February 13, 2010

उन दिनों -48.

~~~~~ उन दिनों -48.~~~~~~
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वे अतीत में चले गए थे ।
"अब नहीं पढ़ते ?"
थोड़ा इंतज़ार करने के बाद मैं उन्हें वर्त्तमान में खींच ले आया था ।
"आजकल कुछ नहीं पढ़ पाता, अखबार तक नहीं पढता । "
वे एक ऐसी विचित्र सूखी सी हँसी हँस दिए, जो थोड़ी खिसियाई हुई जान पड़ती थी । शायद उसमें कोई उपहास या कटु स्मृति छिपी हुई थी ।
"मैंने एक-दो बार सोचा कि इन्हें रद्दी में दे दूँ । "
-वे सहजता से बोले ।
लेकिन मैं उनके चेहरे पर अब भी उसी सूखी, खिसियाई हुई हँसी को ढूँढने की कोशिश कर रहा था, जिसकी एक म्लान छाया अब भी वहाँ शायद थी । मुझे लग रहा था कि अब शायद कुछ अनहोनी घटेगी । सुबह से अब तक कितने रंग बदल चुके थे । क्या यह कोई नया रंग है ? -कोई क्लाइमैक्स ?
मैंने सहमकर उनके मुख की ओर देखा और मुझे लगा कि उनके मुख से अभी जो वाक्य मैंने सूना, उसे सुनना मेरा भ्रम तो नहीं था ? उनका चेहरा इन दो-चार मिनटों में ज़रा भी नहीं बदला था । यह तो मैं अपनी सोच में ही तय कर रहा था कि उन्होंने जो कहा है, वह किसी कटु स्मृति से उपजा वाक्य है ।
"आपको मेरी बातें कुछ अजीब लग रही होंगीं ।"
वे मेरी सहायता करने आगे आये ।
"देखिये, कोई दस-बारह वर्षों पहले तक मेरे लिए इन सब चीज़ों का बहुत महत्त्व था, बहुत मायने थे । जटिल बौद्धिक बातें, कॉफ़ी-हाउस, मुशायरे, सार्त्र, देकार्ते, ब्रेष्ट, और शॉ ... ... , काफ्का, और अज्ञेय, और ऐसे ही दूसरे लोग, ... । "
वे दो पल के लिए चुप हो गए । "और अब ? "
पुनश्च मैं उन्हें चर्चा में खींचना चाह रहा था ।
"तब और अब में यूँ तो पूरे दस-बारह वर्ष हैं, "
वे उठकर खड़े हो गए थे और शेल्फ के पास जा पहुँचे थे । शेल्फ पर पड़ा पर्दा उन्होंने खींच कर बंद कर दिया था । ऐसा लग रहा था वे उस अतीत को वापस परदे के पीछे धकेल देना चाहते हैं ।
अगरबत्ती का धुआँ अब भी अत्यंत मृदु सुवास के साथ कमरे में विद्यमान था । उनकी बिटिया और पत्नी उनके अपने अपने में व्यस्त थीं । शायद घर पर थीं हीं नहीं, आसपास कहीं गयीं होंगीं । उनके ड्रॉइंग-रूम में उस वक्त बस हम दो ही थे ।
"एक बात बतलाइये, "
-वे बोल पड़े ।
"क्या आपको कभी ऐसा नहीं लगता कि यह सब झूठ है, और इस झूठ से परे भी कहीं कुछ भी नहीं है ? क्या कभी आपको जिन्दगी से असंतोष, गहरा असंतोष, डिस्सेटिस्फिकेशन नहीं हुआ ? ऐसा असंतोष नहीं, जो किसी चाही गयी वस्तु के न मिल पाने से उपजता है, बल्कि ऐसा असंतोष, जो जिन्दगी के खोखलेपन को जानने से अपमे भीतर उपजता हो ? "
यह सचमुच ज्यादती थी मेरे साथ उनकी । मैं तो यहाँ अपने लिए किसी कहानी के 'प्लॉट' की तलाश में आया था और ये महाशय एक अलग ही सुर छेड़ रहे थे ! और कहीं होता तो कुछ गंभीर किस्म की बातें होतीं, कला, काव्य, साहित्य नहीं, -न सही, और कुछ नहीं तो डोंगरे महाराज, मुक्तानंद, साईं बाबा के बारे में या रामकृष्ण परमहंस के बारे में या ज्ञान, भक्ति, वेदान्त, आदि की बातें होतीं, पर यहाँ तो मामला अलग ही था ।
"आपने पूछा नहीं, किसका फोटो है यह ?"
वे अधीरता से बोले । यकायक जैसे उनका मूड बदल गया था, लेकिन उसका ख़ास रंग अब भी वैसा ही था ।
"यह है अजय," -मेरे उत्तर की प्रतीक्षा न करते हुए वे बोले ।
"अपर्णा से, मेरी बिटिया से तीन साल बड़ा है । "
मुझे ख़याल आ चुका था कि शायद अब अजय इस दुनिया में नहीं है । अपनी संवेदनहीनता पर अब मुझे शर्म भी आ रही थी ।
"है, याने कि था । "
-उन्होंने स्पष्ट किया ।
"लेकिन मैं उसे हमेशा वर्त्तमान में ही महसूस करता हूँ । "
-वे आगे बोले ।
मैं कुछ सोचने लगा ।
"आप एक ओर तो कहते हैं कि तब और अब में पूरे दस-बारह वर्ष हैं, वह आपका अतीत था । और दूसरी ओर आप ... ... "
-मैं कहते-कहते रुक गया ।
"दूसरी ओर क्या ?"
"दूसरी ओर आप अजय के बारे में कहते हैं, 'था', लेकिन उसे आप हमेशा वर्त्तमान में ही महसूस करते हैं ! "
'हाँ, तुम्हारी बात ठीक है । "
-वे अचानक मुझे 'आप' की बजाय 'तुम' कह बैठे ।
मैं समझ नहीं पा रहा था । क्या अजय अभी है, लेकिन उससे इनके रिश्ते शायद समाप्त से हो गए हैं ? या वह जीवित ही नहीं है ?
"कुछ साल पहले वह कॉलेज से लौट रहा था । नई-नई साइकिल खरीदी थी उसके लिए । इसी दौरान लापरवाही से ट्रक चलानेवाले एक ड्राइवर की गलती से वह ट्रक की चपेट में आ गया । उसकी मृत्यु हो गयी । "
-वे उदासी से बोले ।
कमरे में जलती अगरबत्तियां बुझने लगीं थीं । धुआँ अब भी कमरे में भटक रहा था । हम कुछ पल खामोश रहे ।
"क्या हम अतीत को जान सकते हैं ?"
-उन्होंने एक बेबूझ सा प्रश्न पूछा । और कोई कहीं किसी वक्त यह प्रश्न पूछता तो मैं शायद उसकी बेवकूफी भरे इस प्रश्न पर हंसता । लेकिन यहाँ जब उन्होंने इसे पूछा तो मैं इसके गूढ़ तात्पर्य के बारे में सोचने लगा । लेकिन मुझे वाकई कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि वे इस प्रश्न के माध्यम से क्या कहना या पूछना चाह रहे हैं ।
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