अभ्यास : सालम्ब और निरालम्ब(?)
The Spiritual Enterprise :
Dependent and Independent(?)
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श्रेयो हि ज्ञानं अभ्यासात् ज्ञानात् ध्यानं विशिष्यते।
ध्यानात् कर्मफल-त्यागः त्यागाच्छान्तिः अनन्तरम्।।१२।।
(श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय १२)
किसी भी प्रकार का अभ्यास आवश्यक रूप से और सदैव सालम्ब ही होता है।
अभ्यास से अधिक श्रेयस्कर है ज्ञान, जो केवल बौद्धिक, द्वैत या विषय-परक हो सकता है, या विषयरहित अर्थात् विषयमात्र से रिक्त हो सकता है और उस स्थिति में वृत्ति भी शेष नहीं रह सकती, क्योंकि विषय-विषयी-चेतना के अभाव में वृत्ति का भी अस्तित्व नहीं हो सकता ।
इसीलिए अभ्यास आवश्यक से और सदैव, सालम्ब ही होता है जब विषयी अर्थात् विषयी-चेतना, अर्थात् "मन", चित्त, बुद्धि, अहंकार, किसी न किसी वृत्ति से सारूप्य में होता है।
वृत्तिमात्र के निरुद्ध होने की दशा में न तो वृत्ति और न ही वृत्ति से सारूप्य हो सकता है :
तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम्।।
वृत्तिसारूप्यमितरत्र।।
न तो द्रष्टृत्व वृत्ति है और न ही किसी भी वृत्ति के सक्रिय होने पर द्रष्टृत्व का विषय-विषयी की तरह से विभाजन ही संभव है।
जब तक विषय, विषयी और वृत्ति की गतिविधि के रूप में चित्त किसी आलम्बन पर आश्रित होता है तब तक अभ्यास / ध्यान सालम्ब ही होता है।
उपरोक्त गतिविधि का निरुद्ध हो जाना "योग" है, न कि स्वरूप का दर्शन । इस प्रकार से वृत्ति के निरुद्ध हो जाने को निरोध-परिणाम कहा जाता है। दूसरी ओर, जब अन्य समस्त वृत्तियों को निरुद्ध कर किसी एक ही विषय को चित्त में धारण किया जाता है तो इसे धारणा कहा जाता है -
देशबन्धचित्तस्य धारणा।।१।।
तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम्।।२।।
तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधिः।।३।।
त्रयमेकत्र संयमः।।४।।
(योगसूत्र विभूतिपाद)
मन या चित्तवृत्ति ही निरोध-परिणाम, एकाग्रता-परिणाम और समाधि-परिणाम से प्रभावित होती है।
यह सब सालम्ब प्रयास से होता है।
इसलिए ध्यान या अभ्यास नहीं, ज्ञान ही सालम्ब या निरालम्ब होता है,
अभ्यास कर्म (द्वैत) है जबकि ज्ञान (अद्वैत) का कर्म से कोई संबंध ही नहीं है -
दूरेण हि अवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय।।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः।।४९।।
(श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय २)
इसलिए निष्काम कर्म, या कर्म और कर्मफल को ईश्वर को समर्पित कर देना ही कर्म करते हुए चित्त की शान्ति का एकमात्र उपाय है। दूसरा कुछ कठिन उपाय है कर्म-मात्र में कर्तृत्व-बुद्धि का त्याग "हो जाना"। यही सांख्य योग है। इस प्रकार के उपाय में मन किसी भी आश्रय का आलम्बन नहीं लेता और यही "मनोनाश" भी है, जबकि योग का साधन करने में केवल बारम्बार मनोलय होता है, न कि पूर्ण ज्ञान। पूर्ण ज्ञान "कैवल्य ज्ञान" है, जिसका उल्लेख "कैवल्यपाद" के क्रमांक ३०,३१, ३२,३३ और ३४ सूत्रों में है।
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