेक्षता इन दो, क्रमशः अव्यक्त और व्यक्त रूपों में सदा प्रकट ही रहते हैं।
ब्रह्म के अनेक और असंख्य व्यक्त प्रकारों में व्यक्त चेतना जीव के रूप में सतत अभिव्यक्त और अभिव्यक्त होती रहती है और इसलिए सापेक्ष दृष्टि से इनमें से प्रत्येक का ही अस्तित्व इन सातों ही लोकों :
क्रमशः भूः, भुवः, स्वः, जनः, महः, तपः और सत्यम् में सार्वकालिक होता है।
पुनः प्रत्येक ही जीव (जो कि अपरिहार्यतः पदार्थ और चेतना का अविभाज्य और संयुक्त रूप होता है) किसी भी समय इन सातों लोकों में अस्तित्वमान होता है और प्रत्येक में ही पुनः चेतना की भिन्न भिन्न प्रकार की चार कलाओं में (जिनमें से प्रत्येक ही शेष तीनों का निषेध करती है), अवस्थित होता है।
ये चार कलाएँ ही चेतना की जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और समाधि अर्थात् तुरीय। और प्रत्येक मनुष्य अनुभव से भी जानता ही है कि किसी भी समय वह इनमें से किसी एक में ही अवस्थित होता है। अर्थात् जब वह जाग्रत होता है, तब स्वप्न अथवा सुषुप्ति में नहीं होता, जब वह स्वप्न देख रहा होता है तब वह न तो जाग्रत और न ही सुषुप्त होता है, और इसी तरह जब वह सुषुप्त होता है तब भी न स्वप्न देख रहा होता है और न ही जाग्रत होता है। संकल्पपूर्वक ध्यान इत्यादि के प्रयासों, दैवी संयोग या प्रारब्धवश वह क्रमशः समाधिस्थ या अचेत भी हो सकता है। इसे तुरीय दशा कहा जाता है।
इसी प्रकार प्रत्येक जीव के रूप में उद्भूत चेतना विशेष (आत्मा) एक ही समय में उपरोक्त सभी सातों लोकों में और किसी एक मानसिक दशा (जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय) अधिष्ठित होती है। भूः भूलोक इन्द्रियगम्य अनुभवों और ज्ञान का लोक है, भुवः - मानसिक लोक है जिसे मनो, बुद्धि, और चित्त के माध्यम से अनुभव किया जाता है अर्थात भुवर्लोक या वह स्थान जहाँ पर प्रत्येक ही जीव प्रारब्ध की गति से नियंत्रित होकर सुख दुःखों आदि का भोग यंत्रवत् किया करता है। स्वर्लोक अर्थात् स्वः या स्वयं और संसार दोनों की युगपत् प्रतीति जहाँ होती है। यही मनुष्यों और सभी जीव जन्तुओं में अपने विशिष्ट होने की कल्पना उत्पन्न होती है। इससे उच्चतर वे लोक हैं जिन्हें महः, तपः और सत्यम् कहा जाता है। जब कोई मनुष्य या उन्नत चेतना किसी महत्वाकांक्षा से प्रेरित होकर कोई असाधारण संकल्प और वैसा कार्य करती है तो वह जिस लोक में होती है उसे महः कहा जाता है जिसका वर्णन गीता के दसवें अध्याय "विभूति योग" में प्राप्त हो सकता है। जनः वह लोक है जिसमें सभी पुण्यवान या पतित जन्म लेते हैं और सहभागिता भी करते हैं। वाल्मीकि रामायण में "जनस्थान" के रूप में इसका बहुत अच्छा उल्लेख है। ब्रह्मा (आब्रह्म) की ही तरह नर्मदा का स्वरूप भी इसी प्रकार कालनिरपेक्ष और कालसापेक्ष तथा इन सभी लोकों में समान रूप से पाया और अपनी पात्रता होने पर अनुभव भी किया जा सकता है।
ब्रह्मा जब विष्णु की नाभि से कमल के पुष्प में अवतीर्ण हुए और अपने चार आननों से चतुर्दिक् देखा तो आश्चर्य और कौतूहल से भर गए। तब उन्हें अपनी सृष्टि होने का भान हुआ और उनमें उस कारण, तत्व और प्रयोजन को जानने की उत्सुकता, उत्कंठा और जिज्ञासा हुई जिससे उनकी सृष्टि हुई। उन्होंने भूः, भुवः और स्वः तक को तो जान लिया था किन्तु इस जिज्ञासुरपि महत्वाकाँक्षा के ही कारण वे महः लोक और तपः लोक से भी परिचित हो गए। सृष्टि होने ही जन्मरूपी जनस्थान या जनः लोक से तो वे प्रारंभ ही से अवगत थे।
तब उन्हें तपःलोक प्राप्त हुआ और वे नर्मदा के सप्तधारा तट पर निवास करते हुए कठोर तप करने लगे। नर्मदा के इस स्थान को इस प्रकार से ब्रह्म कला या ब्रह्मकलाम् / ब्रह्मकलां नाम प्राप्त हुआ और कालान्तर में विरूपित हो जाने से उसे ही बरमन कलान का नाम प्राप्त हुआ।
संक्षेप में, नर्मदा स्वरूपतः तो भगवान् ब्रह्मा से भी पूर्व और प्राचीन समय से है।
संभवतः स्कन्द पुराण के रेवाखण्ड में जिसे नर्मदा पुराण भी कहा जाता है इसका उल्लेख पाया जा सकता है।
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