खुशबुएँ / Scents
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What is Science?
विज्ञान क्या है?
किसी को कहीं से कहीं ले जा सकती हैं, जीवन को बुरी तरह से बरबाद या खुशहाल भी बना सकती हैं।
बदबुएँ शायद ही किसी को अपनी ओर खींच सकती हों, खुशबुओं के आकर्षण से बच पाना हर किसी के लिए आसान नहीं होता। यह तो बहुत बाद में पता चलता है कि कोई खुशबू कितनी ही मोहक क्यों न हो, परिणाम की दृष्टि से वास्तव में भी हमारे लिए हितकर है या नहीं, या कि अत्यन्त ही हानिकर तो नहीं है जो कि अन्ततः तो हमारा सर्वनाश भी कर सकती है।
खासकर किसी समय, स्थान, तिथि विशेष, अमावस्या या पूर्णिमा के दिन। लेकिन शायद ही किसी का ध्यान इस पर कभी जाता है।
यही बात खाने पीने की वस्तुओं पर भी लागू होती है। खाने पीने की कोई भी वस्तु जैसे कि स्वादिष्ट मिठाई या और कुछ भी यद्यपि बहुत सफाई से बनाई गई हो, खाने के कुछ समय बाद ही उसके अच्छे या बुरे प्रभाव का पता चलता है। कभी कभी तो बरसों बाद तक भी पता नहीं चल पाता।
बहरहाल, बात तरह तरह की खुशबुओं की हो रही थी।
बचपन से ही मैं इस मामले में over-sensitive या hyper-sensitive रहा हूँ। पहले मैं स्वयं भी सोचता था कि यह मेरा वहम है, लेकिन कुछ घटनाओं के कारण मुझे इस ओर ध्यान देना पड़ा। पिछली गर्मियों में, और बारिश के दौरान मैं जिस जंगल-हाउस में ठहरा था, वहाँ पर बिजली कभी दो-दो दिनों तक गुल रहती थी, लेकिन बरसात के कीड़े अवश्य ही शाम होते ही कमरे में इकट्ठा हो जाते थे, और तब मोमबत्ती या मोबाइल की लाइट में भी खाना खाना तक दुश्वार हो जाता थ। और इसीलिए मैं सूरज डूबने से पहले ही शाम का भोजन कर लिया करता था। मच्छरदानी को अच्छी तरह से बंद कर उसके भीतर पड़ा रहता था। फिर भी कभी कभी कोई न कोई कीड़ा शरीर पर रेंगता तो उसे पकड़कर बाहर फेंक देता था। प्रायः तो कोई कीड़ा या पतंगा कभी काटता नहीं था लेकिन कुछ कीड़े बहुत बुरी तरह काटते थे जिनकी मुझे पहचान हो गई थी। इसलिए उन्हें पकड़ने के लिए मुझे बहुत सावधानी रखनी होती थी। मैं उन्हें प्लास्टिक की शीशी में बंद कर बाद में बाहर जाकर खुले में छोड़ देता था। सबसे अधिक परेशानी छोटे-बड़े काले कीड़ों से थी जो बहुत बदबूदार होते थे। उन्हें मैं कागज में लपेट लेता था ताकि उनकी बदबू हाथों तक न पहुँच सके। हैरत की बात यह कि ऐसे भी कीड़े थे, जिनसे हल्की सी सुगंध भी आती थी। ये कीड़े बिलकुल किसी पत्ती की तरह चपटे और उसी आकार के होते थे, और यद्यपि वे भी पेड़ की ही तरह बिलकुल हरे, पीले, काले या भूरे भी हो सकते थे लेकिन कभी काटते नहीं थे। इन सभी तरह के कीड़ों से किसी को एलर्जी भी हो सकती है, लेकिन सावधानी से उन्हें छूने से उनसे बचा भी जा सकता है।
तो मैं सोचने लगा कि कोई भी और कैसी भी गन्ध कहाँ से पैदा होती है? गीता में एक सूत्र प्राप्त हुआ -
पुण्यो गन्धः पृथिव्यां ...
यह हमारा दुर्भाग्य और प्रमाद ही था / है कि युगों युगों से जिस सनातन ज्ञान को ऋषियों ने :
तपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः।।
के माध्यम से उद्घाटित किया और उस की परम्परा को और अधिक अनुसंधान से परिपुष्ट और समृद्ध भी किया उसे हमने अपनी निष्क्रियता और आलस्य से विस्मृत कर दिया, इतना ही नहीं विदेशी आक्रान्ताओं ने हमारी बुद्धि को और अधिक मोहित तथा भ्रमित भी कर दिया।
किन्तु अपने अध्ययन और अनुसन्धान से मैंने पाया कि सनातन अर्थात् धर्म का मार्ग सदा से ही ऋषियों अर्थात् सत्य के जिज्ञासुओं को प्रत्यक्षतः दिखाई देता रहा है। और उन्होंने सनातन अर्थात् धर्म के उस मार्ग और उसकी स्मृति को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए उसे जिस भाषा में व्यक्त किया, वह भाषा (संस्कृत) भी उसी तरह चिर नूतन, सनातन, शाश्वत और नित्य है जिसका पुनः पुनः आविष्कार किया जा सकता है, यदि किसी में उपयुक्त जिज्ञासा और उत्कंठा हो।
आधुनिक
Science / विज्ञान की चकाचौंध और आक्रान्ताओं की निरन्तर दासता की मानसिकता से प्रभावित होकर हमारा सतत अधोपतन होता रहा लेकिन सनातन वृक्ष लगभग पूरी तरह से सूख कर नष्टप्राय हो गया। किन्तु उसकी जड़ें हमारी मनोभूमि में गहरी पैठी होने से उसका पुनरुज्जीवित होना अपरिहार्यतः अवश्यंभावी ही है।
Science, Sense, Sentience, इन अंग्रेजी शब्दों की उत्पत्ति संस्कृत भाषा की शस् / शंस् और संश् इन तीनों ही धातुओं से देखी जा सकती है। इसे हम ग्रीक और लैटिन भाषाओं से भी व्युत्पन्न कर सकते हैं। किन्तु वे दोनों भाषाएँ भी संस्कृत के ही भिन्न भिन्न संस्करण हैं इसमें संदेह हो तो इसकी भी परीक्षा की जा सकती है।
ग्रीक शब्द संस्कृत "गिरा" / ग्रृ धातु से निष्पन्न होता है, जिसका प्रयोग गीर्ण, उद्गीर्ण, निगीर्ण, उद्गार आदि शब्दों में दृष्टव्य है। जबकि लैटिन भाषा "ला" धातु से "लाति" के रूप में व्युत्पन्न है। पाणिनी के अष्टाध्यायी के अनुसार "रा दाने, ला प्रदाने" रा और ला धातुएँ कहने और देने के अर्थ में प्रयुक्त होती हैं।
अरबी, फ्रैंच और बहुत सी अन्य भाषाओं में "ला" शब्द का प्रयोग यहीं से है जैसे "अल्" प्रत्याहार जो "इल" तथा "उल्" में भी परिणत हो गया। वाल्मीकि रामायण के उत्तरकाण्ड, सर्ग 87 में इला (संपूर्ण पृथ्वी) के एक महापराक्रमी नरेश
"इल"
का वर्णन है जिसे यक्ष, राक्षस, दैत्य, गंधर्व भी पृथ्वी का एकमेव ईश्वर मानकर जिसकी पूजा और सम्मान करते थे। वह अत्यन्त धार्मिक और महाप्रतापी भी था।
अंग्रेजी भाषा के All, alright आदि भी संस्कृत के इसी प्रत्याहार / अव्यय पद "अलम्" के अपभ्रंश हैं, और इसी अर्थ में ग्रहण किए जाते हैं। "right" उसी प्रकार से संस्कृत शब्द "ऋत्" का पर्याय है जो पुनः "सत्य" का पर्याय है। although भी अलम् तः का प्रचलित रूप है। "Science" इसी तरह "शस्" / "शंक्" / "शंस्" का विस्तार है।
उपरोक्त शीर्षक में दिए गए लिंक को मैंने पूरी तरह से अभी सुना नहीं है क्योंकि अभी ही उस पर दृष्टि पड़ी। एकमात्र दर्शन जो दूसरे शेष दर्शनों से कुछ भिन्न रीति से सत्योद्घाटन के आधार को स्पष्ट करता है तो वह है :
महर्षि पतञ्जलि कृत योग-दर्शन
क्योंकि इसमें "प्रमाण" को भी वृत्ति ही कहा गया है
वृत्तयः पञ्चतय्यः।
क्लिष्टाक्लिष्टा।
प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः।।
तत्र
प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि।।
विपर्ययो मिथ्याज्ञानमतद्रूपप्रतिष्ठम्।।
शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः।।
अभाव-प्रत्यययालम्बना वृत्तिः निद्रा।।
अनुभूतविषयासम्प्रमोषः स्मृतिः।।
इसलिए आज का विज्ञान जो प्रत्यक्ष और अनुमान इन दो प्रमाणों तक सीमित है, विकल्प और विपर्यय से परे "आगम" को छू भी नहीं पाता।
पातञ्जल योगदर्शन में "ईश्वर" को भी परिभाषित किया गया है :
क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेषः ईश्वरः।।
तत्र निरतिशयं सर्वज्ञत्व-बीजम्।।
ईश्वरप्रणिधानाद्वा।।
(समाधिपाद)
यहाँ अनावश्यक विस्तार से नहीं कहा जा रहा है क्योंकि जिनकी रुचि हो वे स्वयं ही उपरोक्त संदर्भों को खोजकर पुष्टि भी कर सकते हैं।
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