October 16, 2024

अगर आप बीमार हैं!

"पहला सुख निरोगी काया"! 

तो सबसे पहले तो आपको यह पता होना चाहिए कि आप बीमार हैं या नहीं, और अगर हैं, तो आपमें 'वह' क्या है जो बीमार है। और वह जो बीमार है, वह बीमार क्यों है!

और आपने कभी न कभी

"सावधानी हटी, और दुर्घटना घटी" 

यह भी पढ़ा या सुना ही होगा!

बीमार होना भी अवश्य ही एक दुर्घटना ही तो है। इसके यूँ तो अनेक ज्ञात या अज्ञात कारण हुआ करते हैं लेकिन सबसे पहला एकमात्र संभव और मूल कारण जो कि हमें पता हो सकता है, वह है अपने अंदर अपने-आपकी कोई पहचान बन जाना और उस पहचान का सतत, निरन्तर बदलते रहना। पहचान बन जाने के बाद अपने आपकी क्रमशः अनेक और भिन्न भिन्न बहुत सी पहचाने / छवियाँ बन जाती हैं, जिनके समूह के रूप में एक ऐसी पहचान भी पुनः पुनः स्थापित होते होते स्मृति में स्थायी की तरह प्रतीत होती है। सुविधा के लिए हम "पहचान" को छवि या प्रतिमा भी कह सकते हैं। उन सबमें अपने आपकी शरीर के रूप में पहचान अवश्य ही सूक्ष्म कल्पना और फिर धारणा की तरह जड़ जमा लेती है और दूसरी सभी बाद में पैदा होनेवाली छवियाँ मानों उस वृक्ष की अनेक शाखाएँ होती हैं जो क्रमशः नई नई जन्म लेती और फिर  किसी समय सूखकर या टूटकर नष्ट भी होती रहती हैं। यह शरीर या तन भी उस वृक्ष का तना ही होता है, जिस पर पुनः 'मन' नामक एक और नई पहचान उभरती है। 'मन' को भी यदि वृक्ष समझा जाए तो 'मन' भी उस वृक्ष का एक तना होता है जिस पर बुद्धि, भावनाएँ, मानसिक प्रतीतियाँ, अनुभव और अंततः 'विचार' नामक अनेक फूल और कलियाँ पल्लवित, प्रस्फुटित और पुष्पित होती रहती हैं।

मनुष्य का सबसे बड़ा दुर्भाग्य यही है कि जाने अनजाने उसने भाषा पर आश्रित 'विचार' नामक क्षणिक आभास की रचना कर ली। 'विचार' विभिन्न शब्दों का समूह होता है जिसका वस्तुपरक भौतिक अर्थ अवश्य हो सकता है, और उस अर्थ के संप्रेषण के लिए शब्द का उपयोग भी निस्संदेह आवश्यक होता है। किन्तु जब किसी भावना या भाव के अर्थ के द्योतक किसी शब्द को संप्रेषण के लिए प्रयुक्त किया जाने लगता है तो वह लक्षितार्थ कभी तो ठीक से संप्रेषित हो पाता है और कभी कभी नहीं हो पाता है। प्रायः सभी भाववाचक संज्ञाओं (abstract nouns) के बारे में ऐसा ही है। क्योंकि भावना या भाव मानसिक अनुभव होता है न कि कोई वस्तुपरक भौतिक इंद्रियग्राह्य विषय (tangible object).

इसीलिए अतीन्द्रिय, अभौतिक (non-physical) और मानसिक अनुभवों का संप्रेषण शब्दों के माध्यम से कर पाना लगभग बहुत कठिन हुआ करता है। किन्तु फिर भी स्थिति इतनी निराशाजनक भी नहीं है। भाषा जितनी ही अधिक विकसित, सुघड़, प्राञ्जल और प्रयोग-आधारित होगी, शब्दों के माध्यम से भावों और भावनाओं और उनके आशय को उतनी ही सरलता से अभिव्यक्त और संप्रेषित भी किया जा सकता है। काव्य और छन्द का यही महत्वपूर्ण पक्ष है।

किन्तु जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है, 'विचार' प्रायः ही भावों और भावनाओं के आशय को विरूपित भी कर सकता है, और तब छल-कपट को सहारा भी देने लगता है। तब शब्द-समूह अर्थात् वाक्य लक्ष्यार्थ, वाच्यार्थ और यथार्थ के बीच असामञ्जस्य का कारण हो जाता है।

उदाहरण के लिए "ईश्वर" विषयक विचार, जो "ईश्वर" शब्द के वाच्यार्थ, लक्ष्यार्थ और यथार्थ से अनभिज्ञ होते हुए भी परस्पर विवाद का कारण बन जाया करता है। तब "ईश्वर" को परिभाषित किए जाने की आवश्यकता पैदा हो जाती है और तब स्थिति और भी अधिक कठिन हो सकती है, बल्कि हो ही जाती है। यदि "ईश्वर" कोई ऐसी इंद्रियग्राह्य वस्तु होता तो विवादों के कोई कारण ही न होते।

अभी "ईश्वर" के स्थान पर "आत्मा" अर्थात् "स्व" के बारे में समझने का प्रयास करें तो प्रत्येक ही स्वीकार करेगा कि "स्व" या "आत्मा" अर्थात् "मैं" के अस्तित्व पर, उस बारे में कभी किसी को कोई संशय हो ही नहीं सकता। क्योंकि ऐसा कोई संशय स्वयं ही ऐसे संशय को नष्ट कर देता है। "स्व", "आत्मा" या "मैं" इसलिए निर्विवाद एक तथ्य है। किन्तु "स्व" / "मैं" के लिए विभिन्न भाषाओं में प्रयुक्त शब्दों के आशय पर किसी को न तो कोई संशय होता है, न भ्रम। और यद्यपि व्यवहार में "स्व" या "मैं" शब्द का उपयोग भी स्वप्रमाणित है, फिर भी इसे न तो परिभाषित किया जा सकता है, और न परिभाषित किए जाने की कहीं कोई आवश्यकता ही है। और फिर भी यह भी इतना ही सत्य है कि हर कोई यद्यपि इस "मैं" शब्द के आशय, वाच्यार्थ और लक्ष्यार्थ से परिचित होते हुए भी उसके यथार्थ से अनभिज्ञ होता है।

"पहला सुख नीरोगी काया"

यह "पहला सुख" स्वयं भी निर्विवाद सत्य है और कोई ऐसा नहीं है जो इसके तात्पर्य से अनभिज्ञ हो सकता है। किन्तु विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या काया अर्थात् यह शरीर ही स्वयं को जानता है? या शरीर को जाननेवाला "मैं" ही शरीर को "मेरा" कहता है और उसके नीरोगी या रुग्ण होने पर सुख होने या न होने के बारे में कहता है? क्या इस "मैं" / "स्व" को जाननेवाला इससे भिन्न और पृथक् कोई दूसरा "मैं" / "स्व" होना संभव है? 

यदि ऐसा है, तो जिसे अंग्रेजी में :

infinite regression,

begging the question,

और संस्कृत में "अनवस्था दोष" कहा जाता है, वह यहाँ उपस्थित हो जाता है। इसलिए "आत्मा" / "मैं" या "स्व" यद्यपि अपरिभाषेय और अनिर्वचनीय है तथापि यही वह है जिसे "काया" की तरह जाना जाता है -

आच्छादयति आत्मानं स्वरूपं या इयं सा छाया वा मीयते यया आत्मनः स्वरूपं सा माया अपि।

सा एव भवव्याधिः।

इसी प्रकार का एक शब्द है "ब्रह्म"। यह भी वैसे तो "ईश्वर" की ही तरह अपरिभाषेय और अनिर्वचनीय है, किन्तु इसे भी इसके लक्षणों से जान पाना अवश्य ही संभव है। इसके लिए इसके लक्षणों को तीन उदाहरणों से स्पष्ट किया जाता है :

"ब्रह्म" में स्वजातीय, विजातीय और स्वगत ये तीनों भेद नहीं पाए जाते। स्वजातीय अर्थात् जैसे आम और खजूर के वृक्ष, वृक्ष की तरह सजातीय होते हैं किन्तु पशुओं या मनुष्यों की जाति से विजातीय होते हैं। इन दोनों प्रकारों के भेद को स्वजातीय और विजातीय भेद कहा जाता है। पुनः एक ही वृक्ष में उसकी पत्तियों, डालियों, फूलों और फलों आदि की रचना भिन्न भिन्न होती है और इन भेदों को वृक्ष में विद्यमान "स्वगत" भेद कहा जाता है। यदि आप ईश्वर, आत्मा या ब्रह्म को नहीं भी जान या समझ पाते तो भी आप इस "मैं" से अनभिज्ञ नहीं हो सकते, और जैसे ही आप इसके स्वरूप को जाने-समझने के लिए अपने आपसे इसकी जिज्ञासा करते हैं तो आपके लिए यह स्पष्ट हो जाता है कि "मैं" (ब्रह्म की ही तरह, उसी प्रकार से) वस्तुतः सजातीय, विजातीय और स्वगत इन तीनों प्रकारों के भेदों से रहित है।

इसका ही महावाक्य के माध्यम से उपदेश देते हुए कहा जाता है -

अहं ब्रह्मास्मि।

इस ब्रह्म के स्वरूप पर काया, छाया और मायारूपी जो आभासी आवरण है उसकी ही प्रशंसा श्रीमद्भगवद्गीता के निम्न श्लोक में की गई है --

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।।

मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।

***




No comments:

Post a Comment