~~~~~~~~~ उन दिनों -55~~~~~~~~~~
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बिटिया की शादी में वे नहीं आये थे । लेकिन उसके दो हफ्ते बाद एक बार आये थे, तब उनका रिटायरमेंट होने में कुछ माह या हफ्ते शेष थे । उनके न आने से दु:खी या नाराज होने का सवाल ही नहीं था । फिर भी जब पंद्रह दिनों बाद आये थे तो सारे गिले-शिकवे दूर हो गए थे । बिटिया भी कुछ दिन ससुराल में बिताकर कुछ दिनों के लिए आई ही थी । उसकी शादी के समय बेटा भी बस चार-पाँच दिनों के लिए आया था, -शादी के तीसरे ही दिन बेटा-बहू राउरकेला वापस चले गए थे ।
वे दूसरे दिन थे । उन दिनों का ज़िक्र संक्षेप में यही कि जैसे किसी घर में कन्या का ब्याह होनेवाला होता है, तो जैसी स्थिति होती है, कुछ वैसा ही माहौल था उन दिनों । लेकिन घर पर न तो 'लाउड-स्पीकर' लगाए थे, न बैंड-बाजे काकोई प्रावधान था । शादी के लिए एक मैरिज-हॉल बुक करा लिया था, और वहाँ ज़रूर इन दोनों का इंतज़ाम था । घर पर न सिर्फ रंग-रोगन, और साफ-सफाई हो गयी थी, बल्कि मानों साल भर पहले ही से दैवयोग से ऊपर दो कमरे लैट-बाथ और एक छोटा सा किचन भी बन गया था । पता नहीं क्यों ? शायद 'उसका' आग्रह था इसलिए । आज वह नहीं है, बच्चे अपने-अपने स्थानों पर अपनी-अपनी गृहस्थी में व्यस्त हो गए हैं, तो अब यह घर 'आश्रम' बना हुआ है । क्या इसीलिये 'उसे' ऊपरवाले ने बुला लिया ?
'आश्रम?'
'तो क्या अगर वह होती तो घर आश्रम नहीं बन सकता था ?'
विचारों की धारा अचानक रुक गयी । मन छोटे बच्चे सा होता है , उसे जिद होती है, और वह जिद बड़ी कठिन होती है, -'बालहठ' कहते हैं जिसे । लेकिन पलक झपकते ही उसे कोई दूसरी चीज़, -कोई चिड़िया, कोई आवाज़, कोई फूल या कोई आहट, लुभा लेती है, तो वह अपनी जिद भूल भी जाता है ।
लेकिन अब 'सर' के लिए इतनी अच्छी व्यवस्था तो हो गयी ! यदि वह होती तो रवि, अविज्नान भी शायद ही यहाँ रहते ।
तब घर में कौन आता या जाता था, इसे समझना या याद रखना मुश्किल था, लेकिन शादी के हफ्ते भर बाद ही सन्नाटा छा गया था । हाँ, पुष्पा (उसकी छोटी बहन) ज़रूर रह गयी थी । वह वैसे भी यहाँ से जाना नहीं चाहती थी । उसे उसके ससुराल में कोई ख़ास परेशानी थी शायद, तो साल भर में बमुश्किल एक-दो महीने वहाँ रहती थी, बाकी समय उसकी नौकरी के बहाने दूसरे शहर में रहने लगी थी । सभी जानते थे । और बड़ी बहन से उसका लगाव जगजाहिर था, सो मैं भी 'बदनाम' था । और इसलिए मैं नहीं चाहता था कि वह मेरे घर ज़्यादा आए-जाए । लेकिन शिकायत हम 'तीनों' को दुनिया से थी । यह ठीक है कि पुष्पा से मुझे भी बहुत स्नेह था, लेकिन उसके निजी जीवन में मेरी कोई रुचि नहीं थी । एक कारण शायद यह था कि पुष्पा और उसके पति के बीच हमेशा झगड़े की कोई न कोई वज़ह बन जाती थी, और जब सुलह के लिए दोनों मेरे पास आते, तो मेरी बात से उन दोनों को कोई तसल्ली नहीं हो पाती थी ।
लेकिन 'सर' के आने के बाद पुष्पा को मेरे यहाँ आने की मानों और एक सार्थक वजह मिल गयी । पुष्पा बहुत पढ़ी-लिखी है, 'साहित्य' से उसका बहुत सरोकार था, और यह एक वज़ह थी शायद, जिसके कारण भी उससे मेरी मैत्री थी,हम दोनों ही प्राय: किसी न किसी साहित्यिक रचना पर आपस में चर्चा करते । जबकि उसके पति का तो साहित्य से कोई लेना-देना ही नहीं था । वह अपने दफ्तर में सरकारी टेंडरों की व्यवस्था में डूबा रहता था । और ज़ाहिर है कि उसके साथ के लोग वही थे, जो ज़माने के साथ चल सकते थे । उसे 'खाने-पीने' से कोई परहेज़ नहीं था, और पुष्पा की उसके पति से अनबन की सबसे बड़ी वज़ह तो यही थी । 'आर्थिक'-दृष्टि से दोनों खूब कमाते थे, लेकिन पुष्पा का पति जहाँ अनाप-शनाप कमाई कर रहा था, वहीं पुष्पा बस अपनी कोरी तनख्वाह में भी प्रसन्नथी । ऐसा नहीं कि उसे पैसे का आकर्षण लुभाता नहीं था, लेकिन वह साफ़-सुथरी कमाई से जो हो सके, उसमें ही संतुष्ट थी । पति की दो-नंबरी आमदनी से वह कभी एक पैसा तक नहीं लेती थी । पति की दृष्टि में उसके भीतर एक 'holier than thou' किस्म का 'दर्प' था । ऐसा वह कहता भी था ।
उसे उम्मीद थी कि 'सर' के सान्निध्य में वह साहित्यिक चर्चाएँ कर सकेगी, और इसलिए उसने अपनी छुट्टी बढ़ा ली थी ।
पुष्पा और वह, दोनों ही 'सर' का खूब ध्यान रखते । लेकिन पुष्पा का यह भ्रम जल्दी ही दूर हो गया कि वह 'सर' को साहित्यिक-चर्चाओं में खींच सकेगी । वह नाराज़ तो नहीं, लेकिन कुछ दु:खी ज़रूर हो गयी । मुझे कभी पहले ऐसा ही भ्रम हुआ था ।
फुर्सत में हम तीनों ही थे । और उत्साह से भरे-भरे भी । नहीं, फुर्सत का मतलब यह नहीं था कि अब खालीपन को भरने के लिए हमारे पास 'गॉसिप' करने के लिए संभावनाएँ बन रहीं हों । 'ऊब' से भागने के लिए, कोई 'प्रतिष्ठित' माध्यम मिल गया हो ।
हम, या कहें -मैं, 'ऊब' से वाकिफ था, / हूँ । शायद आप भी होंगे ही । कौन है, जो ऊब से वाकिफ नहीं होता ? हमें ऐसा लगता है । लेकिन अगर सचमुच हम उससे वाकिफ होते तो उससे दोस्ती कर सकते थे । नहीं, शायद हम उससे वाकिफ तो नहीं होते हैं लेकिन डरते ज़रूर हैं । क्या हमने कभी यह समझने की कोशिश की कि हम आख़िर ऊबते क्यों हैं ? -यह भी कोई सवाल हुआ ? नहीं, हम ऊब की शकल तक नहीं देखना चाहते ।
"आप रिटायर हो गए ? "
'सर' ने पूछा था ।
"हाँ । "
"बिटिया की शादी भी हो गयी । "
"जी ।"
"मकान बन गया ? "
"हाँ, पिछले वर्ष ख़याल आया था, पी-ऍफ़ और ग्रेच्यूटी मिली थी, एल-आई-सी का पैसा भी मिला था । कुछ लोन था पुराना, उसे भी निपटा दिया, और एक-दो कमरे ऊपर बनवा लिए । "
"और बेटा ?"
"वह राउरकेला में है, उसकी और बहू की भी नौकरी है वहाँ । दोनों व्यस्त हैं, खुश भी हैं । "
मैं सूचना देता हूँ ।
"अब क्या सोचते हैं ?"
कुछ ख़ास नहीं, बेटा कहता है कि कुछ दिन हम उसके साथ रहें । एक बार गए भी थे, लेकिन बमुश्किल हफ्ते भर में ही लौट आए। हफ्ता भर काटना मुश्किल था । खूब आराम था, लेकिन मन नहीं लगता था । ऊब गए थे वहाँ । "
"..."
"अब सोचता हूँ कि कुछ एन्जॉय करूँ, फिर कुछ ऐसे अधूरे काम भी हैं जिन्हें पूरा करना है ।"
मुझे टांड पर मेरी कलम की स्याही के कर्मकांड से अपनी 'मुक्ति' की आशा लगाए, इंतज़ार कर रही उन प्रेतात्माओं की याद आई ।
"-कुछ साहित्य पढ़ना है, लिखना भी है, ..."
-मैंने उत्साह से कहा ।
वे निर्निमेष दीवार पर टँगे 'नईदुनिया' के केलेंडर पर 'विष्णु चिंचालकर' के चित्रों को देख रहे थे ।
वे अविज्नान की भाँति 'कहीं-और' नहीं थे । वे मुझे सुन रहे थे ।
"मान लीजिये कि आप शरीर से दस-बीस साल और ठीकठाक रहेंगे , लेकिन, .... "
-धीमे स्वरों में बोलते बोलते वे रुक से गए ।
मैं भी चुप हो रहा । क्षण भर पहले छलकता उत्साह अचानक ठिठक गया ।
"मान लीजिये कि आपका बी पी नॉर्मल है, शुगर, हार्ट, ... सब बढ़िया है, लेकिन जीवन की कोई भी घटना आपकी इस सुखद स्थिति को पलक झपकते छिन्न-भिन्न कर सकती है । "
वे अब भी उस महिला को देख रहे थे, जो केलेंडर से बाहर झाँक रही थी । उसका चेहरा एक बड़ी राजनीतिक नेत्री से इतना अधिक मिलता जुलता था, कि पहली नज़र में ही आप उसे पहचान सकते थे । और थोड़ा ध्यान से देखते ही आपको पता चल जाता था कि वह चेहरा नहीं, घास-फूस और कपड़े की चिन्दियों से बनी एक आकृति भर है, जिसमें कोई रंग तक इस्तेमाल नहीं किया गया है । मुझे याद आया कि श्री चिंचालकर के घर पर जब मैं वर्ष 1970में पिताजी के साथ गया था तो ऐसी अनेकों कलाकृतियाँ देखीं थीं मैंने !
अब वह महिला वहाँ कहीं नहीं थी । फिर मुझे वर्ष १९८४ याद आया । वहाँ थी घास-फूस, और शायद एक दो छोटी-बड़ी पतली मोटी, 'स्केच' की हुई चंद लकीरें ।
"हाँ, लेकिन इस बारे में सोचने से क्या होगा ?"
"क्या न सोचने से ज़िंदगी अपना रास्ता बदल लेगी ?"
मैं सुनता रहा । मुझे उनकी बात समझ में नहीं आई ।
"सॉरी, मैंने आपको डिस्टर्ब कर दिया । "
वे शांत भाव से बोले ।
"नहीं, आप ठीक कहते हैं, "
-मैंने अपेक्षाभाव से उनकी ओर देखते हुए उनसे कहा ।
कोई पाँच मिनटों तक हम दोनों के बीच एक मौन ठिठका रहा । तब न ऊब थी, न इंतज़ार, बस एक उत्कंठा ज़रूर थी, -यह जानने की कि वे आगे मुझे 'कहाँ' ले जाएँगे !
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>>>>>>>> उन दिनों -56 >>>>>>>>
February 28, 2010
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