(उन दिनों -34 में नलिनी द्वारा सुनाई गयी कविता :
-नवम्बर,10, 2009)
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'विस्मय' मेरा गुरु था,
उसने मुझे 'मौन-दीक्षा' दी ।
उसने ही सिखाया कि मैं कुछ नहीं जानती ।
और यह 'कुछ-न-जानना' ही,
-'जानने' को 'जानना' है,
-'जानने' का 'जानना' है ।
'जानना' ही अपने-आप को जानता है ,
लेकिन नि:शब्द ही !
'जानना' 'जानने' को 'जानता' है,
-लेकिन उसकी कोई 'स्मृति' नहीं बनती ।
तब मन खंडित नहीं होता ।
लेकिन 'अब' वह खंडित है ।
(क्योंकि)
अपने-आपसे टूटकर,
कब कोई जुड़ सका है,
-किसी से !
जब देखती हूँ,
पेड़ से गिरा कोई पत्ता,
अपना वजूद याद आता है ।
मैं टूटकर भी कहाँ टूटी ?
पूरा पेड़ है,
-मेरे जैसा ।
पत्ता टूटने से पेड़ कहाँ टूटा ?
और वास्तव में,
पत्ता भी कहाँ टूटा ?
मेरा वजूद तो है अब भी साबुत !
देखते नहीं तुम,
रात के अँधेरे में,
ज्योत्स्ना की गोद में सोया हुआ मुझको ?
और पुन: सुबह के सूरज को,
मुझ पर अपना सोना (*) लुटाते ?
और धरती को मुझको ,
'अपने' आँचल में छिपाते,
जहां से फिर लौटूँगा मैं,
-कल-परसों !
वही, जो अभी-अभी पेड़ से झरकर गिरा है,
पीला, पूरा,
और अक्षुण्ण,
-सौन्दर्य में, ताजगी में, रंग में !
क्या वे सब कभी टूटते हैं ?
यदि तुम सोचते हो कि मैं एक पत्ता हूँ,
तो ज़रूर मैं एक पत्ता ही तो हूँ !
पर वृक्ष भी तो हूँ मैं !
-हवाएँ, और रौशनी भी तो हूँ मैं,
सूरज धरती, और चन्दा, आकाश भी तो हूँ मैं !
-मैं नहीं टूटती !!
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(उक्त कविता पुन: पोस्ट करने का एक कारण तो यह था कि यह 'उन दिनों -५४' के सन्दर्भ में और अधिक सार्थक लगती है । दूसरा यह कि इसे 'कविता' के अंतर्गत भी पृथक से पढ़ा जा सके ।
संशोधित और संपादित :
24-02-2009.
(*)सोना = धूप
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February 24, 2010
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