~~~~~ उन दिनों -47. ~~~~~
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शाम हो चली थी ।
शेल्फ की ऊपरी सतह पर एक चमकदार कपड़ा या चादर सी बिछी हुई थी जिस पर एक बड़ी, महंगी और कलात्मक फ्रेम में मढ़ा हुआ एक फोटोग्राफ था । 'ब्लेक एंड व्हाईट' वह फोटोग्राफ किसी नवयुवक का था, जो शायद मुश्किल से बीस वर्ष का रहा होगा । उन्होंने आहिस्ता से अल शेल्फ के ऊपरी हिस्से से उस फोटोग्राफ को निकाला, पास ही रखे एक रूमालनुमा कपड़े से उसे साफ़ किया, हालाँकि वह पहले से ही साफ़-सुथरा था, फिर उसे वापस उसी स्थान पर रख दिया,जहाँ से उसे उठाया था । फिर उन्होंने पास के दूसरे शेल्फ के ऊपर रखी अगरबत्ती का पैकेट उठाया, उसमें से दो अगरबत्तियाँ निकालीं और उन्हें जलाकर उस फोटोग्राफ के चारों ओर घुमाया, जैसा कि लोग मंदिर में या घर में देवता को धूप दिखलाते हैं । इस बीच उनकी पत्नी और बेटी जो कहीं गए हुए थे, आ चुके थे । उन्होंने भी इस छोटे से अनुष्ठान में भाग लिया था, और हाथ जोड़कर खड़े रहे थे । फिर उनकी पत्नी ने उस फोटोग्राफ के सर पर आशीष देने की तरह से अपना हाथ रखा । बेटी ने सर झुकाकर उसके समक्ष प्रणाम किया, और फिर वे दोनों वहाँ से चुपचाप चले गए । उन्होंने शेल्फ बंद कर दी थी ।
शेल्फ बंद कर उन्होंने बत्ती जलाए । नहीं, मर्करी नहीं बल्कि वह लैम्प -शेड जिससे प्रकाश का फैलता हुआ वृत्त का एक पुंज उस फोटो पर दूर से पड़ता था । इसके पूर्व किसी ने कमरे की मर्करी का स्विच ऑफ कर दिया था । शायद उनकी पत्नी या बेटी ने ।
अब कमरे में अन्धकार था । मद्धम रौशनी का एक घेरा बस उस फोटो के इर्द-गिर्द था, और शेष कमरे में उससे भी बहुत कम रौशनी थी ।
वे उस सोफा-चेयर पर बैठ गए जहाँ पहले मैं बैठा हुआ था ।
"आप प्लीज़ उधर बैठ जाइए, थोड़ी देर के लिए । "
-उन्होंने मुझसे निवेदन किया ।
मैं दूसरी सोफा-चेयर पर बैठ गया था ।
अगरबत्ती का धुआँ गोल दायरे में ऊपर जाता दिखलाई देता था । अचानक ही दायरे की बाएँ दिशा से आता हुआ रौशनी में 'प्रकट' होता, और फिर दायरे के शिखर से होकर विलीन हो जाता । पहली बार में उसकी सुगंध कैसी है यह पता नहीं चलता था । शायद गूगल और जंगली वनास्पत्यों की मिली-जुली महक थी वह । शांत, थोड़ी उदास सी, लेकिन बहुत हल्की । धूप से मिलती जुलती सी ।
वे आँखें बंद कर दोनों बाँहों को सर के पीछे मोड़कर, सोफे की पीठ से सिर टिकाकर बैठे थे । बमुश्किल दो मिनट बाद उन्होंने आँखें खोल दी थीं, और एक गहरा निश्वास लिया ।
"एक ज़माना था जब मैं बहुत पढ़ता था । जिसे कहते हैं किताबी कीड़ा, मैं वैसा ही कुछ था । "
-वे अतीत में चले गए थे ।
>>>>>> उन दिनों -48. >>>>>>>
February 11, 2010
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