December 09, 2024

What Is Philosophy?

Question प्रश्न  115

Thought and Thinking

विचार और वैचारिकता

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उपरोक्त दोनों लिंक्स इस प्रश्न के परिप्रेक्ष्य में महत्वपूर्ण हैं। भारतीय आध्यात्मिक परंपरा का आधार दर्शन  है,  न कि विचार या वैचारिकता।विचार Thought और वैचारिकता Thinking,  मस्तिष्क की बुद्धि (Intellect, memory,  Information) स्मृति पर आश्रित गतिविधि है, जो वृत्ति का ही प्रकार होने से अपनी ही सीमा में बद्ध होती है। जबकि चेतस्  consciousness / चेतना उसके लिए ऐसा  अनवगम्य / अकल्पनीय अनाकलनीय क्षेत्र है जिसे अज्ञेय, अनिर्वचनीय कहा जा सकता है। जिसके बातें श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार :

यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति।।

तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च।।५२।।

श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला।।

समाधावचला बुद्धिस्तथा योगमवाप्स्यसि।।५३।।

(अध्याय २)

अद्वैत वेदान्त में ऐसे मन-बुद्धि से परे के ज्ञान की प्राप्ति के लिए निम्न छः उपाय हैं :

प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, अर्थापत्ति, अनुपलब्धि और शब्द ।  प्रमाण या ऐसे मन-बुद्धि से परे के ज्ञान की प्राप्ति के अध्ययन को "न्याय-दर्शन" कहते हैं।

इनमें से प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम को पतञ्जलि मुनि ने सम्मिलित रूप से "प्रमाण" अर्थात् "वृत्ति" के अन्तर्गत रखा है :

प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि।। 

वहीं,

विपर्ययो मिथ्याज्ञानमतद्रूपप्रतिष्ठम्।।

और, 

शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः।।

अनुभूतविषयासम्प्रमोषः वृत्तिः स्मृतिः।।

अभाव-प्रत्यययालम्बना वृत्तिः निद्रा।। 

इन पाँच को वृत्ति कहा है जबकि 

योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः।। 

मेंधी पाँचों के निरोध को "योग" कहा है।

जिसे आधुनिक पश्चिमी विचारक Philosophy   कहते हैं, उसे उपरोक्त पाँच वृत्तियों में से विपर्यय और / या विकल्प के अन्तर्गत रखा जा सकता है। 

यह है  - Philosophy !

न्याय, योग और वेदान्त-दर्शन के उपरोक्त छः उपायों के आधार पर इसी तर्कसंगत युक्ति 

Rational Approach Reasoning

से उस एकमेव अद्वितीय सत्य की उपलब्धि की जाती है जिसे ब्रह्मन्, सांख्य-ज्ञान या कैवल्य भी कहा जाता है।

और एक और भी अधिक रोचक और विस्मयकारी तथ्य यह भी है कि इसी आधार पर चूँकि आधुनिकतम विज्ञान और गणित भी मूलतः विपर्यय तथा विकल्प के प्रकार ही हैं अतः उनकी विश्वसनीयता भी संदिग्ध ही है! और चूँकि ब्रह्म / ब्रह्मन् और  आत्मा / आत्मन्  एक ही वस्तु के दो नाम मात्र हैं, इसे मन, बुद्धि और ज्ञान के किसी भी अन्य माध्यम से नहीं जाना जा सकता है।

इसे ही अपरोक्षानुभूति  भी कहा जाता है।

स्थितप्रज्ञस्य की इस अवस्था को केवल इसके लक्षणों से ही पहचाना जा सकता है -

अर्जुन पूछते हैं -

स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव।। 

स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम्।।५४।।

और तब भगवान् श्रीकृष्ण उन्हें इस प्रश्न का उत्तर देते हैं।

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