February 03, 2010

उन दिनों -44..

~~~~ उन दिनों -44. ~~~~~
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उस समय मुझे जो अनुभूति हुई, यदि उसे अविज्नान के शब्दों में कहूँ, तो उसका वर्णन करने के लिए मेरे पास कोई शब्द नहीं हैं । उपयुक्त शब्दों के अभाव में ही मैं उसे 'अनुभव' कह रहा हूँ । लेकिन अनुभव तो 'आने-जानेवाली' चीज़ हुआ करता है, 'समय' से जुड़ा, दूसरे 'अनुभवों' की तुलना में यह 'अनुभव' ऐसा था, जहाँ 'अनुभव' की गयी 'वस्तु' या 'अहसास', अनुभव करनेवाला 'व्यक्ति-विशेष', और 'अनुभव होना' नितांत अनुपस्थित थे । सामान्य 'अनुभव' में ये तीनों एक दूसरे से अलग होते हैं, और फिर 'स्मृति' उन्हें परस्पर जोड़कर किसी अनुभव-विशेष के 'मेरे' होने का विचार पैदा करती है । लेकिन यह 'मैं' ही जब नहीं होता, तो स्मृति का सातत्य ही कहाँ बचता है ? फिर उस 'अनुभव' की पहचान भी कहाँ हो सकती है ? जिसकी 'पहचान' नहीं हो सकती, उसे स्मृति भला कैसे अपने खाते में दर्ज कर सकेगी ? लेकिन उसे 'जाना जाने' का, और उसकी अवस्थिति 'होने' का तथ्य तो यथावत बरकरार रहता ही है न ?
उसे मैं 'समाधि' का नाम नहीं दे सकता ।
यह सब तो मैं अब लिख रहा हूँ । 'सर' के निकट बैठे-बैठे किसी मौन लोक की यह यात्रा अप्रत्याशित थी । यह कोई संमोहन, नशा, सपना, या खयाली उड़ान, 'फैंसी' नहीं थी । पता नहीं, कितने समय तक वह मौन भीतर-बाहर उमड़ता रहा था । स्वच्छ पानी की एक लहर की भाँति अकस्मात् और बेआवाज चला आया था, और 'विचार' और कल्पना की सारी धूल मिट्टी एक झटके में मुझसे बाहर खींच ले गया था । और 'विचार' और कल्पना के अभाव में 'समय' कैसे टिक सकता था ? वहाँ 'समय' के साथ-साथ 'स्थान' भी दृष्टि से परे चला गया था, या कहें कि वे दोनों उस मौन में खोकर मिट चुके थे । मैं न तो स्वप्न देख रहा था, न 'सो ' रहा था । और सच ! वहाँ यह 'मैं' भी एकदम अनुपस्थित था । फिर भी, अचानक जब 'सर' की दृष्टि से मेरी दृष्टि मिली, तो 'मैं' लौट आया था । जैसे रवि 'अविज्नान' के बारे में कहता है, कि वह 'कहीं और' है, या, 'लौट आया है', कुछ वैसा ही प्रसंग मेरे साथ घटा था । 'मैं' लौटा, और अपने पुराने रूप में, 'सर' के सामने 'कौस्तुभ वाजपेयी' की तरह बैठा था ।
"आपके घर में बगीचे के लिए कितनी जगह है ?"
-वे पूछ रहे थे ।
"जी ? "
-मैंने थोड़ा चौंककर कहा ।
"यहाँ बिटिया को शौक है, उसने अपना छोटा सा बगीचा लगा रखा है । आप देख रहे हैं न ! पहले यहाँ सिर्फ एक गमला था । -तुलसी का, फिर गुलाब आये, फिर जूही, मोगरा, सेवंती, मनी-प्लांट, और दूसरे पौधे । इसे वह 'बगीचा' कहती है । मैं हँसा, तो डाँटकर बोली, पापा, आप रूफ-गार्डन नहीं जानते ?' मुझे हार माननी पड़ी । "
इस बीच मैं सहज हो चुका था । शायद वे मेरी 'असहजता' भांप चुके थे, लेकिन उन्होंने ऐसा कुछ जाहिर नहीं होने दिया था ।
"और 'बगीचे' की देख-रेख वही करती है । कभी गमलों की दिशा बदलती है, कभी मिट्टी बदलती है, कभी धुप में रखती है, तो कभी 'शेड' के लिए उन पर चादर तान देती है । सूखे पत्तों, फूलों को हटाती है । "
'हमारे यहाँ भी ऐसा शौक माँ-बेटी को है । लेकिन उसके लिए घर बड़ा होना चाहिए । मेरा घर तो आपके घर से शायद छोटा ही है । "
-मैंने उत्तर दिया ।
"आपकी बात सही है, लेकिन इसका कोई हल नहीं है । "
-उन्होंने तुकबंदी के जिस लहजे में जवाब दिया, उससे मुझे हँसी आ गयी ।
"अंकल क्यों हँस रहे हैं ? "
-सीढ़ियों पर से ऊपर छत पर आ रही उनकी बिटिया पूछने लगी ।
"अंकल पूछ रहे हैं कि इतना सुन्दर बगीचा किसकी मेहनत का नतीज़ा है ? "
-मुस्कुराते हुए वे उससे बोले ।
उसने संदेह से उनकी ओर देखा, कि कहीं वे उससे मज़ाक तो नहीं कर रहे हैं । फिर बोली,
"थैंक्यू अंकल, लेकिन आप तो हान्स रहे थे ? "
"भई, आपके पापा बातें करते-करते कविता करने लगे, तो मुझे हँसी छूट गयी ।"
-मैंने सफाई दी ।
उसका अविश्वास और बढ़ गया ।
"कविता, और पापा ?"
-उसने आश्चर्य दिखलाते हुए कहा ।
"पिछली बार मैं जबलपुर जा रहा था तो तुम्हारे पापा मिल गए थे । एक ही कोच में उनकी और मेरी बर्थ थी । उनकी खिड़की के ऊपरवाली, मेरी आमने-सामने वाली बाकी में से एक । "
"सच ?"
"हाँ, "
'सर' शान्त भाव से मुस्कुरा रहे थे ।
"तुमने टमाटर की चटनी, आलू के पराँठे, भिन्डी की सब्जी बनाई थी । याद है ?"
वह आश्चर्य से देखती रही और अपनी प्रशंसा सुनकर थोड़ा झेंप भी गयी ।
"आपको किसने बताया ?"
"पापा ने ही । "
वह छत पर यूँ ही चली आई थी, शायद किसी छोटे-मोटे काम से, या ऐसे ही । फिर वह एक गमले के पास गयी, सूख रहे फूलों को, पत्तियों को निकाला, और मिट्टी में उंगली घुमाती रही । फिर उठी, और छत की रैलिंग के पास खड़ी होकर बाहर देखने लगी । इस बीच वह 'कहीं-नहीं' थी । मेरी तरह । जैसे मैं खुद अभी थोड़ी देर पूर्व था ।
ऐसे क्षणों में, जब हम झेंप जाते हैं, खासकर उस उम्र में, जब हम किशोरुम्र पार कर यौवन में प्रवेश कर रहे होते हैं, तब क्या होता है ? मैं इस बीच कनखियों से बिटिया को वैसे ही देख रहा था, जैसे कुछ देर पहले शायद 'सर' ने मुझे देखा होगा ।
वह गमले के पास कुछ नहीं कर रही थी । सूखे फूल या पत्तियाँ हटाने का काम अन्यमनस्कता-पूर्वक, यंत्रवत हो रहा था । वहाँ 'कर्ता' अनुपस्थित था । 'कर्म' था, 'कर्त्तृत्त्व-भाव' भी, अनायास विलीन था । याने 'मैं'-भावना विलीन थी, और शुद्ध-अस्तित्त्व खुद ही खुद को जान रहा था । वह निद्रा, तंद्रा, बेहोशी, नशा, संमोहन, मूर्छा, स्वप्न, नहीं था, वह कल्पना, भावना, विचार, नहीं था । वह वह था, जो कि वह था । वह 'अनन्य-ता' थी । 'न-अन्यता' । वह 'अनुभव' नहीं था, उसे आप निमंत्रित नहीं कर सकते, उसे आप स्मरण नहीं कर सकते, उसे आप सहेज नहीं सकते । वह 'आपका' 'अनुभव' नहीं था । फिर भी वह था, साबुत, मुकम्मल, अक्षत और संपूर्ण, काल और स्थान के विभाजन से अछूता ।
वह इस मुसीबत (?) में अनायास फँस गयी थी, और उसे पता ही नहीं था ! हम सब के साथ उस उम्र में यह होता है, कभी न कभी । वह गमले के पास बैठी अपनी शर्म और झेंप को संभाल रही थी, फिर छत की रैलिंग के पास जाकर थोड़ी देर खड़ी रही थी । फिर वह 'लौट' आई थी, इस जानी-पहचानी दुनिया में । उसने इस बीच बेवजह ही किसी काम में व्यस्त होने का नाटक किया था । अब वह सुरक्षित थी,अपने घर की छत पर, जैसे मैं वहाँ 'सर' के सामने 'सुरक्षित' था ।
उसे अचानक याद आया कि वह छत पर क्यों आई थी ।
"मम्मी पूछ रही थी कि भोजन कब करेंगे ?"
-उसने 'सर' से पूछा ।
वे मेरी तरफ देखने लगे । अभी उठने का मन नहीं था, वह 'अनुभूति' ऐसी कोई अनुभूति नहीं थी जिसका 'स्वाद' बाकी रह जाता हो ।
आधे घंटे के उस वक्त में न जाने कितनी सृष्टियाँ बनी और मिट भी गईं थी, मैं नहीं कह सकता । लेकिन मन तरोताजा और प्रसन्न था ।
"मैं सोचता हूँ अभी आधे घंटे यहीं बैठे रहें, "
-मैंने कहा ।
"मम्मी से कहो, बस आधे घंटे बाद । "
"मनुष्य में एक 'मैगपाई-सिंड्रोम' होता है । "
-अचानक उन्होंने बातचीत का सिरा पकड़ा ।
"जानते हैं, एक पक्षी होता है 'मैगपाई' ? "
-उन्होंने कहा ।
"अच्छा ! "
-मैंने कौतूहलवश कहा ।
"हाँ, वैसे तो यह जंगली चिड़िया होती है, लेकिन रहती मनुष्यों की बस्ती के आसपास ही है । "
मैं सुन रहा था ।
"उसे शौक होता है रंग-बिरंगी, चमकीली चीज़ें जमा करने का । "
"अच्छा ! "
"हाँ, और वह भी ऐसी चीज़ें जमा करने का, जो तुच्छ, व्यर्थ, और दिखावटी हों । जिनका उसे शायद कोई उपयोग नहीं होता, शायद उसके 'सौन्दर्य-बोध' के लिए वे उसे ज़रूरी लगतीं हों । शायद उससे वह घोंसले को सजाती हो ! "
"यह तो आश्चर्य की बात है !"
'मुझे तो लगता है कि उसे यह आदत मनुष्य की सोहबत में रहकर लगी होगी । '
-वे हँसते हुए बोले । मैं भी हँसने लगा ।
"इसलिए जिन लोगों में यह आदत होती है, उन्हें 'मैगपाई-सिंड्रोम' से ग्रस्त कहा जाता है । "
"सच ?"
"नहीं भी कहा जाता हो तो कहा जा सकता है !"
-उन्होंने संशोधन पेश किया ।
"जैसे बुद्धिजीवी ? "
-मैंने कुरेदा ।
"हाँ ! "
पास खड़ी उनकी बिटिया खिलखिलाकर हँस पडी ।
मैंने उसकी ओर देखा तो बोली,
"याने पापा मुझे बुद्धिजीवी तो मानते ही हैं !"
वे मुस्कुराने लगे ।
फिर बिटिया की ओर संकेत कर बोले,
"दर-असल हम इसे प्यार से कभी-कभी मैगपाई कहते हैं । "
धूप तीखी हो उठी तो हम उठ खड़े हुए ।
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