February 19, 2010

उन दिनों -53

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स्वयं 'विचार' क्या है ? यदि हम 'पदार्थ', 'ऊर्जा', या ऐसी अन्य भौतिक वस्तुओं के स्वरूप के बारे में खोज-बीन कर सकते हैं, तो जिससे हमारा सतत पाला पड़ रहा है, उस 'विचार' के ही 'स्वरूप', प्रकृति (nature) के बारे में भी हमें जिज्ञासा नहीं होनी चाहिए ? क्या 'जिज्ञासा' 'विचार' है ? स्पष्ट है कि 'जिज्ञासा' 'विचार' से स्वरूपत: एक अलग वस्तु है 'जिज्ञासा' जब होती है, तब चित्त अनायास 'निर्विचार' होता है, लेकिन जब हमें 'जानकारी' चाहिए होती है, तब हमारे मन में विचार घुमड़ते रहते हैं, जो अतीत की स्मृतियों और उनसे संबद्ध की गयी 'ध्वनियों' की अनुगूंज ही होते हैं उसमें कोई 'नया' कैसे जाना जा सकता है ? 'अभिव्यक्ति के लिए हमें शब्दों का प्रयोग करना पड़ता है, इसका यह तात्पर्य कतई नहीं कि 'विचार' 'जिज्ञासा' का विकल्प हो सकता है
'
विचार' के दो मूल तत्त्वों को समझने की चेष्टा करें, तो वह हैं, : तरंग या कंपन और काल अर्थात् समय यदि इनके साथ उस 'अर्थ' को भी रख दिया जाए, जिसे हम 'विचार' के माध्यम से 'ग्रहण' या संप्रेषित करते हैं, तो वह 'विचार' का एक तीसरा आयाम होगा क्या विचार में पदार्थ भी एक आयाम नहीं होता ? यदि हम विचार में निहित शुद्धत: 'भौतिक ऊर्जा' के बारे में कहें, तो ऊर्जा पदार्थ का ही अन्य प्रकार होने से हम समझ सकते हैं, कि 'विचार' में 'पदार्थ की क्या भूमिका होती है स्पष्ट है कि ऊर्जा की गतिविधि 'काल' और 'स्थान' के अंतर्गत ही होती है इस प्रकार 'ऊर्जा' वह सेतु है, जिसके माध्यम से हम 'दिक्काल' और 'पदार्थ' की अनन्यता /एकरूपता /अभिन्नता समझ सकते हैं संक्षेप में, : यह पूरा 'दृश्य'-जगत, इस प्रकार 'ऊर्जा' में समाविष्ट है, यह स्पष्ट है 'विचार' के अंतर्गत एक दूसरा महत्त्वपूर्ण आयाम जुड़ता है, वह है 'अर्थ'का आयाम वह 'अर्थ' जिसे 'विचार' के द्वारा कहा अथवा ग्रहण किया जाता है, -एक 'वक्तव्य', जो 'अर्थ' में भाव-सृष्टि करता है यह 'भाव' या 'sense' क्या वस्तु है ? जब एक कम्प्युटर कोई 'वक्तव्य' देता है, तो क्या उस वक्तव्य में भाव का यह आयाम अनुस्यूत होता है ? इसकी तुलना में एक मनुष्य, जो कि भावना और विचार दोनों से युक्त होता है, जब कोई 'वक्तव्य' देता है या ग्रहण करता है, तो उसमें एक नया आयाम जुड़ा होता है, -'अर्थ' का क्या इस 'भाव-तत्त्व' को, इस आयाम को चेतन-तत्त्व कहें ? अभी हम 'मैं' के स्वरूप के बारे में कुछ नहीं कह रहे हैं, अभी तो एक सामान्य मनुष्य की अभिव्यक्ति और कंप्यूटर कीअभिव्यक्ति में वह पक्ष देखने का प्रयास कर रहे हैं, जो मनुष्य की अभिव्यक्ति में तो होता है, लेकिन कम्प्युटर कीअभिव्यक्ति में नहीं हो सकताइसे ही हम एक और उदाहरण से समझने की कोशिश करेंएक डियो-प्लेयरकैसेट, या सीडी में अंकित किसी गाने को हम सुनते हैंइसमें भी शब्द, विचार आदि तो होते हैं, लेकिन भाव तोसुननेवाले मनुष्य के ही द्वारा 'ग्रहण' किये जाते हैंतात्पर्य यह कि वे भाव-विशेष, उसके अपने ही हृदय में उत्पन्नभी होते हैं, जिनका संवेदन उसे होता हैफिर वह उस भाव-विशेष को गीत या संगीत पर आरोपित करता हैकिसी दूसरे मनुष्य में उन शब्दों को सुनकर कोई दूसरे भाव भी पैदा हो जाते हैंसरल शब्दों में, मैं इस 'भाव-पक्ष' को जीवन कहना चाहूँगायह वैयक्तिक है या नहीं, इस पर भी सोचा जाना चाहिए ।"
-कौस्तुभ उर्फ़ मैं के अर्थात मेरे मन में यह सब आता है
"... ... और यह 'भाव' यद्यपि 'अमूर्त' तत्त्व है, लेकिन मूलत: वह क्या किसी 'घटना' की अपेक्षा, आशंका, या उसके होने की संभावना का मानसिक चित्र ही नहीं होता ? "
उसने पुन: और भी ध्यान देकर कहायाने कि मैंने
"आपको यह क्यों लगता है कि सारे 'समय' कॉकरेंट /को-एक्ज़िस्टेंट होते हैं ? "
-अविज्नान ने कभी मुझसे पूछा था
"यह मेरा बौद्धिक निष्कर्ष या अनुमान नहीं, बल्कि अंत:प्रज्ञा (intuition) है, क्योंकि मैं कभी-कभी सुदूर भविष्य में घटित अर्थात् घटित होनेवाली घटना 'देख' चुका हूँयही वह सूत्र है, जिससे हममें ऐसी अंत:प्रज्ञा सकती है । "
-मैंने उत्तर में कहा था
"वैयक्तिक समय, वैयक्तिक अस्तित्त्व, और अब अंत:प्रज्ञा भी !"
उसने एक ठंडी सांस लेकर आगे कहा था :
"क्या अंत:प्रज्ञा भी वैयक्तिक या निर्वैयक्तिक होती है ?"
"अच्छा, यह बतलाओ, कि जीवन वैयक्तिक होता है या निर्वैयक्तिक ?"
मैंने एक ऐसा टॉपिक छेड़ दिया था जिसे जाने कितने विस्तार में सोचने-समझने पर कहीं पहुँचते
"क्या इसे केवल निर्वैयक्तिक अथवा केवल वैयक्तिक कहना ठीक होगा ? क्या इसके दो पहलू नहीं होते ? एक ओर सेजहाँ यह सदैव वैयक्तिक ही हो सकता है, निर्वैयक्तिक कभी नहीं, वहीं दूसरे ढंग से यह सदैव निर्वैयक्तिक ही हुआ करता है, वैयक्तिक कतई नहीं ।"
"हम जीवन की बात कर रहे हैं, जहाँ जीवन है, (और कहाँ नहीं है ?) वहाँ 'जानना' तो स्वत:सिद्धत: है ही । 'जाननातो इम्प्लाइड ही है । "
"और 'जाननेवाला' ?"
" हाँ, 'जाननेवाला' भी इम्प्लाइड हैप्रत्यक्ष और अनिवार्यत: है । "
"यदि 'जाना गया' ही नहीं है, तो 'जानना' या 'जाननेवाला' किसे / क्या जानते हैं ?"
"हो सकता है कि जिसे जाना गया है, उसके बारे में यह पता चला हो कि उसकी 'स्वतंत्र-सत्ता' नहीं होतीक्योंकि यदि उसकी 'जाननेवाले' से पृथक, 'स्वतंत्र-सत्ता' होगी, तो उसका 'ज्ञान' भी 'जाननेवाले' से पृथक होगा । "

अच्छा, अब हम वैयक्तिक और निर्वैयक्तिक पर लौटें

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>>>>>>>>> उन दिनों -54>>>>>>>>>>>>>

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