November 28, 2024

The Communication Gap.

And The Generation Gap.

मुझे याद है कि मेरे पिताजी अकसर मुझसे दो बातें कहा करते थे :

खग ही जाने खग की भाषा!

और, 

कोऊ काहू में मगन, कोऊ काहू में मगन!

यह दुनिया और दुनिया के लोगों पर उनकी अंतिम और स्थायी टिप्पणी होती थी। पता नहीं वे निराश होकर ऐसा कहते थे, या दुनिया और दुनिया के लोगों के प्रति व्यंग्य करुणा या उपहास की भावना के कारण कहते थे।

उनके इन सारगर्भित शब्दों का तात्पर्य अब मुझे अनुभव होने लगा है। मुझे लगता है, दुनिया और दुनिया के लोगों की हालत देखकर किसी भी संवेदनशील मनुष्य के लिए  इन दोनों वाक्यों में छिपे इस सत्य को देख पाना जरा भी मुश्किल नहीं है। हर मनुष्य अपने निज संसार में ही उस संसार को अनुभव करता है जिसे कि हम सबकी दुनिया कहा जाता है। इस छोटे से अपने निज संसार में ही यह  बहुत बड़ी दुनिया जो केवल विचार के ही अंतर्गत प्रतीत  होती है, और फिर भी वह अपने छोटे से संसार पर इस तरह हावी हो जाती है कि निजता और निजता की ओर से आँखें बन्द हो जाती हैं, अपनी सहज स्वाभाविक और सनातन अस्मिता, निजता और नित्यता विस्मृतप्राय हो जाती है। यह हमारी अत्यन्त और सबसे मूल्यवान संपत्ति है, किन्तु संसार / दुनिया के प्रति अपनी सतत बदलती धारणाओं से ग्रस्त मन का ध्यान कभी इस ओर नहीं जा पाता।

कोऊ काहू में मगन, कोऊ काहू में मगन,

और,

खग ही जाने खग की भाषा!

के रहस्य को समझने, जानने-बूझने के लिए उत्कंठित  मन को कभी अपरिमेय चिन्ता से छुटकारा नहीं मिलता! और वैसे भी शायद ही कभी इस ओर किसी के मन में कोई रुचि पैदा होती है!

जीवन संध्या आने तक भी बिरला ही कोई इस रहस्य को बूझकर चिन्ताओं से मुक्त होता होगा!

***

 

No comments:

Post a Comment